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दक्षिणी [[दिल्ली]] में स्थित हजरत निज़ामुद्दीन औलिया (1236-1325) का मकबरा सूफी काल की एक पवित्र दरगाह है। हजरत निज़ामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे। इस सूफी संत ने वैराग्य और सहनशीलता की मिसाल पेश की, कहा जाता है कि 1303 में इनके कहने पर मुगल सेना ने हमला रोक दिया था, इस प्रकार ये सभी धर्मों के लोगों में लोकप्रिय बन गए। हजरत साहब ने 92 वर्ष की आयु में प्राण त्यागे और उसी वर्ष उनके मकबरे का निर्माण आरंभ हो गया, किंतु इसका नवीनीकरण 1562 तक होता रहा।
 
 
== दरगाह ==
दरगाह हज़रत निज़ामुद्दीन
 
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यह लेख दरगाह के बारे में है। रेलवे स्टेशन के लिए, हजरत निजामुद्दीन (रेलवे स्टेशन) देखें। सूफी संत के लिए, हजरत निजामुद्दीन (संत) देखें।
 
निर्देशांक: 28°35′28.69″N 77°14′30.49″E
दिल्ली का निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन, पृष्ठभूमि में हुमायुं का मकबरा दिखाई देता हुआ।
चित्र:Market in nizamuddin area.jpg
दक्षिणी दिल्ली में स्थित हजरत निज़ामुद्दीन औलिया (1236-1325) का मकबरा सूफी काल की एक पवित्र दरगाह है। हजरत निज़ामुद्दीन चिश्ती घराने के चौथे संत थे। इस सूफी संत ने वैराग्य और सहनशीलता की मिसाल पेश की, कहा जाता है कि 1303 में इनके कहने पर मुगल सेना ने हमला रोक दिया था, इस प्रकार ये सभी धर्मों के लोगों में लोकप्रिय बन गए। हजरत साहब ने 92 वर्ष की आयु में प्राण त्यागे और उसी वर्ष उनके मकबरे का निर्माण आरंभ हो गया, किंतु इसका नवीनीकरण 1562 तक होता रहा।
अनुक्रम
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• 1दरगाह
• 2अमीर खुसरो
• 3संदर्भ
• 4बाहरी कड़ियाँ
दरगाह[संपादित करें]
दरगाह में संगमरमर पत्थर से बना एक छोटा वर्गाकार कक्ष है, इसके संगमरमरी गुंबद पर काले रंग की लकीरें हैं। मकबरा चारों ओर से मदर ऑफ पर्ल केनॉपी और मेहराबों से घिरा है, जो झिलमिलाती चादरों से ढकी रहती हैं। यह इस्लामिक वास्तुकला का एक विशुद्ध उदाहरण है। दरगाह में प्रवेश करते समय सिर और कंधे ढके रखना अनिवार्य है। धार्मिक गीत और संगीत इबादत की सूफी परंपरा का अटूट हिस्सा हैं। दरगाह में जाने के लिए सायंकाल 5 से 7 बजे के बीच का समय सर्वश्रेष्ठ है, विशेषकर वीरवार को, मुस्लिम अवकाशों और त्यौहार के दिनों में यहां भीड़ रहती है। इन अवसरों पर कव्वाल अपने गायन से श्रद्धालुओं को धार्मिक उन्माद से भर देते हैं। यह दरगाह निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन के नजदीक मथुरा रोड से थोड़ी दूरी पर स्थित है। यहां दुकानों पर फूल, लोहबान, टोपियां आदि मिल जाती हैं।
अमीर खुसरो[संपादित करें]
अमीर खुसरो, हज़रत निजामुद्दीन के सबसे प्रसिद्ध शिष्य थे, जिनका प्रथम उर्दू शायर तथा उत्तर भारत में प्रचलित शास्त्रीय संगीत की एक विधा ख्याल के ज्ानक के रूप में सम्मान किया जाता है। खुसरो का लाल पत्थर से बना मकबरा उनके गुरु के मकबरे के सामने ही स्थित है। इसलिए हजरत निज़ामुद्दीन और अमीर खुसरो की बरसी पर दरगाह में दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण उर्स (मेले) आयोजित किए जाते हैं। अमीर खुसरो, जहांआरा बेगम और इनायत खां के मकबरे भी निकट ही बने हैं।[1]
श्रेणी:भारत की दरगाहें
 
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• अजमेर शरीफ़
• दरगाह हज़रत निज़ामुद्दीन
• हज़रतबल
• हाजी अली की दरगाह
• अजमेर शरीफ़
 
