"याज्ञवल्क्य": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 6:
== शाखायें ==
अब तक इसकी दो शाखायें प्राप्‍त होती है जो कि‍ पूर्व में 15 हुआ करती थी। प्राप्‍त शाखाआें मेे प्रथम है माध्‍यन्‍दि‍न तथा द्वि‍तीय है काण्‍व।
 
== माध्‍यन्‍दि‍न शाखा ==
इस शाखा का प्रचार प्रसार सम्‍प्रति‍ उत्‍तर भारत में प्रायश: सर्वत्र देखने में आता है। इस शाखा की संहि‍ता पर आचार्य महीधर, आचार्य उव्‍वट, स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती, पूज्‍यपाद श्री करपात्र स्‍वामी तथा श्रीपाददामोदर सातवलेकर की व्‍याख्‍या महत्‍वपूर्ण है।
== शतपथ ब्राह्मण ==
किंतु याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य शतपथ ब्राह्मण की रचना है। इस ग्रंथ में 100 अध्याय हैं जो 14 कांडों में बँटे हैं। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। पहले दो कांडों में दर्श और पौर्णमास इष्टियों का वर्णन है। कांड 3, 4, 5 में पशुबंध और सोमयज्ञों का वर्णन है। कांड 6, 9, 8, 9 का संबंध अग्निचयन से है। इन 9 कांडों के 60 अध्याय किसी समय षटि पथ के नाम से प्रसिद्ध थे। दशम कांड अग्निरहस्य कहलाता है जिसमें अग्निचयन वाले 4 अध्यायों का रहस्य निरूपण है। कांड 6 से 10 तक में शांडिल्य को विशेष रूप से प्रमाण माना गया है। ग्यारहवें कांड का नाम संग्रह है जिसमें पूर्वर्दिष्ट कर्मकांड का संग्रह है। कांड 12, 13, 14 परिशिष्ट कहलाते हैं और उनमें फुटकर विषय हैं। सोलहवें कांड में वे अनेक आध्यात्म विषय हैं जिनके केंद्र में ब्रह्मवादी याज्ञवल्क्य का महान व्यक्तित्व प्रतिष्ठित है। उससे ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य अअपने युग के दार्शनिकों में सबसे तेजस्वी थे। मिथिला के राजा जनक उनको अपना गुरु मानते थे। वहाँ जो ब्रह्मविद्या की परिषद बुलाई गई जिसमें कुरु, पांचाल देश के विद्वान भी सम्मिलित हुए उसमें याज्ञवल्क्य का स्थान सर्वोपरि रहा।