"जगन्नाथदास रत्नाकर": अवतरणों में अंतर

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इनका जन्म सं. 1923 (सन्‌ 1866 ई.) के भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेंदु बावू हरिश्चंद्र]] की भी यही जन्मतिथि थी और वे रत्नाकर जी से 16 वर्ष बड़े थे। उनके पिता का नाम पुरुषोत्तमदास और पितामह का नाम संगमलाल अग्रवाल था जो [[काशी]] के धनीमानी व्यक्ति थे। रत्नाकर जी की प्रारंभिक शिक्षा [[फारसी]] में हुई। उसके पश्चात्‌ इन्होंने 12 वर्ष की अवस्था में [[अंग्रेजी]] पढ़ना प्रारंभ किया और यह प्रतिभाशाली विद्यार्थी सिद्ध हुए। सन 1888 ई. में इन्होंने करना चाहा था, पर पारिवारिक परिस्थितिवश न कर पाए। ये पहले 'ज़की' उपमान से [[फारसी]] में रचना करते थे। इनके [[हिंदी]] काव्यगुरु [[सरदार कवि]] थे। ये [[मथुरा]] के प्रसिद्ध कवि 'नवनीत' चतुर्वेदी से भी बड़े प्रभावित हुए थे।
 
रत्नाकर जी ने अपनी आजीविका के हेतु 30-32 वर्ष की अवस्था में जरदेजी का काम आरंभ किया था। उसके उपरांत ये [[आवागढ़ रियासत]] में कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेंदु जी]] के संपर्क और काशी की कविगोष्ठियों के प्रभाव से इन्होंने 1889 ई. में [[ब्रजभाषा]] में रचना करना आरंभ किया। रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति 'हिंडोला' सन्‌ 1894 ई. में प्रकाशित हुई। सन्‌ 1893 में 'साहित्य सुधा निधि' नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया तथा अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया जिनमें [[दूलह कवि]] कृत कंठाभरण, कृपारामकृत 'हिततरंगिणी', चंद्रशेखरकृत 'नखशिख' हैं। [[नागरीप्रचारिणी सभा]] के कार्यों में रत्नाकर जी का पूरा सहयोग रहता था। सन्‌ 1897 में रत्नाकर जी ने 'घनाक्षरी नियम रत्नाकर' प्रकाशित कराया और 1898 में 'समालोचनादर्श' ([[अलेक्ज़ंडर पोप|पोप]] के 'एस्से ऑन क्रिटिसिज्म' का अनुवाद) प्रकाशित हुआ।
 
सन्‌ 1902 के उपरांत ये [[अयोध्या]]नरेश राजा प्रतापनारायण सिहसिंह के यहाँ प्राइवेट सेक्रेटरी (निजी सचिव) के रूप में काम करते रहे और अंतिम समय तक इनका संबंध अयोध्या दरबार से रहा। इस बीच इन्होंने 'बिहारी रत्नाकर' नाम से [[बिहारी सतसई]] का संपादन किया। 14 मई सन्‌ 1921 ई. से [[अयोध्या]] की महारानी की प्रेरणा से इन्होंने '[[गंगावतरण]]' काव्य की रचना प्रारंभ की, जो सन्‌ 1923 में समाप्त हुई। इसी समय 'उद्धवशतक' का भी रचनाकार्य चलता रहा। [[हरिद्वार]] यात्रा में एक बार इनकी पेटी खो गई जिससे 'उद्धव शतक' के सौ सवा सौ छंद चोरी चले गए। पर रत्नाकर जी ने अपनी स्मृति से उन्हें फिर लिख डाला। '[[उद्धव शतक]]' इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। ये सन्‌ 1926 में औरियंटल कांफरेंस के हिंदी विभाग के सभापति हुए और सन्‌ 1930 में [[हिंदी साहित्य सम्मेलन]] के बीसवें अधिवेशन के सभापति चुने गए। इस अधिवेशन का सभापतित्व इन्होंने राजसी ठाटबाट के साथ किया। सन्‌ 1932 ई. की 21 जून को इनका अचानक स्वर्गवास हो गया।
 
रत्नाकर जी केवल कवि ही नहीं थे, वरन्‌ वे अनेक भाषाओं ([[संस्कृत]], [[प्राकृत]], [[फारसी]], [[उर्दू]], [[अंग्रेजी]]) के ज्ञाता तथा विद्वान्‌ भी थे। उनकी कविप्रतिभा जैसी आश्चर्यकारी थी, वैसी ही किसी [[छंद]] की व्याख्या करने की क्षमता भी विलक्षण थी। अनेक विद्वानों ने रत्नाकर जी की टीकाओं की प्रशंसा की है।
 
रत्नाकर जी का ब्रजभाषा पर अद्भुत अधिकार था और उनकी प्रसिद्ध ब्रजभाषा रचनाओं में सुंदर प्रयोगों एवं ठेठ शब्दावली का व्यवहार हुआ है। रत्नाकर जी स्वच्छ कल्पना के कवि हैं। उसके द्वारा प्रस्तुत दृश्यावली सदैव अनुभूति सनी है और संवेदना को जाग्रत करनेवाली है।