"जलालुद्दीन रूमी": अवतरणों में अंतर

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मौलाना मुहम्मद [[जलालुद्दीन रूमी]] फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक थे जिन्होंने मसनवी लिखी थी। इसका जन्म फारस देश के प्रसिद्ध नगर बलख में सन् ३०४ हिजरी में हुआ था। रूमी के पिता शेख बहाउद्दीन अपने समय के अद्वितीय पंडित थे जिनके उपदेश सुनने और फतवे लेने फारस के बड़े-बड़े अमीर और विद्वान् आया करते थे। एक बार किसी मामले में सम्राट् से मतभेद होने के कारण उन्होंने बलख नगर छोड़ दिया। तीन सौ विद्वान मुरीदों के साथ वे बलख से रवाना हुए। जहां कहीं वे गए, लोगों ने उसका हृदय से स्वागत किया और उनके उपदेशों से लाभ उठाया। यात्रा करते हुए सन् ६१० हिजरी में वे नेशांपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां के प्रसिद्ध विद्वान् [[ख्वाजा फरीदउद्दीन अत्तार]] उनसे मिलने आए। उस समय बालक जलालुद्दीन की उम्र ६ वर्ष की थी। ख्वाजा अत्तार ने जब उन्हें देखा तो बहुत खुश हुए और उसके पिता से कहा, "यह बालक एक दिन अवश्य महान् पुरुष होगा। इसकी शिक्षा और देख-रेख में कमी न करना।" ख्वाजा अत्तार ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ [[मसनवी अत्तार / ख्वाजा फरीदउद्दीन अत्तार | मसनवी अत्तार]] की एक प्रति भी बालक रूमी को भेंट की।<br>
मौलाना मुहम्मद [[जलालुद्दीन रूमी]] फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक थे जिन्होंने मसनवी लिखी थी। [[चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] ने इस ग्रंथ कृत की कुछ चुनी हुई शिक्षाप्रद कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया है जो [[ईंट की दीवार / जलालुद्दीन रूमी | ईंट की दीवार]] के नाम से प्रकाशित हुआ है। [[चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] ने ही इनकी जीवनी [[जलालुद्दीन रूमी / चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] भी लिखी है।
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वहां से भ्रमण करते हुए वे बगदाद पहुंचे और कुछ दिन वहां रहे। फिर वहां से हजाज़ और शाम होते हुए लाइन्दा पहुंचे। १८ वर्ष की उम्र में रूमी का विवाह एक प्रतितिष्ठत कुल की कन्या से हुआ। इसी अर्से में बादशाह ख्व़ाजरज़मशाह का देहान्त हो गया और शाह अलाउद्दीन कैकबाद राजसिंहासन पर बैठे। उन्होंने अपने कर्मचारी भेजकर शेख बहाउद्दीन से वापस आने की प्रार्थना की। सन् ६२४ हिजरी में वह अपने पुत्र सहित क़ौनिया गए और चार वर्ष तक यहां रहे। सन ६२८ हिजरी में उनका देहान्त हो गया।<br>
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रूमी अपने पिता के जीवनकाल से उनके विद्वान शिष्य सैयद बरहानउद्दीन से पढ़ा करते थे। पिता की मृत्यु के बाद वह दमिश्क और हलब के विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले गये और लगभग १५ वर्ष बाद वापस लौटे। उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष की हो गयी थी। तब तक रूमी की विद्वत्ता और सदाचार की इतनी प्रसिद्ध हो गयी थी कि देश-देशान्तरों से लोग उनके दर्शन करने और उपदेश सुनने आया करते थे। रूमी भी रात-दिन लोगों को सन्मार्ग दिखाने और उपदेश देने में लगे रहते। इसी अर्से में उनकी भेंट विख्यात साधू शम्स तबरेज़ से हुई जिन्होंने रूमी को अध्यात्म-विद्या की शिक्षा दी और उसके गुप्त रहस्य बतलाये। रूमी पर उनकी शिखाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा कि रात-दिन आत्मचिन्तन और साधना में संलग्न रहने लगे। उपदेश, फतवे ओर पढ़ने-पढ़ाने का सब काम बन्द कर दिया। जब उनके भक्तों और शिष्यों ने यह हालत देखी तो उन्हें सन्देह हुआ कि शम्स तबरेज़ ने रूमी पर जादू कर दिया है। इसलिए वे शम्स तबरेज़ के विरुद्ध हो गये और उनका वध कर डाला। इस दुष्कृत्य में रूमी के छोटे बेटे इलाउद्दीन मुहम्मद का भी हाथ था। इस हत्या से सारे देश में शोक छा गया और हत्यारों के प्रति रोष और घृणा प्रकट की गयी। रूमी को इस दुर्घटना से ऐसा दु:ख हुआ कि वे संसार से विरक्त हो गये और एकान्तवास करने लगे। इसी समय उन्होंने अपने प्रिय शिष्य मौलाना हसामउद्दीन चिश्ती के आग्रह पर 'मसनवी' की रचना शुरू की। कुछ दिन बाद वह बीमार हो गये और फिर स्वस्थ नहीं हो सके। ६७२ हिजरी में उनका देहान्त हो गया। उस समय वे ६८ वर्ष के थे। उनका मज़ार क़ौनिया में बना हुआ है।<br>
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मौलाना मुहम्मद [[जलालुद्दीन रूमी]] फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक थे जिन्होंने मसनवी लिखी थी। [[चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] ने इस ग्रंथ कृत की कुछ चुनी हुई शिक्षाप्रद कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया है जो [[ईंट की दीवार / जलालुद्दीन रूमी | ईंट की दीवार]] के नाम से प्रकाशित हुआ है। [[चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] ने ही इनकी जीवनी [[जलालुद्दीन रूमी / चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य]] भी लिखी है।
==संबंधित कड़ियाँ==
* [[मसनवी]]