"राजा महेन्द्र प्रताप सिंह": अवतरणों में अंतर

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1909 में [[वृन्दावन]] में [[प्रेम महाविद्यालय]] की स्थापना की जो तकनीकी शिक्षा के लिए भारत में प्रथम केन्द्र था। [[मदनमोहन मालवीय]] इसके उद्धाटन समारोह में उपस्थित रहे। ट्रस्ट का निर्माण हुआ-अपने पांच गाँव, वृन्दावन का राजमहल और चल संपत्ति का दान दिया।
 
उनकी दृश्टिदृष्टि विशाल थी। वे जाति, वर्ग, रंग, देश आदि के द्वारा मानवता को विभक्त करना घोर अन्याय, पाप और अत्याचार मानते थे। ब्राह्मण-भंगी को भेद बुद्धि से देखने के पक्ष में नहीं थे। [[वृन्दावन]] में ही एक विशाल फलवाले उद्यान को जो 80 एकड़ में था, 1911 में [[आर्य प्रतिनिधि सभा]] [[उत्तर प्रदेश]] को [[दान]] में दे दिया। जिसमें आर्य समाज गुरुकुल है और राष्ट्रीय विश्वविद्यालय भी है।
 
[[प्रथम विश्वयुद्ध]] से लाभ उठाकर भारत को आजादी दिलवाने के पक्के इरादे से वे विदेश गये। इसके पहले '[[निर्बल सेवक]]' समाचार-पत्र [[देहरादून]] से राजा साहेब निकालते थे। उसमें जर्मन के पक्ष में लिखे लेख के कारण उन पर 500 रुपये का दण्ड किया गया जिसे उन्होंने भर तो दिया लेकिन देश को आजाद कराने की उनकी इच्छा प्रबलतम हो गई। विदेश जाने के लिए पासपोर्ट नहीं मिला। मैसर्स थौमस कुक एण्ड संस के मालिक बिना पासपोर्ट के अपनी कम्पनी के पी. एण्ड ओ स्टीमर द्वारा इंगलैण्ड राजा महेन्द्र प्रताप और [[स्वामी श्रद्धानंद]] के ज्येष्ठ पुत्र हरिचंद्र को ले गया। उसके बाद जर्मनी के शसक कैसर से भेंट की। उन्हें आजादी में हर संभव सहाय देने का वचन दिया। वहाँ से वह [[अफगानिस्तान]] गये। [[बुडापोस्ट]], बल्गारिया, टर्की होकर हैरत पहुँचे। अफगान के बादशाह से मुलाकात की और वहीं से 1 दिसम्बर 1915 में [[काबुल]] से '''भारत के लिए अस्थाई सरकार''' की घोषणा की जिसके राष्ट्रपति स्वयं तथा प्रधानमंत्री [[मौलाना बरकतुल्ला खाँ]] बने। स्वर्ण-पट्टी पर लिखा सूचनापत्र [[रूस]] भेजा गया। अफगानिस्तान ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया तभी वे [[रूस]] गये और [[लेनिन]] से मिले। परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की। 1920 से 1946 विदेशों में भ्रमण करते रहे। [[विश्व मैत्री संघ]] की स्थापना की। 1946 में भारत लौटे। [[बल्लभवल्लभ भाई पटेल|सरदार पटेल]] की बेटी [[मणिबेन बटेलपटेल|मणीबेनमणिबेन]] उनको लेने कलकत्ता हवाई अड्डे गईं। वे संसद-सदस्य भी रहे।
 
26 अप्रैल 1979 में वे चल बसे। राजनैतिक कारणों से भारत सरकार ने उन्हें वह मान सम्मान नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिये था।