"उणादि सूत्र": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
"''''कृवापाजिमिस्वससादिभ्य उण''" यह उणादि का प्रारंभिक सूत्र है। [[निरुक्त]] में [[यास्क]] ने "नाम" को [[धातु]]ज कहा है और [[शाकटायन]] का उल्लेख किया है। [[शाकटायन]] का इस बात पर विशेष आग्रह था कि नाम धातुज होते हैं। उनके अनुसार व्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न सभी शब्द धातुज हैं और प्रकृति प्रत्ययों के आधार पर उनकी सिद्धि व्युत्पन्न है। अपने इस आग्रह और दृष्टिकोण को सुव्यक्त करने की दृष्टि से उन्होंने "उणादि सूत्रों" का निर्माण किया और सभी शब्दों को धातुज सिद्ध किया। [[महाभाष्य]] और [[काशिका]] द्वारा इसका निर्देश प्राप्त होता है "बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टे" आदि के द्वारा; और इन उणादिकों की प्रकृति, उनकी स्थिति का संक्षेपत: पूर्ण विवेचन भी हो जाता है।
 
ऐसे शब्दों को भी धातु प्रत्यय द्वारा सिद्ध करने की प्रक्रिया, जो व्युत्पन्न न हों, [[पाणिनि]] के समक्ष भी थी। तभी उन्होंने इस प्रकार के शब्दों के वर्ग किए हैं और उनको मान्यता दी है, जैसे संज्ञाप्रमाण अर्थात् लोकव्यवहार में प्रचलन, यथोपदिष्ट और उणादि आदि। "उणादयो बहुलम्" सूत्रनिर्देश से यह स्पष्ट है कि इनकी स्थिति ठीक नहीं है- कहीं इनकी प्रवृत्ति है अर्थात् धात्वर्थ के साथ सुयोज्यता है, कहीं अप्रवृत्ति अर्थात् अयोग्यता, कहीं किसी प्रकार युक्त होना और कहीं नहीं, कभी कुछ और कभी कुछ। इस "बहुलम्" शब्द की विशेषता आचार्यों के शब्दों में इस प्रकार है
: '''क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचित्भाषा क्वचिदन्यमेव। विधेर्विविधानम् बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधम् बाहुलकं वदन्ति।'''
 
तथा उणादि का कार्यनिर्देश इस प्रकार किया है-