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• सन् १८९३ में खिंचा दरगाह शरीफ़ का चित्र
• मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह
• अजमेर शरीफ़ या दरगाह अजमेर शरीफ़ भारत के राजस्थान राज्य के अजमेर नगर में स्थित प्रसिद्ध सूफ़ी संत मोइनुद्दीन चिश्ती (११४१ - १२३६ ई॰) की दरगाह है, जिसमें उनका मक़बरा स्थित है।[1][2]
• दरगाह[संपादित करें]
• दरगाह अजमेर शरीफ़ का मुख्य द्वार निज़ाम गेट कहलाता है क्योंकि इसका निर्माण १९११ में हैदराबाद स्टेट के उस समय के निज़ाम, मीर उस्मान अली ख़ाँ ने करवाया था।[3] उसके बाद मुग़ल सम्राट शाह जहाँ द्वारा खड़ा किया गया शाहजहानी दरवाज़ा आता है। अंत में सुल्तान महमूद ख़िल्जी द्वारा बनवाया गया बुलन्द दरवाज़ा आता है, जिसपर हर वर्ष ख़्वाजा चिश्ती के उर्स के अवसर पर झंडा चढ़ाकर समारोह आरम्भ किया जाता है।[4] ध्यान रहे कि यह दरवाज़ा फ़तेहपुर सीकरी के क़िले के बुलन्द दरवाज़े से बिलकुल भिन्न है। सन् २०१५ में ख़्वाजा चिश्ती का ८००वाँ उर्स मनाया गया था।
• हज़रतबल
 
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• दरगाह हज़रतबल
• दरगाह हज़रतबल
• हज़रतबल (درگاہ حضرت بل, दरगाह हज़रतबल) भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में स्थित एक प्रसिद्ध दरगाह है। मान्यता है कि इसमें इस्लाम के नबी, पैग़म्बर मुहम्मद, का एक दाढ़ी का बाल रखा हुआ है, जिस से लाखों लोगों की आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं। कश्मीरी भाषा में 'बल' का अर्थ 'जगह' होता है, और हज़रतबल का अर्थ है 'हज़रत (मुहम्मद) की जगह'। हज़रतबल डल झील की बाई ओर स्थित है और इसेकश्मीर का सबसे पवित्र मुस्लिम तीर्थ माना जाता है।[1] फ़ारसी भाषा में 'बाल' को 'मू' या 'मो' (مو) कहा जाता है, इसलिए हज़रतबल में सुरक्षित बाल को 'मो-ए-मुक़द्दस' या 'मो-ए-मुबारक' (पवित्र बाल) भी कहा जाता है।
• इतिहास[संपादित करें]
• हज़रतबल को लेकर यह मान्यता है कि पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज सय्यद अब्दुल्लाह सन् १६३५ में मदीना से चलकर भारत आये और आधुनिककर्नाटक राज्य के बीजापुर क्षेत्र में आ बसे। अपने साथ वह इस पवित्र केश को भी लेकर आये। जब सय्यद अब्दुल्लाह का स्वर्गवास हुआ तो उनके पुत्र, सय्यद हामिद, को यह पवित्र केश विरासत में मिला। उसी काल में मुग़ल साम्राज्य का उस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा हो गया और सय्यद हामिद की ज़मीन-सम्पत्ति छीन ली गई। मजबूर होकर उन्हें यह पवित्र-वस्तु एक धनवान कश्मीरी व्यापारी, ख़्वाजा नूरुद्दीन एशाई को बेचनी पड़ी। व्यापारी द्वारा इस लेनदेन के पूरा होते ही इसकी भनक मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब तक पहुँच गई, जिसपर यह बाल नूरुद्दीन एशाई से छीनकर अजमेर शरीफ़में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भेज दिया गया और व्यपारी को बंदी बना लिया गया। कुछ अरसे बाद औरंगज़ेब का मन बदल गया और उसने बाल नूरुद्दीन एशाई को वापस करवाया और उसे कशमीर ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और नूरुद्दीन एशाई ने कारावास में ही दम तोड़ दिया था। पवित्र बाल उनके शव के साथ सन् १७०० में कश्मीर ले जाया गया जहाँ उनकी पुत्री, इनायत बेगम, ने पवित्र वस्तु के लिये दरगाह बनवाई। इनायत बेगम का विवाह श्रीनगर की बान्डे परिवार में हुआ था इसलिये तब से इसी बान्डे परिवार के वंशज इस पवित्र केश की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार हो गये।[2]
• २६ दिसम्बर १९६३ को, जब जवाहरलाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे, यह समाचार आया कि हज़रतबल से केश ग़ायब हो गया है। यह बात तेज़ी से फैली और कश्मीर व देश के अन्य हिस्सों में एक तनाव का वातावरण पैदा हो गया। श्रीनगर में लाखों की तादाद में लोग सड़को पर उतर आये और अफ़वाहें फैलने लगीं। केश की खोज के लिये एक आवामी ऐक्शन कमेटी का गठन हुआ। ३१ दिसम्बर को नहरू ने इस बात को लेकर राष्ट्र के नाम रेडियो संदेश दिया और लाल बहादुर शास्त्री को खोज पूरा करने के लिये श्रीनगर भेजा। ४ जनवरी १९६४ को केश फिर से मिल गया।[3]
हाजी अली की दरगाह
 
