"विज्ञान कथा साहित्य": अवतरणों में अंतर

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== हिन्दी में विज्ञान कथा ==
हिंदी में ऐयारी और तिलस्मी [[उपन्यास|उपन्यासों]] के जनक [[देवकी नंदन खत्री]] जब [[चंद्रकांता]] (1892) के साथ हिंदी में प्रकट हुए तो प्रायः उसी काल में [[अंबिकादत्त व्यास|अंबिका दत्त व्यास]] विरचित आश्चर्य-वृत्तांत ने भी हिंदी में विज्ञान गल्प लेखन की नयी सरणि निर्मित की। ‘पीयूस प्रवाह’ पत्रिका में 1884-88 के मध्य धारावाहिक रूप से इसका प्रकाशन हो चुका था। ‘आश्चर्यवृत्तांत’ विशुद्ध रूप से विज्ञान गल्प था जो तिलस्मी और जासूसी प्रभावों से सर्वथा उन्मुक्त था।
 
उधर [[बांग्ला भाषा]] में "पंच कौड़ी दे" जब जासूसी साहित्य- ‘घटना-घटाटोप’ (1913), ‘जय-पराजय’ (1913), ‘जीवन रहस्य’ (1913), ‘नील वसना सुंदरी’ (1913), ‘मायावी’ (1913), ‘-के निर्माण में प्रवृत्त थे तो उसी काल में विज्ञान कथाएं भी लिखी जा रही थी, बल्कि कहना यह चाहिए कि बंगला में विज्ञान गल्प का उन्मेष इससे पूर्व हो चुका था। पौधों में जीवन के विश्लेषक और बेतार के आविष्कारक आचार्य [[जगदीश चंद्र बसुबोस]] ने ‘तूफान पर विजय’ शीर्षक से प्रथम बांग्ला विज्ञान गल्प 1897 में ही लिखा था। अनादिधन बैनरजी (बंद्योपाध्याय) ने ‘वन कुसुम’ (1914), ‘चंपा फूल’ (1916), ‘चोर’ (1920) जैसे उपन्यासों के साथ साथ ‘मंगल ग्रह’ (1915) जैसा विज्ञान गल्प भी प्रस्तुत किया। [[मराठी]] मे श्रीधर बालकृष्ण रानाडे ने पहली विज्ञान कथा ‘तरेचे हास्य’ (तारे के रहस्य’) शीर्षक से 1915 में लिखी थी। प्रायः इसी समय नाथ माधव ने ‘श्रीनिवास राव’ नामक वैज्ञानिक उपन्यास मराठी में प्रस्तुत किया।
 
[[देवकी नंदन खत्री]] ने [[मिर्जापूरमिर्जापुर]] के [[अरण्य|अरण्यों]] की पृष्ठभूमि में जो ऐंद्रजालिक संसार रचा, उससे हिंदी पाठक विस्मित और विमूढ़ रह गया और उसने खत्री जी को हाथों हाथ लिया। खन्नी प्रणीत ‘नरेन्द्रमोहिनी’ (1993) ‘वीरेन्द्र वीर’ (1895), ‘चंद्रकांता‘[[चंद्रकांता संतति’संतति]]’ (1896), ‘कुसुम कुमारी’ (1899), ‘नौलखा हार’ (1899), ‘गुप्तगोदना’ (1902). ‘कागज की कोठरी’ (1902) ‘अनूठी बेगम’ (1905), ‘भूतनाथ’ (1909) ने लोकप्रियता की सारी हदें पार कर लीं। देवकी नंदन खन्नी खन्नीखत्री के इंद्रजाल का जादू पाठकों के सिर पर चढ़कर बोलने लगा। [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि खत्री के तिलस्मी साहित्य का आनंद लेने के लिए उर्दूभाषियों ने हिंदी सीखी। तो ऐसा था खत्री का ऐंद्रजालिक संसार !
 
