"श्रद्धाराम शर्मा": अवतरणों में अंतर

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उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उध्दरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया कि अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ गई। वे महाभारत का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। १८६५ में ब्रिटिश सरकार ने उनको फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। जबकि उनकी लिखी किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती रही। पं. श्रद्धाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें भी लिखी। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं. श्रध्दाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं. श्रध्दाराम ने पादरी के कहने पर बाईबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं. श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।<ref>{{cite web |url=http://www.hindimedia.in/index.php?option=com_content&task=view&id=1255&Itemid=54|title=उनके शब्द गूंजते हैं हर घर और मंदिर में|accessmonthday=[[१२ दिसंबर]]|accessyear=[[२००८]]|format= पीएचपी|publisher= हिन्दी मीडिया|language=}}</ref>
 
==विरासत==
==योगदान==
१८७० में उन्होंने ओम जय जगदीश की आरती की रचना की। प. श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। १८७७ में [[भाग्यवती उपन्यास| भाग्यवती]] नामक एक उपन्यास प्रकाशित हुआ (जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है), इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल १८८७ में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। पं. श्रद्धाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ. हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रद्धाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं. श्रद्धाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार [[पं. रामचंद्र शुक्ल]] ने पं. श्रद्धाराम शर्मा और [[भारतेंदु हरिश्चंद्र]] को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं.श्रद्धाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है।
 
==बाह्य सूत्र==