"कात्यायन": अवतरणों में अंतर

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धर्मग्रंथों से जिन '''कात्यायनों''' का परिचय मिलता है, उनमें तीन प्रधान हैं-
[[भारत]] के प्रचीन गणितज्ञ और [[शुल्ब सूत्र]] के रचयिता।
 
(1) विश्वामित्रवंशीय कात्यायन,
 
(2) गोमिलपुत्र कात्यायन, तथा
 
(3) सोमदत्तपुत्र वररुचि कात्यायान।
 
==विश्वामित्रवंशीय कात्यायन==
विश्वामित्रवंशीय कात्यायन मुनि ने कात्यायन श्रोतसूत्र, कात्यायन गृह्यसूत्र और प्रतिहारसूत्र की रचना की।
 
[[स्कंदपुराण]] के नागर खंड में कात्यायन को [[याज्ञवल्क्य]] का पुत्र बतलाया गया है। जिसमें उन्हें यज्ञविद्याविचक्षण कहा है। उस पुराण के अनुसार इन्हीं कात्यायन ने श्रोत, गृह्य, धर्मसूत्रों और शुक्लयजु:पार्षत् आदि ग्रंथों की रचना की। वास्तव में स्कंदपुराण के यह कात्यायन विश्वामित्रवंशीय कात्यायन हैं और यही कात्यायन शुक्ल यजुर्वेद के अंगिरसायन की कात्यायन शाखा के जन्मदाता हैं।
 
शुक्ल [[यजुर्वेद]] की कात्यायन शाखा विंध्याचल के दक्षिण भाग से [[महाराष्ट्र]] तक फैली हुई है। महाभाष्य से ज्ञात होता है कि कात्यायन वररुचि कोई दाक्षिणात्य ब्राह्मण थे। महाराष्ट्र में व्याप्त कात्यायन शाखा इस प्रमाण का द्योतक है। शुक्लयजुर्वेद प्रातिशाख्य के बहुत से सूत्र कात्यायन के वार्तिकों से मिलते हैं। इससे भी उक्त संबंध की पुष्टि होती है।
 
स्कंदपुराण में याज्ञवल्क्य का आश्रम गुजरात में बतलाया गया है। बहुत संभव है जब याज्ञवल्क्य मिथिला जा बसे हों तब उनके पुत्र कात्यायन महाराष्ट्र की ओर चले गए हों और वहीं कात्यायन वररुचि वार्तिककार का जन्म हुआ हो।
 
==गोमिलपुत्र कात्यायन==
गोमिलपुत्र कात्यायन ने [[छंदोपरिशिष्टकर्मप्रदीप]] की रचना की है। कुछ लोगों का अनुमान है कि श्रौतसूत्रकार कात्यायन और स्मृतिप्रणेता कात्यायन एक ही व्यक्ति हैं। परंतु यह सिद्धांत ठीक नहीं जान पड़ता। हरिवशंपुराण में विश्वामित्रवंशीय "कति" के पुत्र कात्यायन गण का नामोल्लेख है। कात्यायन गण में वेदशाखा के प्रवर्तक अनेक व्यक्ति हुए हैं और इन्हीं में से एक याज्ञवल्क्य शुक्लयजु: अर्थात् वाज़सनेयि शाखा के प्रवर्तक हैं। श्रोत सूत्रकार कात्यायन इसी वाजसनेयि शाखा के अनुवर्तक हैं। इसी से यह अनुमान होता है कि विश्वामित्रवंशीय याज्ञवल्क्य के अनुवर्ती कात्यायन ऋर्षि ही कात्यायन श्रौतसूत्र के रचियिता हैं और गोमिलपुत्र कात्यायन स्मृतिकार हैं।
 
==वररुचि कात्यायन==
की [[पाणिनि|पाणिनीय]] सूत्रों के प्रसिद्ध वार्तिककार हैं। पुरुषोत्तमदेव ने अपने त्रिकांडशेष अभिधानकोश में कात्यायन के ये नाम लिखे हैं-कात्य, पुनर्वसु, मेधाजित् और वररुचि। "कात्य" नाम गोत्रप्रत्यांत है, महाभाष्य में उसका उल्लेख है। पुनर्वसु नाम नक्षत्र संबंधी है, "भाषावृत्ति" में पुनर्वसु को वररुचि का पर्याय कहा गया है। मेधाजित् का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। इसके अतिरिक्त, [[कथासरित्सागर]] और बृहत्कथामंजरी में कात्यायन वररुचि का एक नाम "श्रुतधर" भी आया है। हेमचंद्र एवं मेदिनी कोशों में भी कात्यायन के "वररुचि" नाम का उल्लेख है।
 
