"कार्बनिक यौगिक": अवतरणों में अंतर

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कार्बनिक रसायन के क्षेत्र में संश्लेषित यौगिकों का बड़ा सफल प्रयोग औषधियों के रूप में हुआ। वृक्ष और वनस्पतियों से प्राप्त ओषधियाँ वस्तुत: कार्बनिक ही हैं। इन औषधियों के सक्रिय अवयवों की रसायनज्ञों ने परीक्षा की। इनकी रासायनिक संरचना जानने के अनंतर उन्होंने इनका संश्लेषण किया और फिर इनके व्युत्पन्नों की ओषधि की दृष्टि से परीक्षा की। हम केवल कुछ ऐतिहासिक संश्लेषणों का यहाँ उल्लेख करेंगे।
 
===पूतिनाशक' (antisepic)===
(क) '''पूतिनाशक''' (antisepic) - १८६७ ई. में लिस्टर (Lister) ने फीनोल में पूतिनाशक, या रोगाणुनाशक, गुण देखे। शौचालयों में "[[फिनायल]]' का, जिसमें कोलतार से प्राप्त अवयवों का मिश्रण है, जैसे क्रिसोल, क्रेसिलिक अम्ल, क्रिओसोट, क्लोरोज़ाइलीनोल इत्यादि, आज तक उपयोग किया जाता है। डेटोल (Dettol) में, जिसका इतना प्रचार है, क्लोरोजाइलीनोल, टर्पिनिओल, एल्कोहॉल और थोड़ा [[अरंडी के तेल]] का साबुन है। डी सी एम एक्स (DCMX) नाम से डाइक्लोरो-ज़ाइलीनोल का उपयोग १९५२ ई. से बहुत होने लगा है। कुछ रंगों का उपयोग भी चिकित्सा में पूतिनाशकों के रूप में होता है, जैसे जेनशियम वॉयलेट (क्रिस्टल वायलेट), ब्रिलिएंट ग्रीन, मेलेकाइट ग्रीन आदि, जो ट्राइफीनिल मेथेन वर्ग के रंग हैं।
 
काष्ठ, सेलुलोस आदि से बने पदार्थों को यदि कीटाणुओं ओर फफूँदियों स बचाना हे, तो सैलिसित ऐनिलाइड (व्यापारिक नाम शिरलान (Shirlan)) का उपयोग करें, अथवा धातु साबुनों का उपयोग करें, जैसे जिंग नैफ्थीनेट और पारद के यौगिक, पेंटाक्लोराफ़ीनोल, डाइक्लोरोफीन [डी डी डी एम (DDDM) या डी डी एम (DDM): डाइहाइड्रॉक्सि डाइक्लोरो-डाइफेनिल मीथेन] आदि
 
(ख) '''===सामान्य और स्थानिक निश्चेतक, या मूर्च्छोत्पादी''' - ===
ईथर नामक द्रव का निश्चेतक के रूप में पहली बार प्रयोग हुआ और इसने प्रसव और शल्यकर्म दोनों में बड़ी सहायता दी। ईथर का क्वथनांक कम, अर्थात्‌ ३५°सें. है। यह इसका अवगुण हैं। १९५३ ई. में ट्राइफ्लोरो एथिल विनिल ईथर, CF<sub>3</sub>. CH<sub>2</sub>. OCH=CH<sub>2</sub>, को ईथर से कहीं अधिक श्रेष्ठ पाया गया। [[क्लोरोफ़ार्म]], (CHCl<sub>3</sub>), एथिलक्लोराइड (CH<sub>3</sub>CH<sub>2</sub>Cl) और साइक्लोप्रोपेन, [(CH<sub>2</sub>)<sub>3</sub>], तो प्रसिद्ध है ही।
 
सामानय निश्चेतना या मूर्च्छा पैदा करने की अपेक्षा स्थानिक निश्चेतना साधारण शल्यकर्म में बड़ी उपयोगी हैं। १८८४ ई. में कोलर (Koller) और फ्रॉयड (Freud) ने कोकेन का इस दृष्टि से प्रयोग किया। यह देखा गया कि पेराऐमिनो बेन्ज़ोइक अम्ल के व्युत्पन्न अच्छे स्थानिक निश्चेतक हैं। वेन्ज़ोकेन, ओकेन (नोवोकेन), एमीथोकेन आदि इसी वर्ग के यौगिक हैं।
 
