"विश्वनाथ प्रताप सिंह": अवतरणों में अंतर

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== राजनीतिक जीवन ==
 
विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने विद्यार्थी जीवन में ही राजनीति से दिलचस्पी हो गई थी। वह समृद्ध परिवार से थे, इस कारण युवाकाल की राजनीति में उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उनका सम्बन्ध भारतीय कांग्रेस पार्टी के साथ हो गया। 1969-1971 में वह उत्तर प्रदेश विधानसभा में पहुँचे। उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कार्यभार भी सम्भाला। उनका मुख्यमंत्री कार्यकाल 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक ही रहा। इसके पश्चात्त वह 29 जनवरी 1983 को केन्द्रीय वाणिज्य मंत्री बने। विश्वनाथ प्रताप सिंह राज्यसभा के भी सदस्य रहे। 31 दिसम्बर 1984 को वह भारत के वित्तमंत्री भी बने। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय वित्तमंत्री थे जब राजीव गांधी के साथ में उनका टकराव हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास यह सूचना थी कि कई भारतीयों द्वारा विदेशी बैंकों में अकूत धन जमा करवाया गया है। इस पर वी. पी. सिंह अर्थात् विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स की नियुक्ति कर दी ताकि ऐसे भारतीयों का पता लगाया जा सके। इसी बीच स्वीडन ने 16 अप्रैल 1987 को यह समाचार प्रसारित किया कि भारत के बोफोर्स कम्पनी की 410 तोपों का सौदा हुआ था, उसमें 60 करोड़ की राशि कमीशन के तौर पर दी गई थी। जब यह समाचार भारतीय मीडिया तक पहुँचा तो वह प्रतिदिन इसे सिरमौर बनाकर पेश करने लगा। इस 'ब्रेकिंग न्यूज' का उपयोग विपक्ष ने भी ख़ूब किया। उसने जनता तक यह संदेश पहुँचाया कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी और उनके पारिवारिक सदस्यों की संलिप्ततासरकार थी। यद्यपिजाँच यहसे एकदमभाग झूठरही था और बाद में साबित भीथी। हुआ। राजीव गांधी को भारतीय न्यायालय ने क्लीन चिट भी प्रदान कर दी। बोफोर्स कांड के सुर्खियों में रहते हुए 1989 के चुनाव भी आ गए। वी. पी. सिंह और विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दे के रूप में पेश किया। यद्यपि प्राथमिक जाँच-पड़ताल से यह साबित हो गया कि राजीव गांधी के विरुद्ध ऑडिटर जनरल के द्वारा कोई भी आरोप नहीं लगाया गया है, तथापि ऑडिटर जनरल ने तोपों की विश्वसनीयता को अवश्य संदेह के घेरे में ला दिया था। भारतीय जनता के मध्य यह बात स्पष्ट हो गई कि बोफार्स तोपें विश्वसनीयन नहीं हैं तो सौदे में दलाली ली गई होगी। ऐसे में निशाना राजीव गांधी और उनकी सरकार को ही बनना था। इधर वी. पी. सिंह ने 1987 में कांग्रेस द्वारा निष्कासित किए जाने पर विभीषण की भूमिका निभाने का मन बना लिया था। लेकिन यह विभीषण रावण की नहीं बल्कि राम की पराजय चाहता था। वी. पी. सिंह ने जनता के मध्य जाकर यह दुष्प्रचार करना आरम्भ कर दिया कि कांग्रेस सरकार में शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसी कारण अफ़सरशाही और नौकरशाही भ्रष्ट हो चुकी है। उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के दावे ने भारत के सभी वर्गों को चौंका दिया। वी. पी. सिंह की बातें उन्हें सत्यवादी हरिश्चन्द्र के सत्य वचन के समान लगीं।
 
