"रस (काव्य शास्त्र)": अवतरणों में अंतर

छो 59.177.140.172 (Talk) के संपादनों को हटाकर Himesh Kuttiyal के आखिरी अवतरण को पूर्वव...
पंक्ति 138:
 
रसाप्राधान्य के विचार में रसराजता की समस्या उत्पन्न की है। भरत समस्त शुचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृंगार मानते हैं, "[[अग्निपुराण]]" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है, [[राजा भोज|भोज]] शृंगार को ही मूल और एकमात्र रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध लिखित प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमणि" में भक्तिरस के लिए ही दिखाई देता है। हिंदी में [[केशवदास]] (16वीं शती ई.) शृंगार को रसनायक और देव कवि (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के लिए प्रयोग [[मतिराम]] (18वीं शती ई.) द्वारा ही किया गया मिलता है। दूसरी ओर [[बनारसीदास]] (17वीं शती ई.) "[[समयसार]]" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृति व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतर्भूत करने की क्षमता सभी संचारियों तथा सात्विकों को अंत:सात् करने की शक्ति सर्वप्राणिसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदि पर निर्भर है। ये सभी बातें जितनी अधिक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसों में नहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।
I AM HHANSRAJ YADAV THE KING OF RASH
 
== शृंगार रस ==