"शिक्षा दर्शन": अवतरणों में अंतर

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[[प्लेटो]] (अफलातून) और [[अरस्तू]] दार्शनिक विचिंतन के समर्थक थे किंतु सांसारिक कर्म की उपेक्षा उन्हें इष्ट नहीं थी। प्लेटो का कहना है, बीस वर्ष की उम्र तक भावी राज्यशासकों को शारीरिक उन्नति, साहित्य, धर्मशास्त्र, पुरातत्व और संगीत की शिक्षा मिलनी चाहिए। बीस से तीस वर्ष तक रेखागणित, अंकगणित, ज्योतिर्गणित आदि का पारदर्शी ज्ञान उन्हें प्राप्त करना है। तीस से पैंतीस वर्ष तक उन्हें गंभीर दार्शनिक ऊहापोह कर प्रत्ययों (Ideas) का और शिवप्रत्यय (आयडिया ऑव दी गुड) का प्रकृष्ट ज्ञान प्राप्त करना है। [[गणित]] और [[दर्शन]] का इतना विशद ज्ञान प्राप्त करने पर भी सिर्फ चिंतन में निरत रहना उनका उद्देश्य नहीं है। दर्शन के उत्तुंग शिखर से उतरकर उन्हें फिर अज्ञानावृत्त संसार में आकर राज्य और समाज की बुराइयों का निराकरण करना है। पैंतीस से पचास वर्ष की अवस्था तक अवश्य ही उन्हें फिर अज्ञानावृत्त संसार में आकर राज्य और समाज की बुराइयों का निराकरण करना है। पैंतीस से पचास वर्ष की अवस्था तक अवश्य ही उन्हें राजकीय कर्मयोग का मार्ग अपनाना है और सामष्टिक कल्याण की सिद्धि करनी है। राजनीतिक दृष्टिकोण, प्लेटो की अपेक्षा अरस्तु में अधिक प्रबल है। मानव को राजनीतिक प्राणी मानकर शिक्षा को सदभ्यासप्राप्ति का वह परम साधन मानता है। विभिन्न नागरिकों में शिक्षा से ही राज्यनिमित्तक शील का विकास संभव है। शिक्षा से मानसिक उन्नयन तथा अवकाश का सदुपयोग होता है, ऐसा अरस्तु ने स्वीकार किया है किंतु प्लेटो के समान तात्विक और दार्शनिक शिक्षा पर उसने ध्यान नहीं दिया है। फिर भी प्लेटो की भाँति अरस्तु भी राज्य का पूरा नियंत्रण शिक्षा पर मानता है।
 
मध्ययुगीन [[यूरोप]] में [[देववाद]] की प्रधानता थी। [[संत अगस्तीन]] ने दिव्य नगर का संदेश दिया और [[टॉमस अक्वायनास]] ने सनातन नियम और नैसर्गिक नियम का उद्घोध किया। मध्ययुग के अंतिम चरण में ऑक्सफोर्ड, कैब्रिज, पेरिस विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई और उनमें भी प्रारंभ में [[धर्ममीमांसा|धर्मशास्त्र]] के अध्ययन का ही महत्व रखा गया था। भारतवर्ष में भी मध्ययुग में [[आदि शंकराचार्य|शंकर]], [[रामानुजाचार्य|रामानुज]], [[निंबार्क]], [[मध्वाचार्य|मध्व]], [[वल्लभाचार्य|वल्लभ]] आदि ने ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का ही संदेश प्रतिपादित किया।
 
मध्ययुग का अंत होने पर [[पुनर्जागरण|यूरोपीय पुनरुत्थान]] आंदोलन से पुनरपि [[प्रकृतिवाद]] और [[मानववाद]] पर बल पड़ा। यदि [[दाँते]] और [[कुसा के निकोलास]] दैवी विचिंतन और आध्यात्मिक संध्वनि के संदेशवाहक थे तो इरेसमस, मोर और मोंटेन ने "मनुष्य" पर ध्यान आकृष्ट किया। केपलर, गेलिलियो और न्यूटन ने भौतिकी के विकास कर क्रांतिकारी वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया। बेकन, डेकार्ट और लायब्नित्स ने ज्ञान को शक्तिप्रद माना। लॉक ने सदभ्यास के द्वारा चारित्रिक उत्थान पर बल दिया तथापि उसने शिक्षा में अभिजाततंत्री दृष्टिकोण समर्थित किया, यद्यपि वह राजनीतिक विचारों में नैसर्गिक अधिकारवाद का पोषक था। [[रूसो]] ने [[पूँजीवाद]], [[सभ्यता]] और [[बुद्धिवाद]] का खंडन कर प्रकृतिवाद और शिशुशिक्षा का पोषण किया किंतु उसका ग्रंथ "[[एमिल]]" दार्शनिक शिक्षा के पश्नप्रश्न पर बिलकुल मौन है। [[मनोविज्ञान]] का महत्व स्वीकार कर [[पेष्टालॉज़ी]] ने शिशुओं के पूर्ण विकास को गौरव दिया। स्वत:प्रेरित विकास और निजाभिव्यक्ति को मूलोद्देश्य मानकर [[फ्रोबेल]] ने बालोद्यान ([[किंडरगार्टन]]) पद्धति का सूत्रपति किया।
 
