"घनानन्द": अवतरणों में अंतर

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'''घनानंद''' (१६७३- १७६०) [[रीतिकाल]] की तीन प्रमुख काव्यधाराओं- रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के अंतिम काव्यधारा के अग्रणी कवि हैं। [[आचार्य रामचंद्र शुक्ल]] ने रीतिमुक्त घनानन्द का समय सं. १७४६ तक माना है। इस प्रकार आलोच्य घनानन्द [[वृंदावन]] के आनन्दघन हैं। शुक्ल जी के विचार में ये [[नादिरशाह]] के आक्रमण के समय मारे गए। श्री [[हजारीप्रसाद द्विवेदी]] का मत भी इनसे मिलता है। लगता है, कवि का मूल नाम आनन्दघन ही रहा होगा, परंतु छंदात्मक लय-विधान इत्यादि के कारण ये स्वयं ही आनन्दघन से घनानन्द हो गए। अधिकांश विद्वान घनानन्द का जन्म [[दिल्ली]] और उसके आस-पास का होना मानते हैं।
 
घनानन्द मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार में खास-कलम (निजी सचिव) थे। इस पर भी - [[फारसी]] में माहिर थे- एक तो [[कवि]] और दूसरे सरस [[गायक]]। प्रतिभासंपन्न होने के कारण बादशाह का इन पर विशष अनुग्रह था। [[भगवान् कृष्ण]] के प्रति अनुरक्त होकर वृंदावन में उन्होंने निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली और अपने परिवार का मोह भी इन्होंने उस भक्ति के कारण त्याग दिया। मरते दम तक वे राधा-कृष्ण संबंधीसम्बंधी गीत, कवित्त-सवैये लिखते रहे। [[विश्वनाथप्रसाद मिश्र]] के मतानुसार उनकी मृत्यु [[अहमदशाह अब्दाली]] के [[मथुरा]] पर किए गए द्वितीय आक्रमण में हुई थी।<ref>{{cite web |url= http://hi.braj.org/index.php?option=com_content&view=article&id=150:mathura&catid=72:2009-06-24-10-38-35|title=घनानंद |accessmonthday=[[२० नवंबर]]|accessyear=[[२००९]]|format=पीएचपी|publisher=ब्रज.कॉम|language=}}</ref> कवि घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। कहते हैं कि सुजान नाम की एक स्त्री से उनका अटूट प्रेम था। उसी के प्रेम के कारण घनानंद बादशाह के दरबार में बे-अदबी कर बैठे, जिससे नाराज होकर बादशाह ने उन्हें दरबार से निकाल दिया। साथ ही घनानंद को सुजान की बेवफाई ने भी निराश और दुखी किया। वे वृंदावन चले गए और निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित होकर भक्त के रूप में जीवन-निर्वाह करने लगे। परंतु वे सुजान को भूल नहीं पाए और अपनी रचनाओं में सुजान के नाम का प्रतीकात्मक प्रयोग करते हुए काव्य-रचना करते रहे। घनानंद मूलतः प्रेम की पीड़ा के कवि हैं। वियोग वर्णन में उनका मन अधिक रमा है।
 
== काव्यगत विशेषताएँ ==