"लगे रहो मुन्ना भाई": अवतरणों में अंतर

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==सारांश==
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मुन्ना और सर्किट फिर से आ गए हैं। इस बार उनके नए एडवेंचर का नाम है 'लगे रहो मुन्नाभाई'। इसके पहले 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' एक यादगार रही थी इसलिए निर्माता विधु विनोद चोपड़ा और निर्देशक राजकुमार हीरानी के लिए यह एक चुनौती थी कि इस बार भी ऐसा ही कुछ रंग जमना चाहिए। क्या 'लगे रहो...' उसी स्तर की साबित होगी? क्या मुन्ना और सर्किट वैसा ही कमाल दिखा सकेंगे जो उन्होंने 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में दिखाया था?
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लेकिन खुश खबर यह है कि यह मुन्नाभाई श्रेणी की ही फिल्म साबित हुई और उसी हीरे की तरह चमकी है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' आगे की सोच लिए हुए जड़ों से जुड़ी हुई कहानी है। यह सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती बल्कि झकझोरती भी है। इसमें हँसी के फव्वारे हैं तो दिल को छू लेने वाला संदेश भी है।
 
निर्देशक राजकुमार हीरानी ने भावुकता और हास्य के बीच बेहतर संतुलन स्थापित किया है। कॉमेडी बहुत अच्छी तरह से रची गई है, ड्रामा आपका ध्यान खींचता है और भावुक दृश्य आँखों की कोर भिगो जाते हैं। हास्य और भावुकता का ये परिणय तकनीकी और विषय की दृष्टि से भी 'लगे रहो..' को विजेता साबित करता है।
 
बहुत कम फिल्में होती हैं जो लंबे समय तक लोगों की यादों में बनी रहती हैं और 'लग रहो..' उनमें से एक साबित होगी। मुन्ना और सर्किट आपके टिकट का पूरा दाम दिला देते हैं। और आप कह उठते हैं 'लगे रहो चोपड़ा-हीरानी!!'
 
मुन्ना (संजय दत्त) प्रसिद्ध रेडियो जॉकी जाह्नवी (विद्या बालन) की आवाज का दीवाना है। जब वह रेडियो शो में सुबह-सुबह उत्साह में भरकर 'गुड मार्निंग मुंबई' कहती है तो उसका दिल उछलने लगता है। जब-जब उसकी आवाज सुनता है मुन्ना के दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं।
 
मुन्ना की जिंदगी खूबसूरत हो गई है। उसका दादागिरी का धंधा अच्छा चल रहा है और वह रोज घंटों रेडियो सुनता है..जाह्नवी के साथ शादी के सपने देखता है। इस बीच बस एक छोटी सी समस्या आ गई है। जाह्नवी मुन्ना को इतिहास का प्रोफेसर समझती है और एक दिन भोलेपन में मुन्ना को अपने परिवार में इतिहास का व्याख्यान देने के लिए भी बुला बैठती है। अब बेचारा मुन्ना क्या करे? बस इसके अलावा सब कुछ ठीक चल रहा है अब मुन्ना को इस बात का हल चाहिए। सर्किट एक नए आइडिए के साथ आता है और फिर मुन्ना के जीवन में अनोखी घटना घटती है। वह महात्मा गाँधी से प्रत्यक्ष रूप से मिलता है।
 
'लगे रहो..' का फिल्मांकन अच्छा है, कॉमेडी दृश्य तो इतने अच्छे हैं कि पिछले कुछ सालों से इतनी अच्छी कॉमेडी नहीं देखी गई है। इस बात में कोई शक नहीं कि हीरानी और उनके लेखकों की टीम (स्क्रीनप्ले-संवाद : हीरानी, अभिजीत जोशी, स्क्रीनप्ले सहायक : विधु विनोद चोपड़ा) ने स्क्रिप्ट को पूरा समय दिया है। इस फिल्मकी सबसे सुखद बात यह है कि 'लगे रहो..' की कहानी किसी भी फिल्म से मेल नहीं खाती, न तो हॉलीवुड से न ही बॉलीवुड से। फिल्म की विशेष बात मुन्ना और महात्मा के बीच के दृश्य हैं जो बहुत अच्छी तरह लिखे गए और फिल्मांकित किए गए हैं।
 