[[हेगेल]] शिक्षा का आध्यात्मिक प्रयोजन स्वीकार करता था। शिक्षा का नियंत्रण वह राज्य के हाथ में न देकर नागरिक समाज को सुपुर्द करता था। तथापि उसने स्वतंत्रता पर बल नहीं दिया। हेगेल के अध्यात्मवादी दृष्टिकोण को अपनाकर शिक्षा को व्यक्तित्व के चैतन्य का अभिप्रकाशन जेंटीले (Gentile) ने माना है। समस्त विषयों का अध्यापन आध्यात्मिक उन्मेष के लिये ही वह अभीष्ट मानता है। प्रकृतिवादी और व्यवहारवादी [[जॉन डिवी]] शिक्षा और जीवन का अत्यंत निकट संबंध मानता है। ईश्वरवाद, आत्मवाद या अनुशासन को लोगों पर लादना उसे पसंद नहीं है। शिक्षा की प्रक्रिया को वह इतना आकर्षक और वृत्तियों को तन्निष्ठ करानेवाला बनाना चाहता है कि भयोत्पादक बाह्य अनुशासन लादना न पड़े। शिक्षा और लोकतंत्र में गहरा संबंध मानकर सामाजिकताप्राप्ति पर उसने जोर दिया है। [[ह्वायटहेड]] (Whitehead) शिक्षा के द्वारा सतत जागरूकता, सर्जनात्मकता, जीवनोत्साह, ओजस्विता आदि का संचार करना चाहता है। [[बट्रेंड रसल]] के अनुसार शिक्षा तथ्यसंग्रह न होकर ऐसी प्रक्रिया है जिससे मानव, समाज और जगत् में अपना वास्तविक स्थान समझ सके। [[राज्य]] और [[चर्च]] के आधिपत्य और पुछल्ले से शिक्षा विनिर्मुक्त रहनी चाहिए। शिक्षा में स्वातंत्र्य और वैज्ञानिक दृष्टिबिंदु का समर्थन रसल की बड़ी विशेषता है।
 
संश्लिष्ट एवं पूर्ण शिक्षा (Integral and complete education) वही कही जा सकती है जो सदस्यों के अन्नमय कोष को तृप्त और बौद्धिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक आदर्शों का अभिज्ञापन भी करा सके। समस्त व्यापारों का मूलाधार शरीर है अत: इसकी मजबूती परमावश्यक है। पहलवानी या दंगलीपन कुछ व्यक्तियेंव्यक्तियों के लिये ही ठीक है किंतु समस्त नागरिकों का शरीर अवश्य ही कष्टसहिष्णु वनबन सके, ऐसी शिक्षा आवश्यक है। मानववादी साहित्य और [[ललित कला]] की शिक्षा अधिक लोगों को मिलनी चाहिए। इससे [[बर्बरता]] का नाश और भावनाओं का संशोधन होता है। [[साहित्य]] का प्रयोजन वासनाओं का विलास नहीं किंतु स्वस्थ आनंद की सृष्टि और चारित्रिक उन्नयन है। वैयक्तिक और सामाजिक जीवन नैतिकता के बिना नहीं चल सकता। अत: [[नैतिक शिक्षा]] प्रारंभिक अवस्था से ही मिलनी चाहिए और इस कार्य में धर्मग्रथों के चुने हुए स्थलों का शिक्षण होना चाहिए। वर्तमान सभ्यता वैज्ञानिक और यांत्रिक है और आज कोई भी राष्ट्र [[उद्योग]] और [[विज्ञान]] की उपेक्षा कर न तो नागरिकों के जीवनस्तर को उठा सकता है और न अपनी सत्ता ही कायम कर सकता है। [[डार्विन]], [[हक्सले]], [[स्पेंसर]] आदि ने भी वैज्ञानिक शिक्षा का पक्ष ग्रहण किया था। एक अंश तक आरंभिक विज्ञान की शिक्षा समस्त नागरिकों को मिलनी चाहिए और कुछ नागरिक इसे प्रमुख व्यवसाय बनाकर इसमें परम वैशारद्य प्राप्त करें। बुद्धि की उन्मुक्ति सतत जागरूकता के द्वारा व्यक्त होती है अत: विश्वप्रवाह की नानामुख अभिव्यक्तियों के विषय में जिज्ञासापूर्ण कुतूहल सर्वदा संवर्धित रखना शिक्षित मानव का लक्ष्य है। किंतु कुछ नागरिक इतने से ही संतुष्ट न हो, निखिल देश और मानवता की सेवा में अपने स्वार्थ का विसर्जन ही शिक्षा का अंतिम उद्देश्य मानेंगे। मनुष्य एक सावयव इकाई है अत: शरीर, मन, बुद्धि, चरित्र, हृदय और आत्मा इन सभी की पूर्णता परमाभिप्रेत है। जीविकाप्राप्ति और समाज के साथ सामंजस्य, तथा भद्र व्यक्तित्व की शिक्षा की इयत्ता नहीं बताते। मानव का सर्वविध विनिर्मुक्त विकास और पूर्णताप्राप्ति ही समग्र शिक्षा का उद्देश्य है।
 
== प्राचीन भारतीय शिक्षा दर्शन ==