===निद्राकारी===
(ग) '''निद्राकारी''' - रोगी को अधिक कष्ट के समय निद्राकारियों का सेवन कराया जाता है, जिससे रोगी सो जाए। क्लोरलहाइड्रेट, [CCl<sub>3</sub>. CH(OH)<sub>2</sub>], का उपयोग इस कार्य में सबसे पुराना है। क्लोरोक्यूटोल [(CH<sub>3</sub>)<sub>2</sub> C (CCl<sub>3</sub>) OH.] के गुण भी क्लोरल हाइड्रेट के समान ही हैं। सबसे प्रसिद्ध निद्राकारी बार्विट्यूरिक अम्ल के व्युत्पंन हैं (यह अम्ल यूरिया और मैलोनिक अम्ल के संघनन से बनाया जाता है)।
 
इसका द्वि ऐमिल व्युत्पंन वार्विटोन नाम से विख्यात है और एथिल फेनिल व्युत्पन्न फीनोवार्विटोन (ल्यूमिनाल) नाम से। कोडीन, मॉर्फीन आदि ऐल्कैलायड भी निद्राकारी हैं, जो अफीम से निकाले जाते हैं। मॉर्फीन से पीड़ा की अनुभूति कम हो जाती है और कोडोन शमनकारी है।
 
===[[तंत्रोत्तेजक]]===
(घ) '''[[तंत्रोत्तेजकस्नायु|स्नायुओं]]''' - स्नायुओं और [[मस्तिष्क]] की तंत्रिकाओं को उत्तेजन देनेवाली चीजों में चाय, काफी आदि प्रसिद्ध हैं। इनमें कैफीन, ज़ैन्थीन और इनसे मिलते जुलते प्यूरीन (Purine) वर्ग के यौगिक पाए जाते हैं। कोला के बीजों में कैफीन और थिओब्रोमीन होता है। एरगोट (Ergot) वर्ग के ऐल्कैलायडों में पेशियों को उत्तेजित करने का गुण है। ये ऐल्कैलॉइड लिसर्गिक अम्ल (lysergic acid) के व्युत्पन्न हैं। यह अम्ल अब संश्लेषित कर लिया गया है। मस्तिष्क के विकारों के उपचार में इससे सहायता मिलती है।
 
===[[ज्वरनाशी]] और [[वेदनानाशी]]===
(ङ) '''[[ज्वरनाशीज्वर]] और [[वेदनानाशी]]''' - ज्वर से ग्रस्त रोगी के शरीर का ताप जिन ओषधियों से कम हो जाए (ज्वर का कारण चाहे दूर न हो), वे इस वर्ग में आती हैं। कुछ ओषधियाँ केवल वेदना दूर करती हैं। सैलिसिलिक अम्ल, ज्वरहारियों में, सबसे पुराना है। इसका एक ऐसीटिल व्युत्पन्न ऐस्पिरिन है, जो शिर पीड़ा की अनुभूति दूर करने में बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ है। फिनैसीटिन में ज्वर के ताप को कम कर देने के अच्छे गुण हैं। फिनैसिटीन ऐसीटो ऐनिलाइड का व्युत्पन्न है।
 
===सल्फोनैमाइड और सल्फोन===
(च) '''सल्फोनैमाइड और सल्फोन''' - १९३० ई. में यह देखा गया कि प्रोंटोसिल (prontosil) नामक लाल रंग में शाकाणु या वैक्टीरिया के मारने के गुण विद्यमान हैं। बाद को देखा गया कि एक सरल यौगिक सल्फऐनिलैमाइड में भी वैक्टीरिया मारने के गुण हैं। तब से इस वर्ग के सैकड़ों यौगिकों और व्युत्पन्नों की इस दृष्टि से परीक्षा की गई। ये सब यौगिक सल्फोनैमाइड वर्ग के कहे जाते हैं।
 
एफीड्रिन (ephedrine), [C6H<sub>5</sub>. CH(OH). CH(NHCH<sub>3</sub>). CH<sub>3</sub>] और ऐड्रिनैलिन (adrenaline), [(OH)<sub>2</sub> C6H<sub>4</sub>-CH (OH) CH<sub>2</sub>. NH. CH<sub>3</sub>], का उपयोग भी तंत्रोत्तेजना के सल्फा पिरिडिन, (M & B 693) नाम से विख्यात है। पिरिमिडिन व्युत्पन्न भी (जैसे सल्फडाइऐज़ीन) बड़े गुणकारी सिद्ध हुए हैं।
 
