"वास्तुक": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: अनावश्यक अल्पविराम (,) हटाया।
पंक्ति 7:
प्राचीन तथा अर्वाचीन लेखों में तथा वास्तुकलाविदों ने किसी कुशल वास्तुक के लिए जो विविध अनिवार्य गुण और विशेषताएँ निर्धारित की हैं वे कठिनाई से प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार वास्तुक अत्यधिक सामान्य ज्ञान वाला विस्तृताधार संस्कृति वाला व्यक्ति होना चाहिए, जो सांसारिक बातों में और संसार के विकास में रुचि रखे तथा वैज्ञानिक, तकनीकी और राजनीतिक गतिविधियों के प्रति तथा अपने चुने हुए व्यवसाय एवं संबंधि कलाओं के क्षेत्रों में समय के साथ रहे।
 
इस प्रकार उसे [[गणित]], [[ज्यामिति]], [[यांत्रिकी]], [[प्रकाशिकी]], [[ध्वानिकीध्वनिकी]], प्रधार खनन, तापन, संवातन और विद्युत के नियमों, जनस्वास्थ्य, रसायन विज्ञान, पदार्थों की प्रकृति, संरचना इंजीनियरी, निर्माता के काम में आनेवाले सभी व्यवसायों की पद्धतियों, संपत्ति के अधिकार और विभाजन तथा निर्माण संबंधी प्रतिबंधों और अन्य बातों से संबंधित कानूनों की स्थिति, संपत्ति, श्रम तथा सामग्री के वर्तमान मूल्यों, संविदा प्रलेख तैयार करने और निर्माण के सामान्य निर्देशन एवं पर्यवेक्षण में, प्रवीण होना चाहिए।
 
सामग्री के ललित-कला-संस्कार के लिए आकृति, स्थल-दृश्यनिर्माण आदि के बारे में उर्वर, किन्तु प्रतिभा के निर्देशन के लिए पर्याप्त उदार विवेक द्वारा नियंत्रित, कल्पनाशक्ति का प्रयोग अपेक्षित है। वास्तुक का यह विवेवक सामान्य ललितकला (सौंदर्य शास्त्र) और दार्शनिक पक्ष के ज्ञान पर आधृत होता है। इसके लिए उसे भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक है।
पंक्ति 15:
ये लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वास्तु संबंधी कला, विज्ञान और औद्योगिकी की प्रभावी तथा मूल्यवान शिक्षा देना वास्तुक के वर्तमान प्रशिक्षण का उद्देश्य होता है, जिससे स्नातक विभिन्न वर्गों की विविध इमारतों की उपयोगिता, सौंदर्य और स्थायित्व का ध्यान रखते हुए उनके अभिकल्पन और निर्माण के निर्देशन का पर्याप्त व्यापक ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
 
*१. यद्यपि वास्तुकला का, उसके सरलतम रूपों सहित, मूलाधार पूर्णतया उपयोगिता है, किंतु विशुद्ध कला के क्षेत्र में जो कुछ भी महत्वपूर्ण है, वह अशेषतया इसके वितान के अंतर्गत है। सर्वप्रथम, वास्तुकला के अध्ययन का संबंध उन सामग्री, रचनाओं और उद्देश्यों से है, जिनमें कला के रूप में इसका आधार, संरचना के वैज्ञानिक निर्माण के साथ इसका निर्वाह और सांस्कृतिक घटक के रूप में इसका स्पष्टीकरण प्रत्यक्ष हो सके।
 
*२. वास्तुस्नातक से यह अपेक्षा की जाती है कि उसे वास्तुकला के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का भी ज्ञान हो। प्राचीन महान रचनाओं का महत्व और उनका सच्चा वास्तुकीय मूल्य समझने के लिए उनका अध्ययन किया जाता है। उनका निर्माण किस ऐतिहासिक परिस्थिति विशेष पर निर्भर था, इससे मूल वास्तुकीय रचना की आवश्यकता प्रकाश में आ जाती है। प्राचीन वास्तुकला की शिक्षा सामाजिक इतिहास के संदर्भ में भी दी जाती है और उसका विकास भली भाँति समझ लिया जाता है। इससे यथासमय आवश्यकतानुसार वर्तमान कालीन निर्माण में उपयोग करने की दृष्टि से भूत का मूल्यांकन करने में सहायता मिलती है।
 