पाठक ही क्या, समकालीन लेखक भी इस जादू के मोहपाश में आबद्ध हुए बिना न रह सके। फिर तिलस्मी साहित्य रचने के सार्थक प्रयास आरंभ हुए और प्रभूत मात्रा में ऐसी चीजें सामने आने लगीं और हिंदी पाठक उसमें सराबोर हो गया। इस काल खंड (1892-1915) में ऐसे लेखकों की समृद्ध परंपरा दिखाई पड़ती है। [[देवी प्रसाद उपाध्याय]] कृत ‘माया-विलास’ (1899), जगन्नाथ चतुर्वेदी कृत ‘वसंत-मालती’ (1899), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘कुसुम लता’ (1899), ‘भयानक प्रेम’ (1900), सरस्वती गुप्ता कृत ‘राजकुमार’ (1900), बाल मुकुंद वर्मा कृत ‘कामिनी’ (1900), राजेन्द्र मोहिनी (1901), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘नारी-पिशाच’ (1901), ‘मंयक-मोहिनी’ (1901), ‘जादूगर’ (1901) तथा ‘कमल कुमारी’ (1902), मदन मोहन पाठक कृत ‘आनंद सुंदरी’ (1902), मुन्नी लाल खन्नी कृत ‘सच्चा बहादुर’ (1902), हरे कृष्ण जौहर कृत ‘निराला नकाबपोश’ (1902) तथा ‘भयानक खून’ (1903), किशोरी लाल गोस्वामी कृत ‘कटे मूड़ की दो-दो बातें’ (1905), [[विश्वेश्वर प्रसाद वर्मा]] कृत, ‘वीरेन्द्र कुमार’ (1906), [[किशोरी लाल गोस्वामी]] कृत ‘याकूती तख्ती’ (1906), राम लाल वर्मा कृत ‘पुतलीमहल’ (1908), रूप किशोर जैन कृत ‘सूर्य कुमार संभव’ (1915) आदि इसी साहित्य की प्रतिनिध रचनाएं हैं। आगे भी यह परंपरा चलती रही लेकिन यहीं से तिलस्मी साहित्य का प्रायः अवसान माना जाना चाहिए।
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लेकिन यहीं से यह परंपरा समाप्तप्राय है। कारण यह कि हिंदी में यह परंपरा नवीन थी और आंग्ल साहित्य से पूर्णतः प्रभावित। भारतीय वातावरण के अनुरूप न होने के कारण पाठक जल्दी इससे ऊब गया। पाठकों की अरूचि ने तिलस्मी, ऐयारी और [[जासूसी]] साहित्य का अचिर में ही गर्भलोपन भी कर दिया। [[प्रेमचंद]] के अवतरण के साथ ही चित्रपट पूरी तरह परिवर्तित हो चुका था। 1917-18 के आस-पास तिलस्मी और जासूसी साहित्य नेपथ्य में चले गये।
 
बीसवीं शती के तीसरे दशक में [[मनोवैज्ञानिक]] और घटना प्रधान [[उपन्यास|उपन्यासों]] ने दस्तक दी। पाठकवर्ग नयेपन की तलाश में था। वह फार्मूलाबद्ध साहित्य से निजात पाना चाहता था। ऐसे में किशोरी लाल गोस्वामी के ‘गुप्त गोदना’ (1923) ने [[संजीवनी]] का काम किया। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है। यह [[औरगंजेब]] द्वारा उसके भाइयों के विरूद्ध किए गए षड़यंत्रों की कथा है। [[विश्वंभर नाथ शर्मा]] ने ‘तुर्क तरूणी’ (1925) नामक श्रृंगारिक उपन्यास प्रस्तुत किया तो भगवती चरण वर्मा ने ‘पतन’ (1927) में [[वाजिद अली शाह]] की विलासिता को अपनी कथा का आधार बनाया। ऋषभचरण का ‘गदर’ (1930) हिंदी उपन्यासों में एक नयी करवट का प्रतीक है। इस परंपरा को आगे बढ़ाया [[वृंदा लालवृंदावनलाल वर्मा]] ने। उन्होंने ‘विराटा की पद्यिनी’ (1930) और ‘गढ़ं कुंडार’ (1930) जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों के सृजन के लिए [[बुंदेलखंड]] के भूखंडो, संस्कृति और वहाँ के वीरों के परस्पर वैमनस्य, प्रेम-प्रसंगों को अपना आधार बनाया। कृष्णा नंद गुप्त की ‘केन’ (1930) भी इसी कोटि की रचना है। [[भगवती चरण वर्मा]] ने ‘चित्रलेखा’ (1934) में पाप और पुण्य की विशद व्याख्या की। [[प्रेमचंद]] के ‘दुर्गादास’‘[[दुर्गादास (उपन्यास)|दुर्गादास]]’ (1938) और चतुर सेन शास्त्री के ‘राणा राज सिंह’ (1939) ने तो ऐयारी-तिलस्मी-जासूसी साहित्य का तिरोधान करा दिया और यहीं से यह परंपरा समाप्त हो गयी।
 
==प्रथम हिंदी-विज्ञान गल्प ?==