"पक्षीविज्ञान": अवतरणों में अंतर

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[[चार्ल्स डार्विन]] के [[विकासवाद]] के सिद्धांत ने पक्षीविज्ञान तथा जीवविज्ञान की अन्य शाखाओं में बहुत ही क्रांति पैदा की है। जिन दिनों प्राणिविज्ञान के अन्य वर्गों के विशेषज्ञ नई जाति के वर्णन में व्यस्त रहे, पक्षीविज्ञानवेत्ता पक्षियों की जाति के सूक्ष्म अंतरों का पता लगाने में और इस बात की खोज में लगे थे कि प्रकृति में नई जाति के जीवों का अभ्युदय कैसे होता है। पक्षियों के अध्ययन से आजकल इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि प्राणियों की नई जाति की उत्पत्ति उनके भौगोलिक अलगाव द्वारा होती है और यही कारण है कि सब प्राणियों के वैज्ञानिक नामकरण के तृतीय खंड में भौगोलिक स्थान का समावेश हो गया है।
 
जीवों के वैज्ञानिक नामकरण से, जिससे किसी भी देश और भाषा के वैज्ञानिक प्राणियों तथा पक्षियों की जाति को पहचान सकें, जीवविज्ञान में बहुत बड़ी प्रगति हुई है। जीवों के वैज्ञानिक नामकरण की पद्धति स्वीडेन निवासी कैरोलस लीनियस (CarlousCarolus Linnaeus) के ग्रंथ "सिस्टेमा नैचुरी" (Systema Naturae) के दशम संस्करण (1758 ई.) से अपनाई गई हैं। इस पद्धति के अनुसार किसी प्राणी के नाम के दो या तीन खंड होते हैं। नाम का प्रथम खंड उसके वंश (genus) को बताता है, दूसरा खंड उसकी जाति (species) को और तीसरा खंड उसकी उपजाति (subspecies) को, जो भौगोलिक क्षेत्र अथवा उसकी अन्य विशेषता पर आधारित होती है। उदाहरणार्थ साधारण भारतीय घरेलू [[कौआ|कौए]] का वैज्ञानिक नाम सामान्य भस्मच्छवि काक (Corvus splendens) और दक्षिण भारतीय कौए का नाम दक्षिण कृष्ण काक (Corvus levaillanti culminatus) और भारतीय जंगली कौए का नाम सामान्य कृष्ण काक (Corvus machrrorhynchus macrrophynchus) है। पक्षीविज्ञानवेत्ताओं ने नामकरण की इस पद्धति को 1910 ई. से अपना लिया था, किंतु अन्य प्राणिवर्गों के अध्ययनकर्ताओं ने इसे अब अपनाना प्रारंभ कर दिया है। भारतीय पक्षियों के विषय में अनेक व्यक्तियों ने अच्छे काम किए हैं और पुस्तकें लिखी हैं।
 
== भारतीय संस्कृति में पक्षी ==