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'''शल्य''', माद्रा (मद्रदेश) के राजा जो [[पांडु]] के सगे साले और नकुल व सहदेव के मामा थे।<ref>{{cite web|title=महाभारत के वो 10 पात्र जिन्हें जानते हैं बहुत कम लोग!|url=http://www.bhaskar.com/article-hf/HAR-AMB-mahabharat-characters-known-less-to-people-haryana-4476348-PHO.html?seq=7 |publisher=दैनिक भास्कर|date=२७ दिसम्बर २०१३|archiveurl=http://archive.is/Gi2R9 |archivedate=२८ दिसम्बर २०१३}}</ref> परंतु [[महाभारत]] में इन्होंने [[पाण्डव|पांडवों]] का साथ नहीं दिया और [[कर्ण]] के सारथी बन गए थे। कर्ण की मृत्यु पर युद्ध के अंतिम दिन इन्होंने कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन [[युधिष्ठिर]] के हाथ मारे गए। इनकी बहन माद्री, [[कुंती]] की सौत थीं और पांडु के शव के साथ चिता पर जीवित भस्म हो गई थीं।
 
मद्र देश के राजा शल्य नकुल-सहदेव के सगे
मामा थे। वे चले
थे यह संकल्प लेकर कि वे अपने
भांजों यानि पाण्डवों की ओर से युद्ध करेंगे।
पाण्डवों को पूरा विश्वास था कि उनके
मामाजी उनके
शिविर में अपने आप आ जायेंगे। उनका यह विश्वास
स्वाभाविक भी था। दुर्योधन राजा शल्य
की प्रत्येक
गतिविधि पर नज़र रखे हुए था। यह तय
हो गया था कि श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में
शस्त्र
नहीं उठायेंगे लेकिन अर्जुन के सारथि बनेंगे।
युद्ध के
निर्णायक पलों में सारथि का कौशल बहुत काम
आता है।
श्रीकृष्ण जैसा सारथि पूरे आर्यावर्त्त में
दूसरा कोई
नहीं था। राजा शल्य एक महारथी तो थे ही,
श्रीकृष्ण के
टक्कर के कुशल सारथि भी थे। दुर्योधन उन्हें
कर्ण
का सारथि बनाना चाहता था। लेकिन वे पाण्डवों के
सगे
मामा थे। उन्हें अपने पक्ष में ले आना कठिन
ही नहीं असंभव भी लग रहा था। चिन्तित दुर्योधन
को शकुनि ने सलाह दी – “शल्य को खातिरदारी और
प्रशंसा अत्यन्त प्रिय है। हस्तिनापुर तक
आनेवाले रास्ते
में कालीन बिछा दो, गुलाब-जल का छिड़काव करा दो,
स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनवा दो और अपने
सचिवों को हर स्वागत द्वार पर फूल-मालाओं के
साथ
शल्य के स्वागत में तैनात कर दो। शल्य यह
समझेंगे कि यह
सारी व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है। और इस तरह वे
तुम्हारे निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर सीधे तुम्हारे
पास
पहुंच जायेंगे। उनके आने पर हम
उनका इतना स्वागत करेंगे
कि वे अपने भांजों को भूल जायेंगे और
हमारी ओर से युद्ध
करना स्वीकार कर लेंगे।” सारी घटनाएं शल्य
की योजना के अनुसार ही घटीं। दुर्योधन
की आवाभगत से
प्रसन्न शल्य ने न सिर्फ दुर्योधन की ओर से
लड़ना स्वीकार किया, अपितु कर्ण का सारथि बनने
के
लिए भी ‘हां’ कर दी। शल्य के निर्णय
की सूचना पाकर
पाण्डव बहुत चिन्तित हुए। लेकिन श्रीकृष्ण
मुस्कुरा रहे
थे। कारण पूछने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि समय
आने पर
शल्य का यह निर्णय
भी पाण्डवों का ही भला करेगा।
हुआ भी यही। भीष्म पितामह के शर-शय्या पर जाने
और
द्रोणाचार्य के निधन के बाद कर्ण कौरव
सेना का सेनापति बना और शल्य उसके सारथि।
श्रीकृष्ण
की सलाह पर पांचों पाण्डवों ने उनके नेतृत्व
में शल्य के
शिविर में जाकर मुलाकात की। अपने उपर हुए
दुर्योधन के
अत्याचारों से उन्हें अवगत कराया। साथ ही यह
भी बताया कि द्यूत-क्रीड़ा के समय कर्ण
द्वारा ही दुशासन को यह निर्देश
दिया गया था कि द्रौपदी को निर्वस्त्र कर दो।
शल्य
आखिर थे तो पाण्डवों के ही मामा। वे द्रवित हुए
बिना नहीं रह सके। पाण्डवों ने उन्हें अपने
पक्ष में आने
का न्योता दिया। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे
अस्वीकार कर दिया कि वे दुर्योधन को वचन दे
चुके हैं।
अतः अन्त समय में वचनभंग नहीं कर सकते।
श्रीकृष्ण ने
उनसे दूसरे ढंग से सहायता पहुंचाने का प्रस्ताव
किया किया जिसपर उन्होंने अपनी सहमति दे दी।
प्रस्ताव था – अर्जुन और कर्ण के युद्ध के
समय शल्य अर्जुन
की प्रशंसा करेंगे और कर्ण की वीरता और
सामर्थ्य
की निन्दा। वे कर्ण के मनोबल को गिराने की हर
संभव
कोशिश करेंगे। हत मनोबल और हत उत्साह से कोई
युद्ध
नहीं जीत सकता। श्रीकृष्ण की यह युक्ति काम
आई। ऐन
वक्त पर अर्जुन-कर्ण के निर्णायक युद्ध के
वक्त जब
श्रीकृष्ण अपनी बातों से अर्जुन का मनोबल
बढ़ा रहे थे,
शल्य योजनाबद्ध ढंग से कर्ण का मनोबल गिरा रहे
थे।
परिणाम वही हुआ जो ऐसी दशा में होना था। शाम
ढलते-ढलते कर्ण को पराजय के साथ-साथ मृत्यु
का भी वरण करना पड़ा।
 
== सन्दर्भ ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/शल्य" से प्राप्त