"याज्ञवल्क्य": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Goddess Sarasvati appears before Yajnavalkya.jpg|right|thumb|300px|भगवती सरस्वती याज्ञवल्क्य के सम्मुख प्रकट हुईं]]
[[चित्र:Yajnavalkya and Janaka.jpg|right|thumb|300px|राजा जनक को ब्रह्मविद्या की शिक्षा देते हुए ऋषि याज्ञवक्य]]
'''याज्ञवल्क्य''' (ईसापूर्व ७वीं शताब्दी)<ref>H. C. Raychaudhuri (1972),
याज्ञवल्क्य का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य [[शतपथ ब्राह्मण]] की रचना है - [[बृहदारण्यक उपनिषद]] जो बहुत महत्वपूर्ण उपनिषद है, इसी का भाग
==व्यक्ति और काल ==
अनेक संस्कृत प्रंथों से कई याज्ञवल्क्यों का विवरण मिलता है -
#वशिष्ठ कुल के गोत्रकार जिनको याज्ञदत्त नाम भी दिया जाता है ([[मत्स्य पुराण]], २००.६)
#एक आचार्य जो व्यास की ऋक् परंपरा में से वाष्कल नामक ऋषि के शिष्य । ([[वायु पुराण]], ६०.१२.१५)
#[[विष्णुपुराण]] में इन्हें ब्रह्मरात का पुत्र और वैशंपायन का शिष्य कहा गया है । (३.५.२)
सबसे संरंक्षित जो विवरण मिलता है वो शतपथ ब्राह्मण से मिलता है । ये [[उद्दालक आरुणि]] नामक आचार्य के शिष्य थे । यहाँ पर उनको वाजसनेय भी कहा गया है । ▼
▲सबसे संरंक्षित जो विवरण मिलता है वो शतपथ ब्राह्मण से मिलता है । ये उद्दालक आरुणि नामक आचार्य के शिष्य थे । यहाँ पर उनको वाजसनेय भी कहा गया है ।
==रचनाएँ और संकलन==
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बृहदारणयकोपनिषद में याज्ञवल्क्य का यह सिद्धांत प्रतिपादित है कि ब्रह्म ही सर्वोपरि तत्व है और अमृत्व उस अक्षर ब्रह्म का स्वरूप है। इस विद्या का उपदेश याज्ञवल्क्य ने अपनी मैत्रेयी नामक प्रज्ञाशालिनी पत्नी को दिया था। शरीर त्यागने पर आत्मा की गति की व्याख्या याज्ञवल्क्य ने जनक से की। यह भी वृहदारझयकोपनिषद का विषय है। जनक के उस बहुदक्षिण यज्ञ में एक सहस्र गौओं की दक्षिणा नियत थी जो ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य ने प्राप्त की। शांतिपर्व के मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक (इनका नाम दैवराति है) का अव्यय अक्षर ब्रह्तत्व के विषय में एक महत्वपूर्ण संवाद सुरक्षित है (अ. 198-306, पूना संस्करण)। उसमें नित्य अभयात्मक गुह्य अक्षरतत्व था वेदप्रतिपाद्य ब्रह्मतत्व का अत्यंत स्पष्ट और सुदर विवेचन है। उसके अंत में याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा-हे राजन्, क्षेत्रज्ञ को जानकर तुम इस ज्ञान की उपासना करोगे तो तुम भी ऋर्षि हो जाओगे। कर्मपरक यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान ही श्रेष्ठ है (ज्ञानं विशिष्टं न तथाहि यज्ञा:, ज्ञानेन दुर्ग तरते न यज्ञै:, शांति. 306। 105)।
याज्ञवल्क्य के गुरु आचार्य [[वैशंपायन]] थे जिनसे वैदिक विषय में उनका भारी मतभेद हो गया था। [[भागवत]] और [[विष्णु पुराण]] के अनुसार याज्ञवल्क्य ने सूर्य की उपासना की थी और सूर्यऋयी विद्या एवं प्रणावत्मक अक्षर तत्व इन दोनों की एकता यही उनके दर्शन का मूल सूत्र था। विराट् विश्व में जो सहस्रात्मक सूर्य है उसी महान आदित्य की एक कला या अक्षर प्रणव रूप से मानव के कंद्र की संचालक गतिशक्ति है। याज्ञवल्क्य का यह अध्यात्म दर्शन अति महत्वपूर्ण है। एक व्यक्तित्व का पाजुष यज्ञ सदा विराट यज्ञ के साथ मिला रहता है। इससे मानव भी अमृत का ही एक अंश है। यही याज्ञवल्क्य का अयातयाम अर्थात् कभी बासी न पड़नेवाला ज्ञान है। भागवत के अनुसार याज्ञवल्क्य ने [[शुक्ल यजुर्वेद]] की 15 शाखाओं को जन्म दिया, जो वाजसनेय शाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। वे ही उनके शिष्यों द्वारा काणव, माध्यंदिनीय आदि शखाओं के रूप में पसिद्ध हुई (भा.
याज्ञवल्क्य ब्रह्मणकालीन प्राचीन आचार्य थे जो [[वैशंपायन]], [[शाकटायन]] आदि की परंपरा में हुए और [[कात्यायन]] ने एक [[वार्तिक]] में उन ऋर्षियों को तुल्यकाल या समकालीन कहा है। (सूत्र
===याज्ञवल्क्य स्मृति ===
एक दृष्टि से '''[[याज्ञवल्क्य स्मृति]]''' प्रसिद्ध है। इस स्मृति में 1003 श्लोक हैं। इसपर विश्वरूप कृत बालक्रीड़ा (800-825), अपरार्क कृत याज्ञवल्कीय धर्मशास्त्र निबंध (12वीं शती) और विज्ञानेश्वर कृत मिताक्ष्रा (1070-1100) टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। कारणे का मत है कि इसकी रचना लगभग विक्रम पूर्व पहली शती से लेकर तीसरी शती के बीच में हुई। स्मृति के अंत:साक्ष्य इसमें प्रमाण है। इस स्मृति का संबंध शुक्ल यजुर्वेद की परंपरा से ही था। जैसे मानव धर्मशास्त्र की रचना प्राचीन धर्मसूत्र युग की सामगीं से हुई, ऐसे ही याज्ञवल्क्य स्मृति में भी प्राचीन सामग्री का उपयोग करते हुए सामग्री को भी स्थान दिया गया। कौटिल्य अर्थशास्त्र की सामग्री से भी याक्ज्ञवल्क्य के अर्थशास्त्र का विशेष साम्य पया जाता है। इसमें तीन कांड हैं आचार, व्यवहार और प्रायश्चित। इसकी विषय-निरूपण-पद्धति अत्यंत सुग्रथित है। इसपर विरचित मिताक्षरा टीका हिंदू धर्मशास्त्र के विषय में भारतीय न्यायालयों में प्रमाण मानी जाती रही है।
==सन्दर्भ==
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== इन्हें भी देखें==
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