"कार्बनिक यौगिक": अवतरणों में अंतर
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अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) |
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कार्बनिक रसायन के क्षेत्र में संश्लेषित यौगिकों का बड़ा सफल प्रयोग औषधियों के रूप में हुआ। वृक्ष और वनस्पतियों से प्राप्त ओषधियाँ वस्तुत: कार्बनिक ही हैं। इन औषधियों के सक्रिय अवयवों की रसायनज्ञों ने परीक्षा की। इनकी रासायनिक संरचना जानने के अनंतर उन्होंने इनका संश्लेषण किया और फिर इनके व्युत्पन्नों की ओषधि की दृष्टि से परीक्षा की। हम केवल कुछ ऐतिहासिक संश्लेषणों का यहाँ उल्लेख करेंगे।
===पूतिनाशक' (antisepic)===
काष्ठ, सेलुलोस आदि से बने पदार्थों को यदि कीटाणुओं ओर फफूँदियों स बचाना हे, तो सैलिसित ऐनिलाइड (व्यापारिक नाम शिरलान (Shirlan)) का उपयोग करें, अथवा धातु साबुनों का उपयोग करें, जैसे जिंग नैफ्थीनेट और पारद के यौगिक, पेंटाक्लोराफ़ीनोल, डाइक्लोरोफीन [डी डी डी एम (DDDM) या डी डी एम (DDM): डाइहाइड्रॉक्सि डाइक्लोरो-डाइफेनिल मीथेन] आदि
ईथर नामक द्रव का निश्चेतक के रूप में पहली बार प्रयोग हुआ और इसने प्रसव और शल्यकर्म दोनों में बड़ी सहायता दी। ईथर का क्वथनांक कम, अर्थात् ३५°सें. है। यह इसका अवगुण हैं। १९५३ ई. में ट्राइफ्लोरो एथिल विनिल ईथर, CF<sub>3</sub>. CH<sub>2</sub>. OCH=CH<sub>2</sub>, को ईथर से कहीं अधिक श्रेष्ठ पाया गया। [[क्लोरोफ़ार्म]], (CHCl<sub>3</sub>), एथिलक्लोराइड (CH<sub>3</sub>CH<sub>2</sub>Cl) और साइक्लोप्रोपेन, [(CH<sub>2</sub>)<sub>3</sub>], तो प्रसिद्ध है ही। सामानय निश्चेतना या मूर्च्छा पैदा करने की अपेक्षा स्थानिक निश्चेतना साधारण शल्यकर्म में बड़ी उपयोगी हैं। १८८४ ई. में कोलर (Koller) और फ्रॉयड (Freud) ने कोकेन का इस दृष्टि से प्रयोग किया। यह देखा गया कि पेराऐमिनो बेन्ज़ोइक अम्ल के व्युत्पन्न अच्छे स्थानिक निश्चेतक हैं। वेन्ज़ोकेन, ओकेन (नोवोकेन), एमीथोकेन आदि इसी वर्ग के यौगिक हैं।
===निद्राकारी===
इसका द्वि ऐमिल व्युत्पंन वार्विटोन नाम से विख्यात है और एथिल फेनिल व्युत्पन्न फीनोवार्विटोन (ल्यूमिनाल) नाम से। कोडीन, मॉर्फीन आदि ऐल्कैलायड भी निद्राकारी हैं, जो अफीम से निकाले जाते हैं। मॉर्फीन से पीड़ा की अनुभूति कम हो जाती है और कोडोन शमनकारी है।
===[[तंत्रोत्तेजक]]===
===[[ज्वरनाशी]] और [[वेदनानाशी]]===
===सल्फोनैमाइड और सल्फोन===
एफीड्रिन (ephedrine), [C6H<sub>5</sub>. CH(OH). CH(NHCH<sub>3</sub>). CH<sub>3</sub>] और ऐड्रिनैलिन (adrenaline), [(OH)<sub>2</sub> C6H<sub>4</sub>-CH (OH) CH<sub>2</sub>. NH. CH<sub>3</sub>], का उपयोग भी तंत्रोत्तेजना के सल्फा पिरिडिन, (M & B 693) नाम से विख्यात है। पिरिमिडिन व्युत्पन्न भी (जैसे सल्फडाइऐज़ीन) बड़े गुणकारी सिद्ध हुए हैं।
===[[मलेरिया]]नाशी===
[[द्वितीय महायुद्ध]] में
===एंटिबायोटिक===
'''पेनिसिलिन-जी''' में, (R=C6H<sub>5</sub> CH<sub>2</sub>), बेन्जिल मूलक है। दूसरे मूलक भी प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं। भूमि, या मिट्टी के भीतर पाए जानेवाले अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं का परीक्षण किया गया। सबसे पहली बार १९३९ ई. में ड्यूबॉस (Dubos) को सफलता मिली और उसने वैसिलस ब्रेविस (Bacillus brevis) नामक जीवाणु में से ग्रैमिसिडिन (Gramicidin) नामक पदार्थ प्राप्त किया जो पॉलिपेप्टाइडों का मिश्रण था। १९४४ ई. में स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ग्रिसियस (Streptomyces griseus) नाम जीवाणु का पता चला, जो राजयक्ष्मा के प्रति भी क्रियाशील था। १९४७ ई. में वेनिज़्वीला में एक जीवाणु का पता चला, जिससे क्लोरैफेनिकोल (Chloramphenicol) नाक यौगिक प्राप्त किय गया। इस प्रकार ऐसे एेंटिबायोटिक द्रव्य का पता चला जो अनेक रोगों में अकेले ही का आ सकता था। इन सब अध्ययनों के फलस्वरूप क्लोरोमाइसेटिन का संश्लेषण किया गया। प्रोफेसर डुग्गर (Duggar) ने उस जीवाणु का पता चलाया जो एक सुनहरे रंग का पदार्थ भी देता था और जिसका नाम स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ऑरिओफेसियन्स (Streptomyces aureofaciens) था। इस जीवाणु से जो पदार्थ मिला उसे आरिओमाइसीन (Aureomycin) नाम से प्रयोग में लाया गया। १९४९ ई. में नेओमाइसीन (Neomycin) की खोज वैक्समैन और लेकेवेलियर (Waksman and Lechevalier) ने की। टेरामाइसीन (Terramycin) का आविष्कार बाद में फिजर समुदाय की प्रयोगशालाओं में हुआ। इस प्रकार पेनिसिलिन यग का आरंभ हुआ।
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