"सर्पगन्धा": अवतरणों में अंतर

पेज का विस्तार किया गया है।
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
→‎वितरण क्षेत्र एवं पारिस्थितिकी: पेज का पूर्ण विस्तार कर दिया गया है।
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
पंक्ति 39:
सर्पगंधा एशिया महाद्वीप में भारत के अतिरिक्त श्रीलंका, म्यनमार, मलेशिया, इण्डोनेशिया, चीन तथा जापान में भी वितरित है। एशिया महाद्वीप के अतिरिक्त सर्पगंधा दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रिका महाद्वीपों में भी पाया जाता है।
 
सर्पगंधा आमतौर से जीवांश संपन्न अम्लीय बलुई दोमट (sandy loam) तथा चीका दोमट (clayey loam) मृदा जिसका पी0एच0 मान 6.5 से 8.5 के बीच हो, में सफलतापूर्वक उगता है। यह आमतौर से उष्णकटिबंधीय (Tropical) तथा उपउष्ण- कटिबंधीय (Sub-tropical) जलवायु में पाया जाता है जिसमें जून से अगस्त के बीच मानसून महीनों में भारी वर्षा होती है। इस वनस्पति की वृद्धि के लिए 10 से 38 डिग्री सेल्सियस के बीच का तापमान आदर्श होता है। सर्पगंधा आमतौर से नम तथा छायादार स्थान पसंद करता है लेकिन जल-जमाव के प्रति संवेदनशील होता है। बहुवर्षीयबहुवर्षीयसर्पगंधा की पत्तियां उत्तर भारत में शीत ऋतु (शुष्क मौसम) में झड़ जाती है।
 
== सर्पगंधा के औषधीय गुण ==
सर्पगंधा के औषधीय गुण मुख्यतः पौधे की जड़ों (roots) में पाये जाते हैं। सर्पगंधा की जड़ में 55 से भी ज्यादा क्षार पाये जाते हैं। लगभग 80 प्रतिशत क्षार जड़ों की छाल में केन्द्रित होते हैं। पौधे की जड़ों में सम्पूर्ण क्षार की मात्रा 0.8 - 1.3 प्रतिशत तक रहती है। सर्पगंधा के क्षारों को दो समूहों में बाँटा गया है- (i) एजमेलीन समूह तथा (ii) सर्पेन्टीन समूह।
 
एजमेलीन समूह के अन्तर्गत एजमेलीन (Ajmaline), एजमेलेलिनीन (Ajmalinine) तथा एजमेलीसीन (Ajmalicine) आते हैं। जबकि सर्पेन्टीन समूह के अन्तर्गत सर्पेन्टीन (Serpentine) तथा सर्पेन्टीनीन (Serpentinine) आते हैं। अन्य में रेसर्पीन (Reserpine), रेसीनामीन (Rescinnamine) योहीमबीन (Yohimbine), सर्पाजीन (Sarpagine) तथा रूकाफ्रीसीन (Raucaffricine) जैसे क्षार आते हैं जिसमें सबसे महत्वपूर्ण रेसर्पीन होता है। अतः अब सर्पगंधा के क्षारों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
 
(i) गहरे-पीत वर्ण के चतुर्थक एनहाइड्रोनियम समाक्षार (deep-yellow coloured quaternary anhydronium bases),
(ii) मध्य प्रबल इण्डोलीन क्षार (the intermediate strong indoline alkaloids) तथा
(iii) कमजोर समाक्षारीय इण्डोल क्षार (weak basic indole alkaloids)। अंत की दो श्रेणियां वर्णहीन होती हैं।
 
सर्पगंधा के पौधें की जड़ों में उपस्थित अजमेलीन, सर्पेन्टीन तथा सर्पेन्टीनीन क्षार केन्द्रीय वात नाड़ी संस्थान को उत्तेजित करते हैं। इसमें सर्पेन्टीन अधिक प्रभावशाली होता है। उक्त तीन क्षारों सहित अन्य सभी क्षार तथा मद्यसारीय सत्व (alcoholic extracts) में शामक तथा निद्राकर (hypnotic) गुण होते हैं। कुछ क्षार हृदय, रक्तवाहिनी तथा रक्तवाहिनी नियंत्रक केन्द्र के लिए अवसादक (depressant) होते हैं।
 
