"संरचनावाद": अवतरणों में अंतर

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'''संरचनावाद''' (स्ट्रक्चरलिज्म) मानव विज्ञान की एक ऐसी पद्धति है जो संकेत विज्ञान (यानी संकेतों की एक प्रणाली) और सहजता से परस्पर संबद्ध भागों की एक पद्धति के अनुसार तथ्यों का विश्लेषण करने का प्रयास करती है। [[स्वीडन]] के प्रसिद्ध भाषाविद फर्डिनेंड[[फर्दिनान्द डी सौसरसस्यूर]] (1857-1913) [[Ferdinand de Saussure]]) इसके प्रवर्तक माने जाते हैं, जिन्हें हिन्दी में '''सस्यूर ''' नाम से जाना जाता है। तर्क के संरचनावादी तरीके को विभिन्न क्षेत्रों जैसे, नृविज्ञान, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, साहित्यिक आलोचना और यहां तक कि वास्तुकला में भी लागू किया गया है। इसने एक विधि के रूप में नहीं बल्कि एक बौद्धिक आंदोलन के रूप में संरचनावाद की भोर में प्रवेश किया, जो 1960 के दशक में फ्रांस में अस्तित्ववाद की जगह लेने आया था।<ref name="Sturrock" />
 
1970 के दशक में, यह आलोचकों के आन्तरिक गुस्से का शिकार हुआ, जिन्होंने इस पर बहुत ही अनमनीय तथा अनैतिहासिक होने का आरोप लगाया. हालांकि, संरचनावाद के कई समर्थकों, जैसे कि जैक्स लेकन ने महाद्वीपीय मान्यताओं और इसके आलोचकों की मूल धारणाओं पर ज़ोर देकर प्रभाव डालना शुरू किया कि उत्तर-संरचनावाद संरचनावाद की निरंतरता है।<ref name="Sturrock">जॉन स्टुरॉक, ''स्ट्रक्चरालिज़म एण्ड सिंस'', परिचय.</ref>
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== भाषा विज्ञान में संरचनावाद ==
 
{{see_also|Structural linguistics}}
संरचनावाद बताता है कि मानव संस्कृति को संकेतों की एक प्रणाली समझा जाना चाहिए. रॉबर्ट स्कोल्स ने संरचनावाद को आधुनिकतावादी अलगाव और निराशा की प्रतिक्रिया के रूप में परिभाषित किया है। संरचनावादियों ने एक सांकेतिक विज्ञान (संकेतों की प्रणाली) विकसित करने का प्रयास किया। फर्डिनेंड डी सौसर 20 वीं सदी के संरचनावाद के प्रवर्तक माने जाते हैं और इसके सबूत हमें उनकी मृत्यु के बाद उनके छात्रों के नोटों पर आधारित उनके सहयोगियों द्वारा लिखे गये ''कोर्स इन जनरल लिंग्विस्टिक'' में मिल सकते हैं, जिसमें उन्होंने भाषा (शब्द या ''भाषण'') के इस्तेमाल पर नहीं बल्कि भाषा (लैंगुए) की अंतर्निहित प्रणाली पर ध्यान केंद्रित किया है और अपने सिद्धान्त को ''संकेत विज्ञान'' कहा है। हालांकि, ''भाषण'' (पेरोल) की जांच करने के माध्यम से ही अंतर्निहित प्रणाली की खोज की जा सकती है। जैसे कि संरचनात्मक भाषाविज्ञान असल में ''कोष भाषा विज्ञान '' (कारपस लिंग्विस्टिक्स) (प्रमात्रीकरण) का पूर्व स्वरूप है। इस दृष्टिकोण ने यह परीक्षण करने पर ध्यान केंद्रित किया कि वर्तमान में भाषा संबंधित तत्व आपस में किस तरह से जुडे़ हुए हैं, वह ये कि, कालक्रमिक तौर पर न कि 'समकालीन' तरीके से. अंत में, उन्होंने तर्क दिया कि भाषाई संकेत दो भागों में बने हैं, '''शब्द रूप''' (सिग्निफायर) (शब्द की ''ध्वनि के लक्षण'', या तो मानसिक प्रक्षेपण में, जैसा कि हम कविता की पंक्तियां चुपचाप अपने लिए पढ़ते हैं- या फिर वास्तविक रूप में, वाचक के रूप में भौतिक तौर पर बोलते हुए) और एक '''अवधारणा''' (शब्द की अवधारणा या ''अर्थ'' का प्रारूप) के रूप में. यह पिछले दृष्टिकोणों से काफी अलग था जिसने दुनिया में शब्दों और उनसे सम्बंधित वस्तुओं के बीच के रिश्ते पर ध्यान केंद्रित किया (रॉय हैरिस और टैलबोट टेलर, लैंडमार्क्स इन लिंग्विस्टिक थॉट, प्रथम अंक [1989], पृ.)&nbsp;178-179).