"पुस्तकालय का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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सम्राट् आगस्टस ने भी पोलियो की परंपरा का निर्वाह किया और उसने अनेक पुस्तकालयों की स्थापना की। रोम की राजधानी में चौथी शताब्दी में लगभग 28 महान्‌ ग्रंथागार थे। इनके सिवा लिवर, कोमन, मिलान, अथेंस, स्मिर्ण, पाट्री और हाकूलेनियम आदि प्राचीन नगरों में भी पुस्तकालयों के होने का उल्लेख मिलता है।
 
अन्य देशों की भाँति '''भारत में भी पुस्तकालयों की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है।''' आज के लगभग छह हजार वर्ष पूर्व [[सिंधु घाटी सभ्यता]] अपनी चरम सीमा पर थी। इस प्रकार के अनेक प्रमाण [[मोहनजोदड़ो]] और [[हड़प्पा]] की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। सिंधु सभ्यता का सुसंस्कृत समाज पंजाब से लेकर सिंधु और बिलोचिस्तान तक फैला हुआ था। संभवत: उस काल में [[चित्रलिपि]] का विकास भारत में हो चुका था। इतिहासकार यह बात स्वीकार करते हैं कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में अनेक पुस्तकालय थे। सिंधु सभ्यता के पतन के पश्चात्‌ लगभग 3000 ई. पूर्व भारत में आर्यों का आगमन हुआ। इन्होंने [[ब्राह्मी लिपि]] का आविष्कार किया। [[भोजपत्र|भोजपत्रों]] एवं ताड़पत्रों पर ग्रंथ लिखे जाते थे, परंतु शिष्यों के लिए उनका उपयोग सीमित ही था। गुरुओं के पास इस प्रकार की हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह रहता था जिसे हम निजी पुस्तकालय कह सकते हैं। वैदिक काल में वेदों, इतिहासों और पुराणों, व्याकरण और ज्ञान की अनेकानेक शाखाओं से संबंधित ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया। इस काल में अनेक विषय [[गुरुकुल|गुरुकुलों]] में छात्रों को पढ़ाए जाते थे और उनसे संबंधित अनेक ग्रंथ पुस्तकालयों पर भी पड़ा। अहमदाबाद, पटना, पूना, नासिक और सूरत आदि नगरों में आज भी प्राचीन जैन ग्रंथों के संग्रह हैं। [[भारतीय ज्ञानपीठ]] के प्रयत्न से दक्षिण में पाँच ग्रंथालयों की खोज की गई तो उनमें अनेक ताड़पत्र हस्तलिखित ग्रंथ और अप्रकाशित ग्रंथ प्राप्त हुए।
 
बौद्धकाल में [[तक्षशिला]] और [[नालंदा]] जैसे शिक्षा केंद्रों का विकास हुआ जिनके साथ बहुत अच्छे पुस्तकालय थे। तक्षशिला के पुस्तकालय में [[वेद]], [[आयुर्वेद]], [[धनुर्वेद]], [[ज्योतिष]], [[चित्रकला]], [[कृषिविज्ञान]], [[पशुपालन]] आदि अनेक विषयों के ग्रंथ संगृहीत थे। ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व नालंदा के विशाल पुस्तकालय का वर्णन मिलता है। इस पुस्तकालय का नाम '''धर्मजंग''' था जिसकी स्थापना सभादित्य ने की थी। इस पुस्तकालय को अनेक बड़े-बड़े राजाओं और धनी साहूकारों से आर्थिक सहायता मिलती थी। पुस्तकालय में तीन भाग थे- रत्नोधि, रत्नसागर और रत्नरंजम। पुस्तकें इन विभागों के विषयानुसार व्यवस्थित की जाती थीं और उनकी पूर्ण सुरक्षा की जाती थी। अनेक विदेशी विद्वानों ने, जैसे चीनी यात्री [[फाहीयान]], [[ह्वेनसांग]] और [[इत्सिंह]] ने अपने यात्रावृत्तांतों में नालंदा पुस्तकालय का वर्णन किया है। ये अपने साथ अनेक हस्तलिखित ग्रंथ भी ले गए थे। इनके अतिरिक्त अनेक विदेशी विद्वान नालंदा के पुस्तकालय में अध्ययन करने के लिए आए। वैसे तो बौद्ध राजाओं के निर्बल होने पर अनेक शासकों ने इस पुस्तकालय पर कुदृष्टि डाली परंतु बख्त्यार खिलजी ने सन्‌ 1205 ई. में इसका पूर्ण विध्वंस कर दिया। कुछ ग्रंथों को लेकर छात्र और भिक्षु भाग गए। इस प्रकार शताब्दियों से संरक्षित और पोषित ज्ञान के इस अनन्य केंद्र का लगभग अंत ही हो गया। इन्हीं पुस्तकालयों की श्रेणियों में विक्रमशिला एवं वल्लभी के पुस्तकालय थे जो पूर्ण रूप से विकसित थे। राजा धर्मपाल ने [[विक्रमशिला]] के पुस्तकालय की स्थापना की थी और यहाँ पर अनेक हस्तलिखित ग्रंथ सुसज्जित थे। इस पुस्तकालय का भी दु:खद विध्वंस बख्त्यार खिजली की कुदृष्टि के द्वारा ही हुआ।
 
[[गुजरात]] राज्य में [[वल्लभी]] नगर में एक विशाल पुस्तकालय था जिसकी स्थापना राजा धारसेन की बहन दक्षा ने की थी। इस पुस्तकालय में पाठ्‌य ग्रंथों के अतिरिक्त अनेकानेक विषयों की पुस्तकें संगृहीत थीं। पुस्तकालय का संपूर्ण व्यय राजकोष से ही वहन किया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत में पुस्तकालयों का समुचित विकास अपनी चरम सीमा पर था।
 
मुस्लिम काल में भी हमारे देशादेश में अनेक पुस्तकालयों का उल्लेख मिलता है जिनमें [[नगरकोट]] का पुस्तकालय एवं महमूद गवाँ द्वारा स्थापित पुस्तकालय था। अकबर के पुस्तकालय में लगभग 25 हजार ग्रंथ संगृहीत थे। तंजीर में राजा शरभोजी का पुस्तकालय आज भी जीवित है। इसमें 18 हजार से अधिक ग्रंथ तो केवल [[संस्कृत]] भाषा में ही लिपिबद्ध हैं। विभिन्न विषयों से संबंधित भारतीय भाषाओं के अति प्राचीन दुर्लभ ग्रंथ भी यहाँ सुरक्षित हैं।
 
== आधुनिक पुस्तकालय एवं पुस्तकालय आंदोलन ==