वी. पी. सिंह ने चुनाव की तिथि घोषित होने के बाद जनसभाओं में राजीव गांधी का नाम लेकर दावा किया कि उन्होंने बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म 'लोटस' नामक विदेशी बैंक में जमा कराई है और वह सत्ता में आने के बाद पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। कांग्रेस में वित्त एवं रक्षा मंत्रालय का सर्वेहारा रहा व्यक्ति यह आरोप लगा रहा था, इस कारण सर्वहारा वर्ग ने यह मान लिया कि वी. पी. सिंह के दावों में अवश्य ही सच्चाई होगी। अब यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वी. पी. सिंह द्वारा राजीव गांधी के प्रति दुष्प्रचार का उद्देश्य सत्ता तक पहुँचना ही था। इस चुनाव में सच्चाई और ईमानदारी की बलि चढ़ाई गई तथा झूठ ने लोगों को ग़ुमराह कर दिया। यही मनोविज्ञान भी है कि यदि कोई झूठ बार-बार आपके कानों में पड़ता है तो एक दिन आप उसे सच माने लेते हैं। यही बात बोफोर्स सौदे के मामले में भी हुई। भारतीय जनता ने इसे सच मान लिया। इस प्रकार इस चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनीतिज्ञ की बन गई जिसकी ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता था। उत्तर प्रदेश के युवाओं ने तो उन्हें अपना नायक मान लिया था। वी. पी. सिंह छात्रों की टोलियों के साथ-साथ रहते थे। वह मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते छात्रों के साथ हो लेते थे। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति प्रदर्शित करने के लिए यथासम्भव कार की सवारी से भी परहेज किया। फलस्वरूप इसका सार्थक प्रभाव देखने को प्राप्त हुआ। वी. पी. सिंह ने एक ओर जनता के बीच अपनी सत्यवादी हरिश्चन्द्र की छवि बनाई तो दूसरी ओर कांग्रेस को तोड़ने का काम भी आरम्भ कर दिया। जो लोग राजीव गांधी से असंतुष्ट थे, उनसे वी. पी. सिंह ने सम्पर्क करना आरम्भ कर दिया। वह चाहते थे कि असंतुष्ट कांग्रेसी राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी से अलग हो जाएँ। उनकी इस मुहिम में पहला नाम था-आरिफ़ मुहम्मद का। आरिफ़ मुहम्मद एक आज़ाद एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। इस कारण वह चाहते थे कि इस्लामिक कुरीतियों को समाप्त किया जाना आवश्यक है। आरिफ़ मुहम्मद तथा राजीव गांधी एक-दूसरे के बेहद क़रीब थे लेकिन एक घटना ने उनके बीच गहरी खाई पैदा कर दी। दरअसल हुआ यह कि हैदराबाद में शाहबानो को उसके पति द्वारा तलाक़ देने के बाद मामला अदालत तक जा पहुँचा। अदालत ने मुस्लिम महिला शाहबानो को जीवन निर्वाह भत्ते के योग्य माना। लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथी चाहते थे कि 'मुस्लिम पर्सनल लॉ' के आधार पर ही फैसला किया जाए। इस कारण यह विवाद काफ़ी तूल पकड़ चुका था। ऐसी स्थिति में राजीव गांधी ने आरिफ़ मुहम्मद से कहा कि वह एक ज़ोरदार अभियान चलाकर लोगों को समझाएँ कि मुस्लिमों को नया क़ानून मानना चाहिए और 'मुस्लिम व्यक्तिगत क़ानून' पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
 
वी. पी. सिंह ने विद्याचरण शुक्ल, रामधन तथा सतपाल मलिक और अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों के साथ मिलकर 2 अक्टूबर 1987 को अपना एक पृथक मोर्चा गठित कर लिया। इस मोर्चे में भारतीय जनता पार्टी भी सम्मिलित हो गई। वामदलों ने भी मोर्चे को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इस प्रकार सात दलों के मोर्चे का निर्माण 6 अगस्त 1988 को हुआ और 11 अक्टूबर 1988 को राष्ट्रीय मोर्चा का विधिवत गठन कर लिया गया।