"गुलाब": अवतरणों में अंतर
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गुलाब प्रायः सर्वत्र १९ से लेकर ७० अक्षांश तक भूगोल के उत्तरार्ध में होता है। भारतवर्ष में यह पौधा बहुत दिनों से लगाया जाता है और कई स्थानों में जंगली भी पाया जाता है। [[कश्मीर]] और [[भूटान]] में पीले फूल के जंगली गुलाब बहुत मिलते हैं। वन्य अवस्था में गुलाब में चार-पाँच छितराई हुई पंखड़ियों की एक हरी पंक्ति होती है पर बगीचों में सेवा और यत्नपूर्वक लगाए जाने से पंखड़ियों की संख्या में बृद्धि होती है पर केसरों की संख्या घट जाती हैं। कलम पैबंद आदि के द्बारा सैकड़ों प्रकार के फूलवाले गुलाब भिन्न-भिन्न जातियों के मेल से उत्पन्न किए जाते हैं। गुलाब की कलम ही लगाई जाती है। इसके फूल कई रंगों के होते हैं, लाल (कई मेल के हलके गहरे) पीले, सफेद इत्यादि। सफेद फूल के गुलाब को सेवती कहते हैं। कहीं कहीं हरे और काले रंग के भी फूल होते हैं। लता की तरह चढ़नेवाले गुलाब के झड़ भी होते हैं जो बगीचों में टट्टियों पर चढ़ाए जाते हैं। ऋतु के अनुसार गुलाब के दो भेद भारतबर्ष में माने जाने हैं सदागुलाब और चैती। सदागुलाब प्रत्येक ऋतु में फूलता और चैती गुलाब केवल बसंत ऋतु में। चैती गुलाब में विशेष सुगंध होती है और वही इत्र और दवा के काम का समझ जाता है।
भारतवर्ष में जो चैती गुलाब होते है वे प्रायः बसरा या दमिश्क जाति के हैं। ऐसे गुलाब की खेती [[गाजीपुर]] में [[इत्र]] और गुलाबजल के लिये बहुत होती है। एक बीघे में प्रायः हजार पौधे आते हैं जो चैत में फूलते है। बड़े तड़के उनके फूल तोड़ लिए जाते हैं और अत्तारों के पास भेज दिए जाते हैं। वे देग और भभके से उनका जल खींचते हैं। देग से एक पतली बाँस की नली एक दूसरे बर्तन में गई होती है जिसे भभका कहते हैं और जो पानी से भरी नाँद में रक्खा रहता है। अत्तार पानी के साथ फूलों को देग में रख देते है जिसमें में सुगंधित भाप उठकर भभके के
गुलाब का इत्र बनाने की सीधी युक्ति यह है कि गुलाबजल को एक छिछले बरतन में रखकर बरतन को गोली जमीन में कुछ गाड़कर रात भर खुले मैदान में पडा़ रहने दे। सबेरे सरदी से गुलाबजल के ऊपर इत्र की बहुत पतली मलाई सी पड़ी मिलेगी जिसे हाथ से काँछ ले। ऐसा कहा जाता है कि गुलाब का इत्र नूरजहाँ ने १६१२ ईसवी में अपने विवाह के अवसर पर निकाला था।
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