"पैशाची भाषा": अवतरणों में अंतर

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# पर्वूकालिक प्रत्यय क्त्वा के स्थान तूण, जैसे गत्वा = गंतूण।
 
इनके अतिरिक्त इस प्राकृत की मध्यकालीन अन्य [[शोरसेनीशौरसेनी]] आदि प्राकृतों से विशेषता बतलानेवाली प्रवृत्ति यह है कि इसमें क्, ग्, च्, ज् आदि अल्पप्राण वर्णो का लोप नहीं होता और न ख्, घ्, ध्, भ् इन महापाण वर्णो के स्थान पर ह्। इस प्रकार पैशाची में वर्णव्यवस्था अन्य प्राकृतों की अपेक्षा [[संस्कृत]] के अधिक निकट है।
 
पैशाची प्राकृत का एक उपभेद "चूलिका पैशाची" है, जिसमें पैशाची की उक्त प्रवृत्तियों के अतिरिक्त निम्न दो विशेष लक्षण पाए जाते हैं। एक तो यहाँ, सघोष वर्णो, जैसे ग्, घ्, द्, ध् आदि के स्थान पर क्रमश: अघोष वर्णो क् ख् आदि का आदेश पाया जाता है, जैसे गंधार = कंधार, गंगा = कंका, भेध: = मेखो, राजा = राचा, निर्झर: = निच्छरो, मधुरं = मथुरं, बालक: = पालको, भगवती = फक्व्ती; दूसरे र् के स्थान पर विकल्प से ल्, जैसे गोरी = गोली, चरण = चलण, रुद्दं = लुद्दं।
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== साहित्य ==
पैशाची की उक्त प्रवृत्तियों में से कुछ अशोक की पश्चिमोत्तर प्रदेशवर्ती [[खरोष्ठी लिपि]] की शहबाजगढ़ी एवं मानसेरा की धर्मलिपियों में तथा इसी लिपि में लिखे गए प्राचीन मध्य एशिया-खोतान-तथा पंजाब से प्राप्त हुए लेखों में मिलती हैं। पैशाची भाषा में विरचित [[गुणाढ्य]] कृत [[बृहत्कथा]] की भारतीय साहित्य में बड़ी ख्याति है। [[दंडी]] ने इसके संबंध में कहा है - "भूतभाषमयीं प्राहुरद्भुतां बृहत्कृथाम्।" दुर्भाग्यत: यह मूल ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं है, किंतु उसके संस्कृत अनुवाद [[बृहत्कथामंजरी]], [[कथासरित्सागर]] आदि मिलते हैं। प्राकृत व्याकरणों एवं संस्कृत नाटकों में खंडश: इस भाषा के अंश प्राप्त होते हैं।
 
== इन्हें भी देखें ==