"गति के नियम": अवतरणों में अंतर
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== सामान्य परिचय ==
दूसरी शताब्दी का अंत होने से पूर्व यूनानी ज्योतिषज्ञों ने आकाशीय पिंडों की नियमित गति पर प्रेक्षण आरंभ कर दिए थे। भारत में [[सूर्यसिद्धांत]] आदि ग्रंथों में (जिनके रचनाकाल के बारे में ३,००० ई. पू. से ६०० ई. तक के बीच की कई तिथियाँ हैं) इन प्रेक्षणों पर आधारित ग्रहों की स्थितियों का वर्णन है।। ग्रीकों ने [[वृतीय गति|एकसमान वृत्तीय गति]] (uniform circular motion) के आधार पर इन पिंडों की गति की व्याख्या करने की चेष्टा की। [[कोपरनिकस]] (सन् १४७३-१५४३) ने [[सौर मण्डल|सौर परिवार]] का केंद्र सूर्य को मानकर गति की व्याख्या को सरल कर दिया; किंतु सर्वप्रथम महत्वपूर्ण ज्योतिष खोज [[केप्लर]] (सन् १५७१-१६३०) के [[केप्लर के ग्रहीय गति के नियम|ग्रहीय गति संबंधी नए नियम]] थे, जो सन् १६०९ और १६१९ में प्रकाशित किए गए।
सन् १५९० के लगभग गिरते हुए पिंडों की गति पर
[[गैलीलियो गैलिली|गैलिलीयो]] और न्यूटन के गवेषणकालों के बीच सबसे अधिक महत्वपूर्ण खोज इस विषय में [[हाइगन]] (सन १६२९-९५) ने की। उसने वक्र में गतिमान बिंदु के त्वरण की खोज की और [[अपकेंद्रीय बल]] की प्रकृति पर प्रकाश डाला। जब घड़ियों से यह ज्ञात हुआ कि विभिन्न अक्षांशों में पिंड विभिन्न त्वरण से गिरते हैं तब इसका कारण उसने पृथ्वी का भ्रमण बताया। उसने भाँति-भाँति के दोलकों की गतियों की भी तुलना की। इस काल में कठोर पिंडों के [[संघट्ट]] (impact) पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप यह स्थापित हो गया कि पिंडों के द्रव्यमानों की तुलना उनके अवस्थितत्व के आधार पर वही है जो उन्हें तौलने पर होती है। पिंडों द्वारा गतिपरिवर्तन के प्रतिरोध को सामान्यतः अवस्थितत्व कहा जाता है।
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