वररुचि कात्यायन के [[वार्तिक]] पाणिनीय [[व्याकरण]] के लिए अति महत्वशाली सिद्ध हुए हैं। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण अधूरा सा रहा जाता। वार्तिकों के आधार पर ही पीछे से पतंजलि]] ने [[महाभाष्य]] की रचना की।
 
कात्यायन वररुचि के वार्तिक पढ़ने पर कुछ तथ्य सामने आते हैं - यद्यपि अधिकांश स्थलों पर कात्यायन ने पाणिनीय सूत्रों का अनुवर्ती होकर अर्थ किया है, तर्क वितर्क और आलोचना करके सूत्रों के संरक्षण की चेष्टा की है, परंतु कहीं-कहीं सूत्रों में परिवर्तन भी किया है और यदा-कदा पाणिनीय सूत्रों में दोष दिखाकर उनका प्रतिषेध किया है और जहाँ तहाँ कात्यायन को परिशिष्ट भी देने पड़े हैं। संभवत: इसी वररुचि कात्यायन ने वेदसर्वानुक्रमणी और प्रातिशाख्य की भी रचना की है। कात्यायन के बनाए कुछ भ्राजसंज्ञक श्लोकों की चर्चा भी महाभाष्य में की गई है। कैयट और नागेश के अनुसार भ्राजसंज्ञक श्लोक वार्तिककार के ही बनाए हुए हैं।
 
==अन्य कात्यायन==
वार्तिककार कात्यायन वररुचि और प्राकृतप्रकाशकार वररुचि दो व्यक्ति हैं। प्राकृतप्रकाशकार वररुचि "वासवदत्ता" के प्रणेता सुबंधु के मामा होने से छठी सदी के हर्ष विक्रमादित्य के समसामयिक थे, जबकि पाणिनीय सूत्रों के वार्तिककार इससे बहुत पूर्व हो चुके थे।
 
[[सम्राट अशोक|अशोक]] के शिलालेख में वररुचि का उल्लेख है। प्राकृतप्रकाशकार वररुचि का गोत्र भी यद्यपि कात्यायन था, इसी एक आधार पर वार्तिककार और प्राकृतप्रकाशकार एक ही व्यक्ति नहीं माने जा सकते, क्योंकि अशोक के लेख की प्राकृत वररुचि की प्राकृत स्पष्ट ही नवीन मालूम पड़ती है। फलत: अशोक के पूर्ववर्ती कात्यायन वररुचि वार्तिककार हैं और अशोक के परवर्ती वररुचि प्राकृतप्रकाशकार। मद्रास से जो "चतुर्भाणी" प्रकाशित हुई है, उसमें "उभयसारिका" नामक भाण को वररुचिकृत नहीं है, क्योंकि वार्तिककार वररुचि "तद्धितप्रिय" नाम से प्रसिद्ध रहे हैं और "उभयसारिका" में तद्धितों के प्रयोग अति अल्प मात्रा में हैं। संभवत: यह वररुचि कोई अन्य व्यक्ति है।
 
हुयेनत्सांग ने बुद्धनिर्वाण से प्राय: 300 वर्ष बाद हुए पालिवैयाकरण जिस कात्यायन की अपने भ्रमण वृत्तांत में चर्चा की है, वह कात्यायन भी वार्तिककार से भिन्न व्यक्ति है। यह कात्यायन एक [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] आचार्य था जिसने "अभिधर्मज्ञानप्रस्थान" नामक बौद्धशास्त्र की रचना की है।
 
कात्याययन नाम का एक प्रधान [[जैन]] स्थावर भी हुआ है। आफ़्रेक्ट की हस्तलिखित ग्रंथसूची में वररुचि और कात्यायन के बनाए ग्रंथों की चर्चा की गई है। इन ग्रंथों में कितने वार्तिककार कात्यायन प्रणीत हैं, इसका निर्णय करना कठिन है।
 
[[श्रेणी:व्यक्ति]]
 
[[en:Katyayana]]