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हाजी अली की दरगाह
हाजी अली की दरगाह मुंबई के वरली तट के निकट स्थित एक छोटे से टापू पर स्थित एक मस्जिद एवं दरगाह हैं। इसे सय्यद पीर हाजी अली शाह बुखारी की स्मृति में सन १४३१ में बनाया गया था। यह दरगाह मुस्लिम एवं हिन्दू दोनों समुदायों के लिए विशेष धार्मिक महत्व रखती है। यह मुंबई का महत्वपूर्ण धार्मिक एवं पर्यटन स्थल भी है।
दरगाह को सन १४३१ में सूफी संत सय्यद पीर हाजी अली शाह बुखारी की स्मृति में बनाया गया था। हाजी अली ट्रस्ट के अनुसार हाजी अलीउज़्बेकिस्तान के बुखारा प्रान्त से सारी दुनिया का भ्रमण करते हुए भारत पहुँचे थे।
स्थापत्य[संपादित करें]
दरगाह को मुख्य सड़क से जोड़ने वाला सेतु
हाजी अली की दरगाह वरली की खाड़ी में स्थित है। मुख्य सड़क से लगभग ४०० मीटर की दुरी पर यह दरगाह एक छोटे से टापू पर बनायी गयी है। यहाँ जाने के लिए मुख्य सड़क से एक सेतु बना हुआ है। इस सेतु की उँचाई काफी कम है और इसके दोनों ओर समुद्र है। दरगाह तक सिर्फ निम्न ज्वार के समय ही जाया जा सकता है। अन्य समय में यह सेतु पानी के नीचे डूबा रहता है। सेतु के दोनों ओर समुद्र होने के कारण यह रास्ता काफी मनोरम हो जाता है एवं दरगाह आने वालों के लिए एक विशेष आकर्षण है।
दरगाह टापू के ४५०० वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैली हुई है। दरगाह एवं मस्जिद की बाहरी दीवारें मुख्यतः श्वेत रंग से रंगी गयीं हैं। दरगाह के निकट एक ८५ फीट ऊँची मीनार है जो इस परिसार की एक पहचान है। मस्जिद के अन्दर पीर हाजी अली की मजार है जिसे लाल एवं हरी चादर से सज्जित किया गया है। मजार को चारों तरफ चाँदी के डंडो से बना एक दायरा है।
दरगाह
मुख्य कक्ष में संगमरमर से बने कई स्तम्भ हैं जिनके ऊपर रंगीन काँच से कलाकारी की गयी है एवं अल्लाह के ९९ नाम भी उकेरे गए हैं।
समुद्री नमकीन हवाओं के कारण इस इमारत को काफी नुकसान हुआ है। सन १९६० में आखिरी बार दरगाह का सुधार कार्य हुआ था।
रोचक तथ्य[संपादित करें]
• हिंदी फीचर फिल्म फि़जा में पीर हाजी अली के ऊपर एक कव्वाली फिल्माई गयी है।
• प्रसिद्ध हिंद फीचर फिल्म कुली का अंतिम दृश्य हाजी अली दरगाह में ही फिल्माया गया हैं।
मोइनुद्दीन चिश्ती
 
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मोइनुद्दीन चिश्ती - معین الدین چشتی
 
दर्गाह, मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेर, भारत
 
पूरा नाम मोइनुद्दीन चिश्ती
जन्म हिज्री 536 या ई-1142 [1]
 
जन्मस्थान सीस्तान इलाका (पश्चिमी अफ़ग़ानिस्तान या पूरबी इरान)[2]
 
