"मधुमक्खी": अवतरणों में अंतर

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===यूरोपियन मधुमक्खी (Apis mellifera)===
इसका विस्तार संपूर्ण यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका तक है। इसकी अनेक प्रजातियां जिनमें एक प्रजाति इटैलियन मधुमक्खी (Apis mellifera lingustica) है। वर्तमान में अपने देष में इसी इटैलियन मधुमक्खी का पालन हो रहा है। सबसे पहले इसे अपने देष में सन् 1962 में हिमाचल प्रदेष में नगरौटा नामक स्थान पर यूरोप से लाकर पाला गया था। इसके पष्चात 1966-67 में लुधियाना (पंजाब) में इसका पालन शुरू हुआ। यहां से फैलते-फैलते अब यह पूरे देष में पहुंच गई है। इसके पूर्व हमारे देष में भारतीय मौन पाली जाती थी। जिसका पालन अब लगभग समाप्त हो चुका है।
 
==कृषि उत्पादन में मधुमक्खियों का महत्त्व==
परागणकारी जीवों में मधुमक्खी का विषेष महत्त्व है। इस संबंध में अनेक अध्ययन भी हुए हैं। सी.सी. घोष, जो सन् 1919 में इम्पीरियल कृषि अनुसंधान संस्थान में कार्यरत थे, ने मधुमक्खियों की महत्ता के संबंध में कहा था कि यह एक रुपए की [[शहद]] व [[मोम]] देती है तो दस रुपए की कीमत के बराबर उत्पादन बढ़ा देती है। [[भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान]], [[नई दिल्ली]] में कुछ फसलों पर परागण संबंधी परीक्षण किए गए। [[सौंफ]] में देखा गया कि जिन फूलों का मधुमक्खी द्वारा परागीकरण होने दिया गया उनमें 85 प्रतिशत बीज बने। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागित करने से रोका गया उनमें मात्र 6.1 प्रतिशत बीज ही बने थे। यानी मधुमक्खी, सौंफ के उत्पादन को करीब 15 गुना बढ़ा देती है। [[बरसीम]] में तो बीज उत्पादन की यह बढ़ोत्तरी 112 गुना तथा उनके भार में 179 गुना अधिक देखी गई। [[सरसों]] की परपरागणी 'पूसा कल्याणी' जाति तो पूर्णतया मधुमक्खी के परागीकरण पर ही निर्भर है। फसल के जिन फूलों में मधुमक्खी ने परागीकृत किया उनके फूलों से औसतन 82 प्रतिशत फली बनी तथा एक फली में औसतन 14 बीज और बीज का औसत भार 3 मिलिग्राम पाया गया। इसके विपरीत जिन फूलों को मधुमक्खी द्वारा परागण से रोका गया उनमें सिर्फ 5 प्रतिशत फलियां ही बनीं। एक फली में औसत एक बीज बना जिसका भार एक मिलिग्राम से भी कम पाया गया। इसी तरह तिलहन की स्वपरागणी किस्मों में उत्पादन 25-30 प्रतिशत अधिक पाया गया। [[लीची]], [[गोभी]], [[इलायची]], [[प्याज]], [[कपास]] एवं कई फलों पर किए गए प्रयोगों में ऐसे परिणाम पाए गए।
 
== इन्हें भी देखें ==