रेसर्पीन क्षार औरों की अपेक्षा अधिक कार्यकारी होता है। यह नाड़ी कन्दों में अवरोध (ganglionic blockade) उत्पन्न नहीं करता वरन् ऐसा आभास होता है कि रक्तचाप (hyperpiesis) को कम करने का इसका प्रभाव कुछ अंश में स्वतन्त्र नाड़ी संस्थान के केन्द्रीय निरोध (Central inhibition of sympathetic nervous system) के कारण होता है।
 
 
सर्पगंधा की जड़ों में क्षारों के अतिरिक्त ओलियोरेसिन, स्टेराल (सर्पोस्टेराल), असंतृप्त एलकोहल्स, ओलिक एसिड, फ्यूमेरिक एसिड, ग्लूकोज, सुकरोज, आक्सीमीथाइलएन्थ्राक्यूनोन (oxymethylantheraquinone) एवं खनिज लवण भी पाये जाते हैं। इन सब में ओलियोरेसिन कार्यिकी रुप से सक्रिय होता है तथा औषधि के शामक (sedative) कार्रवाई के लिए उत्तरदायी होता है।
 
== सर्पगंधा के औषधीय उपयोग ==
सर्पगंधा की जड़े तिक्त पौष्टिक, ज्वरहर, निद्राकर, शामक, गर्भाशय उत्तेजक तथा विषहर होती हैं। भारत में प्राचीन काल में सर्पगंधा की जड़ों का उपयोग प्रभावी विषनाशक के रूप में सर्पदंश तथा कीटदंश के उपचार में होता था। मलेशिया तथा इण्डोनेशिया के उष्ण-कटिबंधीय घने वनों में निवास करने वाली जनजातियां आज भी सर्पगंधा का उपयोग कीटदंश, सर्पदंश तथा बिच्छूदंश के उपचार में करती हैं। पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में सर्पगंधा की जड़ों का उपयोग उच्च-रक्तचाप, ज्वर, वातातिसार, अतिसार, अनिद्रा, उदरशूल, हैजा आदि के उपचार में होता है। इसका उपयोग वातातिसार एवं हैजा में ईश्वर मूल के साथ, उदरशूल में जंगली अरण्ड के साथ, अतिसार में कुटज के साथ तथा
ज्वर में मिरिच तथा चिरायता के साथ किया जाता है।
 
जड़ का रस अथवा अर्क उच्च-रक्तचाप की बहुमूल्य औषधि है। जड़ों के अर्क का उपयोग फोड़े-फुन्सियों (pimples & boils) के उपचार में भी होता है। जड़ों का अर्क प्रसव पीड़ा के दौरान बच्चे के जन्म को सुलभ बनाने हेतु (बच्चेदानी के संकुचन को बढ़ाने के लिए) दिया जाता है। जड़ों के अर्क का प्रयोग हिस्टीरीया (hysteria) तथा मिर्गी (epilepsy) के उपचार में भी होता है। इसके अतिरिक्त, घबराहट तथा पागलपन (insanity) के उपचार में भी सर्पगंधा की जड़ों का प्रयोग किया जाता है।
 
सर्पगंधा की पत्तियों का रस नेत्र ज्योति बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जाता है। सर्पगंधा का प्रयोग त्वचा बिमारियां जैसे सोरेसिस (psoriasis) तथा खुजली (itching) के उपचार में भी किया जाता है। परंपरागत रुप से औरतें सर्पगंधा का प्रयोग रोते हुए बच्चों को सुलाने हेतु भी करती हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धति (एलोपैथ) में जड़ों से निर्मित औषधियों का उपयोग उच्च-रक्तचाप को कम करने तथा स्वापक के रुप में अनिद्रा के उपचार में किया जाता है।
 
इसके अतिरिक्त अतिचिन्ता रोग (hypochondria) तथा अन्य प्रकार के मानसिक विकारों के उपचार में भी किया जाता है। सर्पगंधा से निर्मित औषधियों का प्रयोग एलोपैथ में तन्त्रिकामनोरोग neuropsychiatrics) वृद्धावस्था से संबद्धरोग (बिषैली कंठमाला, एंजाइना पेक्टोरिस तथा तीव्र अथवा अनियमित हृदय कार्रवाई), मासिकधर्म मोलिनिमिया (menstrual molinimia) एवं रजनोवृत्ति सिण्ड्रोम (menopausal syndrome) के उपचार में किया जाता है।
 
