''संवर '' कर्म शय करने की ओर पहला कदम हैं। संसार सागर समान हैं और जीव [[आत्मा]] नाव के समान हैं जो इस सागर को पार करना चाहती हैं। इस नाव में छेद के कारण कर्म रूपी पानी का अस्राव होता रहता हैं। उस छेद को बंद करना संवर हैं।<ref>{{साँचा:Cite book|last = Sanghvi|first = Sukhlal|title = Commentary on Tattvārthasūtra of Vācaka Umāsvāti|publisher = L. D. Institute of Indology|year = 1974|location = Ahmedabad|language = |others = trans. by K. K. Dixit}} p.320</ref></div> संवर के पश्चात् कर्मों की [[निर्जरा]] होती हैं।