"माहेश्वर सूत्र": अवतरणों में अंतर

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उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण (ण् क् ङ् च् आदि) को पाणिनि ने '''इत्''' की संज्ञा दी है। इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।
 
==इन्हें भी देखें==
== नन्दिकेश्वरकाशिका ==
*[[नन्दिकेश्वरकाशिका]]
 
*[[प्रत्याहार]]
नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।
*[[पाणिनि]]
 
*[[अष्टाध्यायी]]
उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।। १।।
 
 
अत्र सर्वत्र सूत्रेषु अन्त्यवर्णचतुर्दशम्।
 
धात्वर्थं समुपादिष्टं पाणिन्यादीष्टसिद्धये।। २।।
 
 
।। अइउण्।। १।।
 
 
अकारो ब्रह्मरूपः स्यान्निर्गुणः सर्ववस्तुषु।
 
चित्कलामिं समाश्रित्य जगद्रूप उणीश्वरः।। ३।।
 
 
अकारः सर्ववर्णाग्र्यः प्रकाशः परमेश्वरः।
 
आद्यमन्त्येन संयोगादहमित्येव जायते।। ४।।
 
 
सर्वं परात्मकं पूर्वं ज्ञप्तिमात्रमिदं जगत्।
 
ज्ञप्तेर्बभूव पश्यन्ती मध्यमा वाक ततः स्मृता।। ५।।
 
 
वक्त्रे विशुद्धचक्राख्ये वैखरी सा मता ततः।
 
सृष्ट्याविर्भावमासाद्य मध्यमा वाक समा मता।। ६।।
 
 
अकारं सन्निधीकृत्य जगतां कारणत्वतः।
 
इकारः सर्ववर्णानां शक्तित्वात् कारणं गतम्।। ७।।
 
 
जगत् स्रष्टुमभूदिच्छा यदा ह्यासीत्तदाऽभवत्।
 
कामबीजमिति प्राहुर्मुनयो वेदपारगाः।। ८।।
 
 
अकारो ज्ञप्तिमात्रं स्यादिकारश्चित्कला मता।
 
उकारो विष्णुरित्याहुर्व्यापकत्वान्महेश्वरः।। ९।।
 
 
।। ऋऌक्।। २।।
 
 
ऋऌक् सर्वेश्वरो मायां मनोवृत्तिमदर्शयत्।
 
तामेव वृत्तिमाश्रित्य जगद्रूपमजीजनत्।। १०।।
 
 
वृत्तिवृत्तिमतोरत्र भेदलेशो न विद्यते।
 
चन्द्रचन्द्रिकयोर्यद्वद् यथा वागर्थयोरपि।। ११।।
 
 
स्वेच्छया स्वस्य चिच्छक्तौ विश्वमुन्मीलयत्यसौ।
 
वर्णानां मध्यमं क्लीबमृऌवर्णद्वयं विदुः।। १२।।
 
 
।। एओङ्।। ३।।
 
 
एओङ् मायेश्वरात्मैक्यविज्ञानं सर्ववस्तुषु।
 
साक्षित्वात् सर्वभूतानां स एक इति निश्चितम्।। १३।।
 
 
 
।। ऐऔच्।। ४।।
 
 
ऐऔच् ब्रह्मस्वरूपः सन् जगत् स्वान्तर्गतं ततः।
 
इच्छया विस्तरं कर्त्तुमाविरासीन्महामुनिः।। १४।।
 
 
।। हयवरट्।। ५।।
 
 
भूतपञ्चकमेतस्माद्धयवरण्महेश्वरात्।
 
व्योमवाय्वम्बुवह्न्याख्यभूतान्यासीत् स एव हि।। १५।।
 
 
हकाराद् व्योमसंज्ञं च यकाराद्वायुरुच्यते।
 
रकाराद्वह्निस्तोयं तु वकारादिति सैव वाक्।। १६।।
 
 
।। लण्।। ६।।
 
 
आधारभूतं भूतानामन्नादीनां च कारणम्।
 
अन्नाद्रेतस्ततो जीवः कारणत्वाल्लणीरितम्।। १७।।
 
 
।। ञमङणनम्।। ७।।
 
 
शब्दस्पर्शौ रूपरसगन्धाश्च ञमङणनम्।
 
व्योमादीनां गुणा ह्येते जानीयात् सर्ववस्तुषु।। १८।।
 
 
 
।। झभञ्।। ८।।
 
 
वाक्पाणी च झभञासीद्विराड्रूपचिदात्मनः।
 
सर्वजन्तुषु विज्ञेयं स्थावरादौ न विद्यते।।
 
वर्गाणां तुर्यवर्णा ये कर्मेन्द्रियमया हि ते।। १९।।
 
 
।। घढधष्।। ९।।
 
 
घढधष् सर्वभूतानां पादपायू उपस्थकः।
 
कर्मेन्द्रियगणा ह्येते जाता हि परमार्थतः।। २०।।
 
 
।। जबगडदश्।। १०।।
 
 
श्रोत्रत्वङ्नयनघ्राणजिह्वाधीन्द्रियपञ्चकम्।
 
सर्वेषामपि जन्तूनामीरितं जबगडदश्।। २१।।
 
 
।। खफछठथचटतव्।। ११।।
 
 
प्राणादिपञ्चकं चैव मनो बुद्धिरहङ्कृतिः।
 
बभूव कारणत्वेन खफछठथचटतव्।। २२।।
 
 
 
वर्गद्वितीयवर्णोत्थाः प्राणाद्याः पञ्च वायवः।
 
मध्यवर्गत्रयाज्जाता अन्तःकरणवृत्तयः।। २३।।
 
 
।। कपय्।। १२।।
 
 
प्रकृतिं पुरुषञ्चैव सर्वेषामेव सम्मतम्।
 
सम्भूतमिति विज्ञेयं कपय् स्यादिति निश्चितम्।। २४।।
 
 
।। शषसर्।। १३।।
 
 
सत्त्वं रजस्तम इति गुणानां त्रितयं पुरा।
 
समाश्रित्य महादेवः शषसर् क्रीडति प्रभुः।। २५।।
 
 
शकारद्राजसोद्भूतिः षकारात्तामसोद्भवः।
 
सकारात्सत्त्वसम्भूतिरिति त्रिगुणसम्भवः।। २६।।
 
 
।। हल्।। १४।।
 
 
तत्त्वातीतः परं साक्षी सर्वानुग्रहविग्रहः।
 
अहमात्मा परो हल् स्यामिति शम्भुस्तिरोदधे।। २७।।
 
 
।। इति नन्दिकेश्वरकृता काशिका समाप्ता।।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==