"संगीत": अवतरणों में अंतर

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== व्युत्पत्ति ==
संगीत का आदिम स्त्रोत प्राकृतिक ध्वनियाँ ही है। प्राक् संगीत-युग में मनुष्य के प्रकृति की ध्वनियों और उनकी विशिष्ट लय को समझने की कोशिश की। हर तरह की प्राकृतिक ध्वनियाँ संगीत का आधार नहीं हो सकतीं, अत: भाव पैदा करने वाली ध्वनियों को परखकर संगीत का आधार बनाने के साथ-साथ उन्हें लय में बाँधने का प्रयास किया गया होगा। प्रकृति की वे ध्वनियाँ जिन्होंने मनुष्य के मन-मस्तिष्क को स्पर्श कर उल्लसित किया, वही सभ्यता के विकास के साथ संगीत का साधन बनीं। हालांकि विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। दार्शनिकों ने नाद के चार भागों परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी में से मध्यमा को संगीतोपयोगी स्वर का आधार माना। डार्विन ने कहा कि ‘‘पशु[[पशु-रति|पशु रति]] के समय मधुर ध्वनि करते हैं। मनुष्य ने जब इस प्रकार की ध्वनि का अनुकरण आरम्भ किया तो संगीत का उद्भव हुआ।’’ [[कार्ल स्टम्फ]] ने भाषा उत्पत्ति के बाद मनुष्य द्वारा ध्वनि की एकतारता को स्वर की उत्पत्ति माना। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] ने कहा कि ‘‘संगीत की उत्पत्ति मानवीय संवेदना के साथ हुई।’’ उन्होंने संगीत को गाने, बजाने, बताने (केवल नृत्य मुद्राओं द्वारा) और नाचने का समुच्चय बताया।
 
प्राच्य शास्त्रों में संगीत की उत्पत्ति को लेकर अनेक रोचक कथाएँ हैं। देवराज [[इन्द्र]] की सभा में गायक, वादक व नर्तक हुआ करते थे। [[गन्धर्व]] गाते थे, [[अप्सरा|अप्सराएँ]] नृत्य करती थीं और [[किन्नर]] वाद्य बजाते थे। गान्धर्व-कला में गीत सबसे प्रधान रहा है। आदि में गान था, वाद्य का निर्माण पीछे हुआ। गीत की प्रधानता रही। यही कारण है कि चाहे गीत हो, चाहे वाद्य सबका नाम संगीत पड़ गया। पीछे से नृत्य का भी इसमें अन्तर्भाव हो गया। संसार की जितनी आर्य भाषाएँ हैं उनमें संगीत शब्द अच्छे प्रकार से गाने के अर्थ में मिलता है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/संगीत" से प्राप्त