*३. वास्तुक के लिए निर्माण की व्यावहारिक विधियों का, सामग्री के उपयुक्त उपयोग का, उसके गुणधर्म का और निर्माण संबंधी विशेषज्ञता तथा आपेक्षिक मितव्ययिता का भली भाँति ज्ञान होना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त भवनों के स्थायित्व संबंधी आवश्यक ज्ञान देने के लिए उसे संरचना इंजीनियरी सिखाई जाती है।
 
*४. निर्माण में होनेवाले व्यय का और प्रयुक्त होनेवाली सामग्र के परिमाण का सही सही अनुमान लगाने के लिए उसे प्राक्कलन और विशिष्टियाँ सिखाई जाती हैं। उचित और स्वस्थ जीवननिर्वाह की सृष्टि में वह और भी दक्ष हो सके, इसलिए स्वच्छता, स्वास्थ्य विज्ञान, संवातन और जलवायु का अध्ययन उसे कराया जाता है। भवनों में विद्युत्‌, यांत्रिकीय उपकरणों और ध्वानिकी के प्रयोग के संबंध में सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह इनका अध्ययन करता है। जीवन का पर्यावरण सुधारने के लिए वह स्थल-दृश्य-वास्तु सीखता है। गृह निर्मांण तथा पुरनिवेश की व्यापकता तथा उपयोग समझने के लिए वास्तुक उनका अध्ययन करता है। संतोषजनक आजीविका की पृष्ठभमि तैयार करने के लिए वह अधीक्षण, ठेके की शर्तों और व्यावसायिक व्यवहारसंहिता का अध्ययन करता है।
 
*५. केवल वैज्ञानिक ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, अपितु सार्वभौम भाषा आलेखन के माध्यम से विचार व्यक्त करने में वास्तविक प्रवीणता अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह जन्मजात हो सकती है, अथवा मुक्तहस्त या अन्य वास्तुआलेखों का अध्ययन करके विकसित की जा सकती है। वास्तुक को, सफल होने के लिए, अपनी कलात्मक योग्यता का विकास करना आवश्यक है, ताकि वह उपयुक्त माध्यम द्वारा विचार व्यक्त करके अपने ग्राहकों का विश्वास प्राप्त कर सके।
 
*६. स्थानीय निकायों और प्रधिकरणों के नियमों एवं विनियमों को जानना और उनका अर्थ निकाल सकना वास्तुक के लिए आवश्यक है। उसमें ठेका, करार, मूल्यन और इसी प्रकार के कानूनी दस्तावेज तैयार करने की योग्यता होनी चाहिए। व्यवहार में वास्तुक के लिए यह भी आवश्यक हो जाता है कि वह अपने ग्राहक के धन की बड़ी बड़ी राशियों का लेनदेन करे और सदा सतर्क रहे कि आर्थिक, या कानूनी मामलों में ग्राहक किसी कठिनाई में न आने पाए।
 
*७. आजकल इमारतों के विविध प्रकार और उनके निर्माण की विधियाँ इतनी अधिक है कि किसी वास्तुक का अपने काम की प्रत्येक शाखा में प्रवीण होना असंभव है। इसलिए वह प्राय: निवास भवन, विद्यालय, चिकित्सालय, प्रेक्षागृह, फ्लैट, या अन्य किसी एक प्रकार की इमारत की वास्तुकला में विशेषज्ञता प्राप्त करना पसंद करता है। इसके लिए स्नातकोत्तर अध्ययन की आवश्यकता होती है। भारत में अभी ऐसी कोई संस्था स्थापित नहीं हुई, जहाँ वास्तुकला में स्नातकोत्तर अध्ययन करके कोई मास्टर की उपाधि प्राप्त कर सके। इसलिए उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लोगों को विदेश जाना पड़ता है।
 