== सर्पगंधा की घटती जनसंख्या के कारण ==
सर्पगंधा की घटती जनसंख्या के बहुत से कारण है जिनमें अतिशोषण, कमजोर पुनर्जनन क्षमता, बढ़ती जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार, वनविनाश, कीटनाशकों तथा खर-पतवारनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग तथा शहरीकरण प्रमुख हैं। औषधीय तथा वाणिज्यिक उपयोग हेतु अतिशोषण सर्पगंधा की घटती जनसंख्या का प्रमुख कारण है। चूंकि सर्पगंधा के औषधीय गुण जड़ों में मौजूद होते हैं इसलिए जड़ों की प्राप्ति हेतु सम्पूर्ण पौधे को नष्ट करना पड़ता है क्योंकि पौधे को बगैर नष्ट किए जड़ों की प्राप्ति नहीं की जा सकती है। यही कमजोरी सर्पगंधा की निरन्तर गिरती जनसंख्या का एक प्रमुख कारण है।
 
बढ़ती मानव जनसंख्या के कारण कृषि क्षेत्रफल में विस्तार के फलस्वरुप सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास नष्ट हो कर कृषि योग्य भूमि में परिवर्तित हो गये हैं। इसी प्रकार शहरीकरण के परिणामस्वरुप भी सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास को क्षति पहुँची है जिसके कारण इस औषधीय महत्व के पौधे की जनसंख्या में गिरावट आयी है। आधुनिक कृषि में खर-पतवारनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण वांछित खर-पतवारों के साथ-साथ सर्पगंधा के भी पौधे नष्ट हो जाते हैं।
 
इसी प्रकार कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण परागण को बढ़ावा देने वाले उपयोगी कीट भी नष्ट हो जाते हैं जिससे परागण की प्रक्रिया प्रभावित होती है परिणामस्वरुप इस कीट परागित पौधे की प्रजनन क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। पारंपरिक रूप से उप-हिमालय क्षेत्र के वन सर्पगंधा वनस्पति के भण्डार रहे हैं लेकिन इन क्षेत्रों में वृहद पैमाने पर वनों की कटाई के कारण वन क्षेत्रफल में अभूतपूर्व कमी आयी है जिससे सर्पगंधा भी प्रभावित हुआ है।
 
== सर्पगंधा का संरक्षण ==
चूंकि सर्पगंधा एक महत्वपूर्ण औषधीय वनस्पति है अतः इसका संरक्षण आज समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यथास्थल संरक्षण (In situ conservation) तथा बहिः स्थल संरक्षण (Ex situ conservation) विधियों को अपनाकर देश में संकटग्रस्त सर्पगंधा को संरक्षण प्रदान किया जा सकता हैं। यथास्थल संरक्षण में सर्पगंधा के प्राकृतिक आवास का संरक्षण अति आवश्यक है जिससे इसके प्राकृतिक आवास को सिकुड़ने से रोका जा सके।
 
सर्पगंधा के प्राकृतिक आवासों को जीन अभ्यारण्य (Gene Sanctuary) में परिवर्तित करने की आवश्यकता है। प्राकृतिक आवास का संरक्षण तथा उद्धार सर्पगंधा को स्वतः ही संरक्षण प्रदान करेगा। बहिः स्थल संरक्षण के अन्तर्गत सर्पगंधा को उसके प्राकृतिक आवास के बाहर सुरक्षित स्थान पर मानव सुरक्षा में वृहद पैमाने पर उगाने की आवश्यकता है जिससे पौधे को विस्तार तथा संरक्षण मिल सके। बहिःस्थल संरक्षण के तहत सर्पगंधा का संरक्षण जीन बैंक (gene bank) में जननद्रव्य (germplasm) के रुप में भी आवश्यक है।
 
इस बहुमूल्य वनस्पति को विस्तारित करने के लिए जैव-प्रौद्योगिकी के अन्तर्गत ऊतक संवर्द्धन (tissue culture) जैसी आधुनिक तकनीक का उपयोग सर्पगंधा के संरक्षण हेतु समय की आवश्यकता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सर्पगंधा की खेती हेतु किसानों को प्रेरित तथा प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है। सर्पगंधा की खेती से न सिर्फ इसके संरक्षण में सहायता मिलेगी अपितु किसान इससे आर्थिक लाभ भी कमा सकेंगे।
 
== संदर्भ ==