"जय सिंह द्वितीय": अवतरणों में अंतर

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महाराजा सवाई जयसिंह के कार्यकाल का संभवतः सबसे बड़ा और कीर्तिवान कार्य था - सन १७२७ में जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। राजगुरु सम्राट जगन्नाथ ने नए नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा भूमि पूजा करवाई थी। महाराजा की आज्ञा के अनुसार नए नगर का नक्शा दीवान [[विद्याधर]] ने बनाया जो बहुत प्रतिभाशाली बंगाली ब्राह्मण था और इनके लेखा-विभाग की सेवा में नायब-अंकेक्षक था। सन १७३३ ई० में यह नगर, जिसका नाम सवाई जयसिंह ने ' सवाई जयनगर' रखा बन कर तैयार हुआ।<ref>[http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]</ref>
 
=== मालवेमालवा की दूसरी बार सूबेदारी ===
जयसिंह को मुग़ल बादशाह द्वारा मालवेमालवा का दुबारा सूबेदार बनाया गया। वे २३ अक्टूबर १७२९ ई० को [[उज्जैन]] के लिए रवाना हुए। जयसिंह अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विद्रोही मरहठों से समझौता करना चाहते थे। इनके इस समझौता-प्रस्ताव को बादशाह ने भी स्वीकार कर लिया था। इनकी इस विजय पर साहू से लिखा पढ़ी हुई। साहू इसके लिए तैयार हो गया था, किन्तु पेशवा लोग इस समझौते के ज्यादा पक्ष में नहीं था। इन्होंने दीपसिंह कुम्भाणी को साहू के पास [[सतारा]] भेजा। लौटते समय दीपसिंह निजाम से भी मिला, परन्तु सितम्बर १७३० ई० में इनके मालवा की सूबेदारी से हट जाने से वह समझौता नहीं हो सका।<ref>[http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]</ref>
 
=== कुशत्तल पंचोलास का युद्ध ===
बुद्धसिंह बून्दी और उनकी कछवाही रानी के आपस में गंभीर मतभेद पैदा होने पर जयसिंह के सम्बन्ध भी बूंदी नरेश बुद्धसिंह से बहुत खराब हो गये। अन्त में सम्बन्ध इतने बिगड़े कि जयसिंह ने बादशाह को कह कर बुद्धसिंह के स्थान पर करवाड़ के सालिम सिंह हाडा के पुत्र दलेलसिंह को बून्दी का राजा बनवा दिया और बाद में अपनी पुत्री भी उसे ब्याह दी। इससे राजस्थान में जयपुर और बूंदी के बीच लम्बे समय तक बड़ा दु:खद संघर्ष चला। इस आपसी मनमुटाव से मरहठों को फिर राजस्थान में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। जयसिंह को १७३० ई० में मालवा में इत्तला मिली कि बुद्धसिंह फिर से बून्दी पर अधिकार करने जा रहे हैं। इन्होंने एक सेना दलेलसिंह की मदद को भेजी| ६ अप्रैल १७३० को ''कुशत्तल पंचोलास'' में बुधसिंह से जयपुर सेना का युद्ध हुआ जिसमें जयपुर के पांच राजावत सरदार फतहसिंह सारसोप (बरवाड़ा) खोजूराम (ईसरदा), सांवलदास (शिवाड), अचलसिंह (नानतोड़ी) और घासीराम अचरे मारे गए|। इस युद्ध में बुद्धसिंह को विजय नहीं मिली। मालवा से लौटते समय महाराजा सवाई जयसिंह कुशत्तल पांचोलास गये। उन्होंने वहाँ मारे गये सरदारों की मातमी करके उनके पुत्रों को सिरोपाव आदि दिये।<ref>[http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]</ref>
 
=== तीसरी बार मालवेमालवा की सूबेदारी ===
जयसिंह दिसम्बर १७३२ में तीसरी बार मालवा प्रान्त के सूबेदार बनकर उज्जैन गये। इस बार मालवेमालवा में भी मरहठों का उत्पात इतना बढ़ गया था कि मालवा से मरहठों को निकालने के इनके तमाम प्रयास विफल रहे। १७३४ ई० में खानदौरा एक बड़ी सेना लेकर राजपूताना होता हुआ मालवेमालवा में मैराथन के विरुद्ध आगे आया। जयसिंह, अभयसिंह (जोधपुर) आदि अनेक राजा उनके साथ थे। जब यह विशाल सेना रामपुरा पहुँची तो उसे मरहठा मिले। पर वे छुटपुट लड़ाइयों के बाद इन्हें छका कर पीछे से राजस्थान में घुस गये। वहाँ उनको रोकने वाला कोई नहीं था और वे मराठे जयपुर राज्य में साँभर तक लूटपाट करते चले गये। १७३५ ई० में पेशवा बाजीराव की माँ उत्तर में तीर्थ करने आई। महाराजा जयसिंह ने उसका बड़ा आदर-सत्कार किया तथा महाराणा से भी उसका सत्कार करवाया। आगरा में इनके नायब सूबेदार ने अपने दीवान आयामल के भाई नारायणदास को उसका स्वागत करने व पूना तक साथ जाने की आज्ञा भेजी। जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे। उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फ़रवरी को महाराजा जयसिंह मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले। उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी। बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया।
बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंह को बड़ा दु:ख हुआ। नया पेशवा बालाराव बना। १७४१ ई० में जब नए मराठा पेशवा बाला राव उत्तर में चढ़ाई की उस समय जयसिंह आगरा के सूबेदार थे। इनकी और नये पेशवा बाला राव की धौलपुर में भेंट हुई। इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दे दी।<ref>[http://www.ignca.nic.in/coilnet/rj089.htm]</ref>