किंतु बिना विशेषज्ञता प्राप्त किए भी अधिकांश दशाओं में भाँति भाँति की इमारतों का संतोषजनक काम चलाने के लिए वास्तुक सक्षम होता है, पर एक या अधिक सलाहकार की आवश्यकता हो सकती है। वास्तुक बहुधा विशेषज्ञों के एक दल का, जिसमें संरचना इंजीनियर, तापन और संवातन इंजीनियर, ध्वानिकी विशेषज्ञ, प्रकाश इंजीनियर, भू-सर्वेक्षक, मात्रा आगणक, स्वास्थ्य इंजीनियर और भू-दृश्य सलाहकार होते हैं, संयोजक बन जाता है। विशाल और जटिल प्रकार की इमारत ग्राहक के इच्छानुसार अत्यंत संतोषजनक ढंग से तैयार कराने में विशेषज्ञों के दल का संयोजक होने के नाते, वास्तुक उनके काम में समन्वय स्थापित करता है।
 
*८. वास्तुकला का व्यवसाय सच्चा और संमाननीय है। वास्तुक अपने काम में उतना ही उसाही और निष्ठावान्‌ होता है जितना एक कुशल वकील या सहानुभूतिपूर्ण चिकित्सक। केवल धन कमाने के लिए वास्तुशास्त्र की शिक्षा लेनेवाला युवक कभी सच्चा वास्तुक नहीं बन सकता। वास्तुक को अपने व्यवसाय को सर्वाधिक महत्व देना चाहिए और उसका मान बढ़ाना चाहिए।
 
*९. वास्तुक के योगदान के लिए पहली शर्त यह है कि वह व्यक्तियों और समाजों की आवश्यकता को समझे। फिर द्वितीय शर्त यह है कि वह परिस्थितिविशेष में उन आवश्यकताओं का सही सही विश्लेषण करे। तीसरी शर्त है, कि उसमें कमरों के उचित विन्यास और दिक्स्थान के साथ उनका समन्वय करने की योग्यता हो। चौथी शर्त है कि वह स्थल विशेष में सामान्य नकशों की सादी और सस्ती रचनापद्धति और सुधरी तथा मितव्ययी सामग्री एवं निर्माण विधियों में हुई गवेषण के साथ समन्वय करे। पाँचवीं शर्त है कि चूँकि वास्तुसंबंधी आकल्पों और अभिव्यक्तियों में दार्शनिक चेष्टाएँ अनुपात और मौलिकता रो नियंत्रित रहती हैं, ताकि वे मुखर हो सकें। इसलिए नियमों से नहीं बल्कि सिद्धांतों से स्पष्टीकरण करते हुए उसे कार्य का उद्देश्य और लक्ष्य सिद्ध करना चाहिए। छठी बात जो वास्तुक में अपेक्षित है, वह यह कि उपकरणों से, सामग्री के उपयोग और अनुप्रयोग से उसकी आयोजना इस प्रकार घुल मिल जाए कि उसके साथी प्रयोक्ता के लिए सुविधा, स्वास्थ्य और आनंदप्रद अवस्था सदा बनी रहे।
 
*१०. कठोर प्रशिक्षणयुक्त शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध होने से वास्तु व्यवसाय को अब पर्याप्त मान्यता मिली है। अत: इसके लिए इसे राज्य का प्रोत्साहन, संबद्ध व्यवसायों का सहयोग और हर तरह के भवन निर्माण करने की इच्छा रखने वाले का आश्रय मिलना चाहिए। इमारतों के आकल्पन और निर्माण के लिए, अनुग्राही स्वभाव वाला, तकनीक योग्यतावाला और सुविधा, स्वास्थ्य एवं आनंदप्रद परिस्थितियाँ उत्पन्न करनेवाली गंभीर मौलिकता वाला वास्तुक ही उपयुक्त व्यक्ति है जिससे संपर्क स्थापित करना चाहिए।
 
