"सूफ़ीवाद": अवतरणों में अंतर

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माना जाता है कि सूफ़ीवाद [[ईराक़]] के [[बसरा]] नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा। राबिया, अल अदहम, मंसूर हल्लाज जैसे शख़्सियतों को इनका प्रणेता कहा जाता है - ये अपने समकालीनों के आदर्श थे लेकिन इनको अपने जीवनकाल में आम जनता की अवहेलना और तिरस्कार झेलनी पड़ी। सूफ़ियों को पहचान [[अल गज़ाली]] के समय (सन् ११००) से ही मिली। बाद में [[अत्तार]], [[रूमी]] और [[हाफ़िज़]] जैसे कवि इस श्रेणी में गिने जाते हैं, इन सबों ने शायरी को तसव्वुफ़ का माध्यम बनाया। भारत में इसके पहुंचने की सही-सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ख़्वाजा [[मोईनुद्दीन चिश्ती]] बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में जुट गए थे।
 
[['''सच्चा सूफ़ी संत(फ़क़ीर)]]'''
 
सूफीयों की जिंदगी हिदायत का सरचश्‍म होती है। इन गोदड़ी ओड़ने वाले मुख्लिस बंदों को पहचानना हर किसी के बस की बात नहीं। एक मशहूर क़ौल है कि ''वली को वली ही पहचानता है। यानि फ़क़ीर को फ़क़ीर ही पहचानता है।
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सूफ़ी की ज़ात यकता (अकेली) होती है- न अल्‍लाह के सिवा उसे कोई कुबूल करता है और न ही वो अल्‍लाह के सिवा किसी को कुबूल करता है।
 
[['''सच्चा सूफ़ी]]''' वो है कि जब बोले तो उसके ज़बान से हक़ (सच्‍ची बात, अल्‍लाह का जिक्र) ज़ारी हो और जब खामोश हो तो उसके जिस्‍म का एक एक रोंगटा ये शहादत दे कि उसके अन्‍दर दुनिया की कोई हवस मौजूद नहीं।।
 
== नाम ==