लेकिन इस आसान सफर में कुछ दिक्कतें हैं जैसे मुन्ना का रेडियो जॉकी बन जाना और परामर्शदाता की भूमिका निभाने लगना कुछ जँचा नहीं। पर इन बातों को छोड़ दिया जाए तो संजू और जिमी-परीक्षित साहनी और दिया मिर्जा के बीच के दृश्य आपको स्क्रीन से आँखें चिपकाए रखने को बाध्य करते हैं, न सिर्फ इन्हें अच्छी तरह से लिखा गया है बल्कि अच्छी तरह से फिल्मांकित भी किया गया है। इसी तरह से इंटरवल के बाद फिल्म मुन्ना और जाह्नवी की प्रेम कहानी पर केंद्रित हो जाती है और आप मुन्ना और सर्किट के बीच चटपटी बातचीत को तरसते हैं। रोमांटिक भाग को भी बेहतरीन ढंग से फिल्माया गया है इसलिए यह बात भी अखरने जैसी नहीं लग पाती।
 
हीरानी का हास्य, ड्रामा और भावुक दृश्यों पर गजब का नियंत्रण है। जब मुन्ना सर्किट को चाँटा मार देता है और फिर महात्मा गाँधी के कहने पर माफी माँगता है तो आपकी आँखें अनायास ही भर आती हैं। मुन्ना और सर्किट के बीच के दृश्य फिल्म की जान हैं। कुछ दृश्यों पर आप हँसी पर काबू ही नहीं रख पाते- जैसे जब मुन्ना रेडियो क्विज में भाग लेने जाता है, मुन्ना जाह्नवी कॉलेज कैम्पस में मिलते हैं या मुन्ना-सर्किट जेल में बंद हो जाते हैं। और मुन्ना और राष्ट्रपिता के बीच के दृश्य तो लाजवाब हैं। हीरानी ने मुन्नाभाई के पहले भाग की ही तरह इस भाग में भी अपना पूरा दमखम लगाया है।
 
शांतनु मोइत्रा का संगीत कर्णप्रिय है। 'समझो हो ही गया' और 'बोले तो बोले कैसी होगी हाय' अच्छे बन पड़े हैं और इनका फिल्मांकन भी अच्छी तरह से किया गया है। 'पल-पल हर पल' भी लोगों को भा रहा है इसको भी अच्छा फिल्माया है। मुरलीधरन सीके की सिनेमैटोग्राफी पहले दर्जे की रही है। संवाद चुटीले हैं और मुन्ना-सर्किट के बीच तो इनसे कमाल ही हो गया है।
 
फिल्म के पात्र अच्छी तरह से गढ़े गए हैं, संजय दत्त ने मुन्ना के किरदार को निभाया नहीं जिया है। मुन्ना को उनसे बेहतर कोई निभा ही नहीं सकता। संजू को मुन्ना के रूप में देखना फिल्म की सबसे सुखद बात है। अरशद वारसी भी बेहतरीन रहे हैं। कुछ ही कलाकार होते हैं जिनमें कॉमेडी दृश्यों के लिए सही समझ होती है, अरशद उनमें सबसे आगे हैं। अपने जरा से हाव-भाव से ही वे आपको हँसा-हँसाकर लोट-पोट कर सकते हैं।
 
इस बात में कोई शक नहीं कि अरशद ने हर दृश्य में संजू का मुकाबला किया है। बोमन ईरानी ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि वे अपार क्षमताओं वाले अभिनेता हैं। मुन्नाभाई के साथ वे 'एमबीबीएस..' की तरह ही जमे हैं। इस बार वे एक चालाक व्यक्ति बने हैं जो एक भवन को हड़पना चाहता है।
 
विद्या बालन लगातार अच्छा अभिनय कर रही हैं। इसमें वे 'परिणीता' से ज्यादा आत्मविश्वास से भरपूर दिखाई दी हैं साथ ही वे ग्लैमरस रोल्स में भी फोटोजनिक लगी हैं। जिमी शेरगिल छोटे रोल में कमाल कर गए, यही बात दिया मिर्जा के साथ भी रही है। अभिषेक बच्चन अतिथि भूमिका में कमाल कर गए। महात्मा के रोल में दिलीप प्रभावालकर अच्छे रहे लेकिन उनका मेकअप उन्हें और बेहतर बना सकता था। छह वरिष्ठ नागरिक बहुत अच्छे लगे हैं। कुलभूषण खरबंदा, परीक्षित साहनी और सौरभ शुक्ला जमे हैं।
 
कुल मिलाकर 'लगे रहो मुन्नाभाई' अपनी पूर्ववर्ती 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी ही चमकीली रही। इसका मजबूत पक्ष न सिर्फ मुन्ना-सर्किट की जोड़ी है बल्कि राष्ट्रपति महात्मा गाँधी की शिक्षा को फिर से जीने का तरीका समझाना भी है। मुन्नाभाई का यह सीक्वल देखने लायक है और बॉक्स ऑफिस पर भी यह धूम मचाएगी। कुछ ही दिनों में 'लगे रहो..' बॉक्स ऑफिस पर विजेता की तरह छा जाएगी। दर्शक इसे देखेंगे और खूब देखेंगे और लगे रहेंगे..!
 
 
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