===[[मलेरिया]]नाशी===
(छ) '''[[मलेरिया]]नाशी''' - कुछ ओषधियाँ मलेरिया ज्वर दूर करने में बड़ी गुणकारी सिद्ध हुई हैं। सिनकोना की छाल से प्राप्त क्विनीन का नाम तो विख्यात है ही, इसका प्रचार अब भी बहुत है। १९२० ई से इस बात का प्रयत्न जर्मनी में होता रहा कि मलेरिया ज्वर को दूर करने की और भी ओषधियाँ प्राप्त की जाएँ। फलत: पेमाक्विन नामक यौगिक इस बात में सफल पाया गया (१९२४ ई.)। यह प्रथम संश्लेषित मलेरियानाशी था। १९३० ई. में एट्रीबिनश् (मेपाकिन और क्विनाक्रिन) भी अच्छे पाए गए। पेमाक्विन क्विनोलिन वर्ग का यौगिक है और मेपाक्रिन पीला एक्रिडिन रंग है।
 
[[द्वितीय महायुद्ध]] में ज़िनजिन मलेरियानाशियों पर अमरीका में विशेष अनुसंधान हुए, उनमें [[प्रिमाक्विन]] और [[क्लोरोक्विन]] विशेष महत्व के पाए गए। पैलूड्रिन (Paludrine) प्रोग्वानिल हाइड्रोक्लोराइड का व्यापारी नाम है, यह भी मलेरिया रोग में काम आता है।
 
===एंटिबायोटिक===
(ज) '''एंटिबायोटिक''' - १९२८ ई. में सर ऐलेग्जेंडर फ्लेमिंग (A.Fleming) ने देखा कि कुछ वैक्टीरिया विशेष [[फफूँद|फफूँदियों]] की विद्यमानता में मरने लगते हैं। इसी परंपरा में [[पेनिसिलिन]] का आविष्कार हुआ। १९४६ ई. में पेनिसिलिन के बेन्ज़िल व्युत्पंन (पेनिसिलिन-g) का संश्लेषण भी कर लिया गया। इसकी रासायनिक संरचना निम्न है:
 
'''पेनिसिलिन-जी''' में, (R=C6H<sub>5</sub> CH<sub>2</sub>), बेन्जिल मूलक है। दूसरे मूलक भी प्रतिस्थापित किए जा सकते हैं। भूमि, या मिट्टी के भीतर पाए जानेवाले अनेक सूक्ष्म जीवाणुओं का परीक्षण किया गया। सबसे पहली बार १९३९ ई. में ड्यूबॉस (Dubos) को सफलता मिली और उसने वैसिलस ब्रेविस (Bacillus brevis) नामक जीवाणु में से ग्रैमिसिडिन (Gramicidin) नामक पदार्थ प्राप्त किया जो पॉलिपेप्टाइडों का मिश्रण था। १९४४ ई. में स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ग्रिसियस (Streptomyces griseus) नाम जीवाणु का पता चला, जो राजयक्ष्मा के प्रति भी क्रियाशील था। १९४७ ई. में वेनिज़्वीला में एक जीवाणु का पता चला, जिससे क्लोरैफेनिकोल (Chloramphenicol) नाक यौगिक प्राप्त किय गया। इस प्रकार ऐसे एेंटिबायोटिक द्रव्य का पता चला जो अनेक रोगों में अकेले ही का आ सकता था। इन सब अध्ययनों के फलस्वरूप क्लोरोमाइसेटिन का संश्लेषण किया गया। प्रोफेसर डुग्गर (Duggar) ने उस जीवाणु का पता चलाया जो एक सुनहरे रंग का पदार्थ भी देता था और जिसका नाम स्ट्रेप्टोमाइसीज़ ऑरिओफेसियन्स (Streptomyces aureofaciens) था। इस जीवाणु से जो पदार्थ मिला उसे आरिओमाइसीन (Aureomycin) नाम से प्रयोग में लाया गया। १९४९ ई. में नेओमाइसीन (Neomycin) की खोज वैक्समैन और लेकेवेलियर (Waksman and Lechevalier) ने की। टेरामाइसीन (Terramycin) का आविष्कार बाद में फिजर समुदाय की प्रयोगशालाओं में हुआ। इस प्रकार पेनिसिलिन यग का आरंभ हुआ।