मृत्यु 6 रज्जब 633 हि।श।
˜ मार्च 15, 1236 CE
 
समाधि गरीब नवाज़, सुल्तान-उल-हिन्द "भारत के च्क्रवर्ती" शेख, क़लीफ़ा
 
क्रम चिष्ती
 
पूर्ववर्ती उस्मान हारून
 
उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन बक्तियार काकी
 
शिष्य कुतुबुद्दीन बक्तियार काकी
•निज़ामुद्दीन औलिया
•फ़रीदुद्दीन गंजषकर
•नसीरुद्दीन चिराग देहल्वी
 
धर्म इस्लाम
 
अजमेर शरीफ़ दर्गाह में मक़्बिरे के बाहर का मन्ज़र
मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ११४१ में और निधन १२३६ ई॰ में हुआ। उन्हें ग़रीब नवाज़ के नाम से भी जाना जाता है। वो भारतीय उपमहाद्वीप के चिश्ती क्रम के सूफ़ी सन्तों में सबसे प्रसिद्ध सन्त थे। मोइनुद्दीन चिश्ती ने भारतीय उपमहाद्वीप में इस क्रम की स्थापना एवं निर्माण किया था।
अनुक्रम
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• 1पूर्व जीवन एवं पृष्ठभूमि
• 2हज़्रत ख्वाजा गरीब नवाज़
o 2.1गरीब नवाज़ का लक़ब
o 2.2जन्म
o 2.3शिक्षा
o 2.4नया जीवन
o 2.5प्रवास और अनेक देशों की यात्रा
o 2.6ख्वाजा साहेब का हिन्दुस्थान और अजमेर में प्रवेश
o 2.7औलाद ए ख्वाजा साहेब
• 3ख़्वाजा हुसैन अजमेरी
o 3.1ख़्वाजा हुसैन अजमेरी का सर चाहिए
o 3.2अकबर बादशाह का पश्चाताप
o 3.3आपका विसाल
o 3.4अकबरी मस्जिद दरगाह अजमेर
• 4चिश्तिया तरीका - पुनस्थापना
o 4.1अजमेर में उनका प्रवेश
• 5उनके आखरी पल
• 6साधारण संस्क्रुती में
• 7चिश्ती तरीक़े के सूफ़ीया
o 7.1आध्यात्मिक परंपरा
• 8इनके भक्तगण और भक्तजन
• 9यह भी देखें
• 10मीडिया में
• 11सन्दर्भ
• 12बाहरी कडियां
पूर्व जीवन एवं पृष्ठभूमि[संपादित करें]
यह माना जाता है कि मोइनुद्दीन चिश्ती का जन्म ५३६ हिज़री संवत् अर्थात ११४१ ई॰ पूर्व पर्षिया के सीस्तान क्षेत्र में हुआ।[3] अन्य खाते के अनुसार उनका जन्म ईरान के इस्फ़हान नगर में हुआ।
हज़्रत ख्वाजा गरीब नवाज़[संपादित करें]
हज़्रत ख्वाजा गरीब नवाज़ विश्व् के महान सूफी सन्त माने जाते हैं। गरीब नवाज़ का असली नाम "ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन" है, और चिश्तियातरीक़े या सिलसिले से हैं इस लिए "चिश्ती" कहलाते हैं।
गरीब नवाज़ का लक़ब[संपादित करें]
मोईनुद्दीन हसन अपने दौर में ग्यान प्रदान करने वाले गुरू या ख्वाजा के रूप में जाने जाते हैं। वो लोग जिन के पास धार्मिक ग्यान नही होता था, या धार्मिक ग्यान के एतेबार से गरीब जो होते थे उन्हें वे ग्यान से नवाज़ते थे।
लैकिन आज कल यूं माना जाता है कि जो भी उन के दर्बार में जाकर मांगता है वह उस्को देते हैं या नवाज़ते हैं, इस लिये भी उन्हें गरीब नवाज़ पुकारा जाता है। हज़्रत ख्वाजा गरीब नवाज़ (र.अ) को विश्व के आध्यात्मिक चिकित्सकों में एक महत्व स्थान है। उनकी जीवन परस्थित्यों और स्वभाव के कारण् वे एक अपुर्व कार्य को अपना लिया। वे महानता और लवण्यता के अच्छे मिश्रण थे। वे हमेशा सत्य का साथ देते थे और वे बहुत अच्छे और महान व्यक़्ति थे। वे प्रेम, समार्स्ता, एकता और सत्य क़े प्रतीक हैं। इन के परिवार का सिलसिला पैग्ंबर मुहमम्द (स.अ.व्) से मिलता है।
जन्म[संपादित करें]
मोईनुद्दीन हसन का जन्म ५३६ हिज़री संवत् अर्थात ११४१ ई॰ में खुर्स्न प्रान्त् के संजर गांव (इरान्) मैं हुआ था। मोइनुद्दीन के पिता "सय्यद ग़ियासुद्दीन हसन" (र.अ) और माँ "बीबी माह-ए-नूर (रअ), दादा हज़्रत मूसा करीम (रअ), परदादा "हज़्रत इमाम हुसैन (रअ)" थे। तो हज़्रत गरीब् नवज़ अपने पिता के परिवर से हुसैनी सय्यद (इमाम हुसैन इब्न अली) थे और माँ की तरफ से ह्सनी सय्यद (इमाम हसन इब्न अली) थे।"[4]
शिक्षा[संपादित करें]
ख्वाजा सहेब (र्.अ) ने अपनी पहली शिक्षा अपने घर में ही पाई। उनके पिता बहुत महान और ग्यानी थे, ख्वाजा साहेब ने क़ुरान ९ साल की आयु में खतम कर लिया। उसके बाद वे संजर् के मकतब (प्राथमिक पाठशाला) में गए, उन्होँने वहाँ तफ़्सीर, फ़िक़ह, और हदीस बहुत् कम समय में सीख लीया, उस विषय में उन्होनें आधिक ग्यान प्राप्त कर लिया।
नया जीवन[संपादित करें]
[छुपाएँ]सूफ़ीवाद और तरीक़ा
 
