"आर्य आष्टांगिक मार्ग": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 19:
 
इस मार्ग के प्रथम दो अंग प्रज्ञा के और अंतिम दो समाधि के हैं। बीच के चार शील के हैं। इस तरह शील, समाधि और प्रज्ञा इन्हीं तीन में आठों अंगों का सन्निवेश हो जाता है। शील शुद्ध होने पर ही आध्यात्मिक जीवन में कोई प्रवेश पा सकता है। शुद्ध शील के आधार पर मुमुक्षु ध्यानाभ्यास कर समाधि का लाभ करता है और समाधिस्थ अवस्था में ही उसे सत्य का साक्षात्कार होता है। इसे प्रज्ञा कहते हैं, जिसके उद्बुद्ध होते ही साधक को सत्ता मात्र के अनित्य, अनाम और दु:खस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। प्रज्ञा के आलोक में इसका अज्ञानांधकार नष्ट हो जाता है। इससे संसार की सारी तृष्णाएं चली जाती हैं। वीततृष्ण हो वह कहीं भी अहंकार ममकार नहीं करता और सुख दु:ख के बंधन से ऊपर उठ जाता है। इस जीवन के अनंतर, तृष्णा के न होने के कारण, उसके फिर जन्म ग्रहण करने का कोई हेतु नहीं रहता। इस प्रकार, शील-समाधि-प्रज्ञावाला मार्ग आठ अंगों में विभक्त हो आर्य आष्टांगिक मार्ग कहा जाता है।
 
==इन्हें भी देखें==
*[[मध्यमा प्रतिपद]] या [[मध्यम मार्ग]]
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://hindi.webdunia.com/buddhism-religion/बुद्ध-का-आष्टांगिक-मार्ग-109012400034_1.htm बुद्ध का आष्टांगिक मार्ग] (वेबदुनिया)
 
[[श्रेणी:बौद्ध दर्शन]]