"नाट्य शास्त्र": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
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नाट्यशास्त्र का रचनाकाल, निर्माणशैली तथा बहि: साक्ष्य के आधार पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के लगभग स्थिर किया जा सकता है।
==भरतमुनि का नाट्यशास्त्र==
इस ग्रंथ में [[प्रत्यभिज्ञा दर्शन]] की छाप है। प्रत्यभिज्ञा दर्शन में स्वीकृत ३६ मूल तत्वों के प्रतीक स्वरूप नाट्यशास्त्र में ३६ अध्याय हैं। पहले अध्याय में नाट्योत्पत्ति, दूसरे में मंडपविधान देने के पश्चात् अगले तीन अध्यायों में नाट्यारंभ से पूर्व की प्रक्रिया का विधान वर्णित है। छठे और सातवें अध्याय में रसों और भावों का व्याख्यान है, जो भारतीय काव्यशास्त्र में व्याप्त रससिद्धांत की आधारशिला है। आठवें और नवें अध्याय में उपांग एवं अंगों द्वारा प्रकल्पित अभिनय के स्वरूप की व्याख्या कर अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है। अगले चार अध्यायों में गति और करणों का उपन्यास किया है। अगले चार अध्यायों में छंद और अलंकारों का स्वरूप तथा स्वरविधान बतालाया है। नाट्य के भेद तथा कलेवर का सांगोपांग विवरण १८वें और १९वें अध्याय में देकर २०वें वृत्ति विवेचन किया है। तत्पश्चात् २९वें अध्याय में विविध प्रकार के अभिनयों की विशेषताएँ दी गई हैं। २९ से ३४ अध्याय तक गीत वाद्य का विवरण देकर ३५वें अध्याय में भूमिविकल्प की व्याख्या की है। अंतिम अध्याय उपसंहारात्मक है।
यह ग्रंथ मुख्यत: दो पाठांतरों में उपलब्ध है १. औत्तरीय पाठ और २. दाक्षिणात्य। पांडुलिपियों में एक और ३७वाँ अध्याय भी क्वचित् उपलब्ध होता है जिसका समावेश निर्णयसागरी संस्करण में संपादक ने किया है। इसके अतिरिक्त मूल मात्र ग्रंथ का प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज, वाराणसी से भी हुआ है जिसका पाठ निर्णयसागरी पाठ से भिन्न है। अभिनव भारती टीका सहित नाट्यशास्त्र का संस्करण गायकवाड सीरीज़ के अंतर्गत बड़ौदा से क्रमश: प्रकाश्यमान है।
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