"मणिकर्णिका घाट": अवतरणों में अंतर

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'''मणिकर्णिका घाट ''' [[वाराणसी]] में [[गंगानदी]] के तट पर स्थित एक प्रसिद्ध घाट है। इस घाट से जुड़ी भी दो कथाएं हैं। एक के अनुसार भगवान [[विष्णु]] ने शिव की तपस्या करते हुए अपने [[सुदर्शन चक्र]] से यहां एक कुण्ड खोदा था। उसमें तपस्या के समय आया हुआ उनका स्वेद भर गया। जब शिव वहां प्रसन्न हो कर आये तब विष्णु के कान की मणिकर्णिका उस कुंड में गिर गई थी।<ref name="कला केन्द्र"/> दूसरी कथा के अनुसार भगवाण शिव को अपने भक्तों से छुट्टी ही नहीम मिल पाती थी। देवी [[पार्वती]] इससे परेशान हुईं और शिवजी को रोके रखने हेतु अपने कान की मणिकर्णिका वहीं छुपा दी और शिवजी से उसे ढूंढने को कहा। शिवजी उसे ढूंढ नहीम पाये और आज तक जिसकी भी अन्त्येष्टि उस घाट पर की जाती है, वे उससे पूछते हैं कि क्या उसने देखी है?<ref name="कला केन्द्र"/> प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा [[हरिशचंद्र]] को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था।<ref name="कला केन्द्र"/> इस घाट की विशेषता ये है, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती।
 
शक्ति पीठ की इस्थापना के दौरान भगवन शिव के माँ सरस्वती को दिए गए बरदान स्वरुप काशी नगरी की नींब एवं मणिकर्णिका घाट के स्थापना का स्वरुप दिखाया और बरदान दिया की गंगा अपने अवतरण के पश्चात उनके साथ मिलकर बहेंगी और यहीं इस्थापित होगा शिव का ज्योतिर्लिंग जिसे कालांतर में काशी विश्व्नाथ के नाम से जाना जायेगा। ऐसा माना जाता है की भगवान शिव का एक भैरो आज भी वहां की रक्षा करते हैं और ये आदि शक्ति और शिव की सम्पूरणता का प्रतीक है.
== संदर्भ ==
यहाँ देवी सती का कर्णमंडल गिरा था।
{{टिप्पणीसूची}}
ये प्रमुख 51 शक्तिपीठों मैं प्रमुख है
 
{{वाराणसी}}