"चंपू": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
गद्य-पद्य का संमिश्रण संस्कृत साहित्य में प्राचीन है, परंतु काव्यशैली में निबद्ध, "चंपू" की संज्ञा का अधिकारी गद्य -पद्य का समंजस मिश्रण उतना प्राचीन नहीं माना जा सकता। गद्य-पद्य की मिश्रित रचना [[कृष्ण यजुर्वेद|कृष्ण यजुर्वेदीय]] संहिताओं में उपलब्ध होती है। [[पालि]] [[जातक|जातकों]] में भी गद्य में कथानक तथा पद्य (गाथा) में मूल सूत्रात्मक संकेतों की उपलब्धि अवश्य होती है। परंतु काव्यतत्व से विरहित होने के कारण इन्हें हम "चंपू" का दृष्टांत किसी प्रकार नहीं मान सकते। [[हरिषेण]] रचित [[समुद्रगुप्त]] की [[प्रयागप्रशस्ति]] (समय 350 ई.) तथा बौद्ध कवि [[आयंशूर]] (चतुर्थ शती) प्रणीत [[जातकमाला]] चंपू के आदिम रूप माने जा सकते हैं, क्योंकि पहले में [[समुद्रगुप्त]] की दिग्विजय तथा दूसरे में 34 जातक विशुद्ध काव्यशैली का आश्रय लेकर अलंकृत गद्य पद्य में वर्णित हैं। प्रतीत होता है कि चंपू गद्यकाव्य का ही एक परिबृहित रूप है और इसीलिये गद्यकाव्य के सुवर्णयुग (सप्तम अष्टम शती) के अनंतर नवम शती के आसपास इस काव्यरूप का उदय हुआ।
 
चंपू काव्य का प्रथम निदर्शन [[त्रिविक्रम भट्ट]] का [[नलचंपू]] है जिसमें चंपू का वैशिष्ट्य स्फुटतया उद्भासित होता है। दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्ण (द्वितीय) के पौत्र, राजा जगतुग और लक्ष्मी के पुत्र, इंद्रराज (तृतीय) के आश्रय में रहकर त्रिविक्रम ने इस रुचिर चंपू की रचना की थी। इंद्रराज का राज्याभिषेक वि.सं. 972 (915 ई.) में हुआ था और उनके आश्रित होने से कवि का भी वही समय है दशम शती का पूर्वार्ध। इस चंपू के सात उच्छ्वासों में नल तथा दमयंती की विख्यात प्रणयकथा का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन किया गया है। काव्य में सर्वत्र शुभग संभग श्लेष का प्रसाद लक्षित होता है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/चंपू" से प्राप्त