"सनकादि ऋषि": अवतरणों में अंतर

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भगवान का प्रथम अवतार सनकादि ४ मुनि हैं। वे परमात्मा जो निराकार हैं उन्होंने लीलार्थ २४ तत्वों के अण्ड का निर्माण किया। उस अण्ड से ही वे परमात्मा साकार रूप में बाहर निकले। उन्होंने जल की रचना की तथा हजारों दिव्य वर्षों तक उसी जल में शयन किया अतः उनका नाम नारायण हुआ।
 
 <center><big>{{cquote|'''आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।<br>अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।'''</big></center>|25px|25px|[[भागवत]]}}
 <center><big>'''अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।'''</big></center>
 
उन्हें जब बहु होने की इच्छा हुई तब वे उठे तथा अण्ड के अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव ये तीन खण्ड किये। उन परमात्मा के आंतरिक आकाश से इन्द्रिय, मनः तथा देह शक्ति उत्पन्न हुई। साथ ही सूत्र, महान् तथा असु नामक तीन प्राण भी उत्पन्न हुए। उनके खाने की इच्छा के कारण अण्ड से मुख निकला जिसके अधिदैव वरुण तथा विषय रसास्वादन हुआ। इसी प्रकार बोलने की इच्छा के कारण वाक् इन्द्रिय हुई जिसके देव अग्नि तथा भाषण विषय हुआ। उसी तरह नासिका, नेत्र, कर्ण, चर्म, कर, पाद आदि निकला। यह परमात्मा का साकार स्थूल रूप है जिनका नमन वेद पुरुष सूक्त से किये हैं।
प्रलय काल में भगवान शेष पर शयन कर रहे थे। वे '''आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने''' हैं अतः शेष जो सबके बाद भी रहते हैं वही उनकी शैया हैं। सृष्टि की इच्छा से जब उन्होंने आँखें खोलीं तो देखा कि सम्पूर्ण लोक उनमें लीन है। तभी रजोगुण से प्रेरित परमात्मा की नाभि से कमल अंकुरित हो गया जिससे सम्पूर्ण जल प्रकाशमय हो गया। नाभिपद्म से उत्पन्न ब्रह्मा पंकजकर्णिका पर आसीन थे। ब्रह्मा जी ने सोंचा कि मैं कौन, क्यों हूँ तथा मेरे जनक कौन हैं? वे कमलनाल के सहारे जल में प्रविष्ट हुए तथा सौं वर्ष तक निरंतर खोज करने पर भी कोई प्राप्त नहीं हुआ। अंत में वे पुनः यथा्थान बैठ गए। वहाँ हजारों वर्षों तक समाधिस्थ रहे। तभी उन्हें पुरुषोत्तम परमात्मा के दर्शन हुए। शेषनाग में शयन कर रहे प्रभु का नीलमणि के समान देह अनेक आभूषणों से आच्छादित था तथा वन माला और कौस्तुभ मणि स्वयं को भाग्यवान मान रहे थे। उनके अंदर ब्रह्मा जी ने अथाह सागर तथा कमल पर आसीन स्वयं को भी देखा। ब्रह्मा जी भगवान की स्तुति करते हैं -
 
<center ><big>{{cquote|'''ज्ञातोऽसि मेऽद्य सुचिरान्ननु देहभाजां,'''</bigbr>न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।</centerbr></नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं,<br>मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी।।'''|25px|25px|[[भागवत]]}}
          <center><big>'''न ज्ञायते भगवतो गतिरित्यवद्यम्।'''</big></center></ br>
<center><big>'''नान्यत्वदस्ति भगवन्नपि तन्न शुद्धं,'''</big></center></ br>
          <center><big>'''मायागुणव्यतिकराद्यदुरुर्विभासी।।'''</big></center></ br>
 
"चिरकाल से मैं आपसे अंजान था, आज आपके दर्शन हो गए। मैने आपको जानने का प्रयास नहीं किया, यही हम सब का सबसे बड़ा दोष है क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड में आप ही जानने योग्य हैं। अपने समीपस्थ जीवों के कल्याणार्थ आपने सगुण रूप धारण किया जिससे मेरी उत्पत्ति हुई। निर्गुण भी इससे भिन्न नहीं।"
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ब्रह्मा जी ने सौ वर्षों तक तपस्या की। उस समय प्रलयकालीन वायु के द्वारा जल तथा कमल दोनो आंदोलित हो उठे। ब्रह्मा जी ने तप की शक्ति से उस वायु को जल सहित पी लिया। तब आकाशव्यापी कमल से ही चौदह लोकों की रचना हुई। ईश्वर काल के द्वारा ही सृष्टि किया करते हैं अतः काल की सृष्टि दस प्रकार की होती है -
 
*महत्तत्व</ br>
*अहंकार</ br>
*तन्मात्राएँ</ br>
*इन्द्रियाँ</ br>
*इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता</ br>
*पञ्चपर्वा अविद्या (तम, मोह, महामोह, तामिस्र, अन्धतामिस्र)</ br>उपर उक्त छः सृष्टियाँ प्राकृतिक सर्ग कहलाते हैं।
*स्थावर</ br>
उपर उक्त छः सृष्टियाँ प्राकृतिक सर्ग कहलाते हैं।</ br>
*तिर्यक्</ br>
*स्थावर</ br>
*मनुष्य<br>ये वैकृतिक सर्ग कहलाती है।
*तिर्यक्</ br>
*मनुष्य</ br>
ये वैकृतिक सर्ग कहलाती है।
 
इन सृष्टियों से ब्रह्मा जी को संतुष्टि न मिली तब उन्होंने मन में नारायण का ध्यान कर मन से दशम सृष्टि सनकादि मुनियों की थी जो साक्षात् भगवान ही थे। ये सनकादि चार सनत, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार नामक महर्षि हैं तथा इनकी आयु सदैव पाँच वर्ष की रहती है।
ब्रह्मा जी नें उन बालकों से कहा कि पुत्र जाओ सृष्टि करो।
सनकादि मुनियों नें ब्रह्मा जी से कहा "पिताश्री! क्षमा करें। हमारे हेतु यह माया तो अप्रत्यक्ष है, हम भगवान की उपासना से बड़ा किसी वस्तु को नहीं मानते अतः हम भई जाकर उन्हीं की भक्ति करेंगे।" और सनकादि मुनि वहाँ से चल पड़े। वे वहीं जाया करते हैं जहाँ परमात्मा का भजन होता है। नारद जी को इन्होंने भागवत सुनाया था तथा ये स्वयं भगवान शेष से भागवत श्रवण किये थे। ये जितने छोटे दिखते हैं उतनी ही विद्याकंज हैं। ये चारो वेदों के ही रूप कहे जा सकते हैं।<ref>[[भागवत]] </ref>
 
== जय विजय को श्राप ==
 
==संदर्भ ==
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