*११. इस समय भारत में चूँकि सरकार और जनता सार्वजनिक और निजी भवनों में गहरी रुचि लेने लगी है, इसलिए वास्तुक के लिए रोजगार के अवसर बड़े अच्छे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आवास समस्या सर्वोपरि हो गई है। इसके अतिरिक्त भारतीय गणतंत्र योजनाकालीन विकास कार्यों द्वारा तेजी से सुदृढ़ आधार वाला एक नया सामाजिक ढाँचा खड़ा करने में लगा हुआ है, जिसमें मानव के दैनिक जीवन के पर्यावरण का आकल्पी वास्तुक अत्यंत महत्वपूर्ण योग देगा। उन्हें लोक निर्माण विभाग जैसी सरकारी संस्थाओं, शिक्षा संस्थाओं, नगर नियोजन विभागों, स्थानीय निकायों, ग्रामोत्थान कार्यों, निजी फर्मों और आजीविका के निमित्त खोले हुए अपने ही कार्यालयों में काम मिलेगा। इस प्रकार व्यवसाय करनेवाले सभी व्यक्तियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण हैं : व्यवसाय कुशलता, व्यवहार चातुर्य और पेशे के लिए आवश्यक क्षमता।
 
*१२. वास्तुक अपना परामर्शशुल्क प्रतिशत आधार पर लेते हैं। किंतु निजी व्यवसाय करते हुए प्रत्येक वास्तुक भारतीय वास्तुक संस्था द्वारा निर्धारित नियम पालन करने के लिए बाध्य है। यदि सरकारी नौकरी में आता है, तो उसका वेतनमान अन्य इंजीनियरी कर्मचाररियों के समकक्ष होता है। प्रतिशत आधार पर संस्थापन व्यय का विभाजन वित्तीय पुस्तिका के प्रथम खंड के प्रथम भाग में दिया हुआ है, जो इस प्रकार है : ३ प्रतिशत वास्तुकीय कर्मचारियों के लिए, ८ प्रतिशत इंजीनियरी कर्मचारियों के लिए और १ प्रतिशत लेखा परीक्षा विभाग के लिए। इस विभाजन से आर्थिक सीमाओं के भीतर संस्थापन का ढाँचा बनाने में सहायता मिलती है।
 
*१३. वास्तुक यदि निजी व्यवसाय करता है, तो अपने ग्राहक की आवश्यकताएँ मालूम करना और उपलब्ध वित्तीय साधनों के अनुसार आकल्प तैयार करना उसका काम होता है। ग्राहक की यथाविधि स्वीकृति के पश्चात्‌ सभी आवश्यक कार्यकारी आलेख तैयार किए जाते हैं और नगर प्राधिकारियों का अनुमोदन प्राप्त किया जाता है। फिर वह ठेका संबंधी कागजात तैयार करता है और इमारत के निर्माण के लिए जिस प्रकार के श्रमिक, सामग्री और सेवाएँ चाहिए, उनके विषय में विस्तृत अनुदेश देता है। वह अपने ग्राहक का अधिकर्ता होने के नाते निर्माता का चुनाव करता है और "ग्राहक और निर्माता के बीच ठेके की शर्तें निश्चित करता है। मौके पर दिन-प्रति-दिन के पर्यवेक्षण के लिए वास्तुक की संमति से एक कर्मलिपिक नियुक्त किया जाता है, जिसका वेतन ग्राहक देता है।
 
उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट है कि आधुनिक वास्तुक संरचना, वास्तुरूप के ज्ञान और पारस्परिक संबंध में पटु होता है, तथा प्रबलित कंक्रीट, इस्पात, काच, पर्ती लकड़ी, एलुमिनियम, एवं प्लास्टिक के प्रयोग से संबंधित अद्यतन जानकारी रखता है और मानव के पर्यावरण का आकल्पी होने के कारण वह ऊष्मारोधन तथा वातानुकूलन के सिद्धांतों का प्रयोग करता है। वर्तमान परिस्थितियों में प्राचीनकाल की, जब उपर्युक्त आधुनिक विशेषताएँ थी ही नहीं, आकृतियों, मूर्तिकला, विशिष्ट ऐतिहासिक ढंग की सजावट और गढ़ाई का प्रयोग करने के लिए यदि किसी वास्तुक को कहा जाए, तो यह अपव्यय ही होगा। नए मानक और नए रूपों (शैलियों) का प्रयोग आधुनिक वास्तुकला की माँग है, जिनका सभी संबंधित व्यक्तियों की कल्पना संतुष्ट करने में अवश्य ही व्यापक और सीधा प्रभाव होगा।