विचार[दिखाएँ]
 
आचार (Practices)[दिखाएँ]
 
सूफ़ी तरीक़े[दिखाएँ]
 
पूर्व प्रमुख सूफ़ी[दिखाएँ]
 
प्रमुख नवीन सूफ़ी[दिखाएँ]
 
सूफ़ीवाद विषय सूची[दिखाएँ]
 
पोर्टल
 
• द
• वा
• ब
 
पिताजी स्वर्ग सीधार गये, वे अनाथ हो गये। उन्हें अपने पिता से एक उपवन और मिल्ल प्राप्त हुआ। उनके पिता कि म्रुत्य के कुछ् महीनो के बाद उनकी माँ का देहाँत् हो गया। मोईनुद्दीन छोटी आयु ही में सन्तों और फ़क़ीरों का सत्संग किया। वे गरीबों के प्रती दयालू थे।
एक दिन एक मजज़ूब (ईश्वर की याद में खोया हुवा पागल व्यक्ती) शेख इब्राहीम क़ुन्दूज़ से मुलाक़ात हुवी। मोईनुद्दीन उन्की अच्छी सेवा की, वह मजज़ूब प्रसन्न हुए और उन्हें मिठाई खिलाई और कुछ उपदेश दिये। मोईनुद्दीन को उपदेश पाकर ऐसा लगा कि सारा संसार बेकार है। और ऐसा भी लगा कि उन्के और ईश्वर के दर्मियान कोई है ही नहीं। अपनी सारी सम्पत्ती दान कर, उच्छ ग्यान के लिये बुखारा चले गये। वहां उस्मान हारूनी के मुरीद (शिष्य) बन गये।
प्रवास और अनेक देशों की यात्रा[संपादित करें]
मोईनुद्दीन समर्कन्द, बुखारा सफ़र किये, और यहां तक कि मक्का और मदीना भी गये। उन्हें ऐसा लगा कि कोई दिव्यवाणी उन्हें आदेश देरही है कि "मोईनुद्दीन, तुमारी आध्यात्मिक सेवा विश्व को जरूरी है, आप हिन्दूस्तन जाइये, वहां सत्य का प्रचार कीजिये"। और उन्हें ऐसा लगा कि हजरत मुहम्मद उन्हें अजमेर का रास्ता दिखा रहे हैं। बहुत ही प्रसन्न मोइनुद्दीन हिन्दुस्तान तश्रीफ़ लाये।
ख्वाजा साहेब का हिन्दुस्थान और अजमेर में प्रवेश[संपादित करें]
मोईनुद्दीन चिश्ती हिन्दुस्तान का रुख किया। मुल्तान में पान्च वर्श रहे, यहां इन्हों ने संस्कृत भाषा सीखी। थोडे दिन लाहोर में रुके, बाद में अजमेर आये। अपने हमराह मोइज़ुद्दीन के साथ अजमेर अपना निवास स्थल बना लिया।
औलाद ए ख्वाजा साहेब[संपादित करें]
ख़्वाजा हुसैन अजमेरी ख्वाजा हुसैन अजमेरी English :- Khwaja Husain Ajmeri اُردُو :- خواجه حسین आपको शैख़ हुसैन अजमेरी और मौलाना हुसैन अजमेरी के नाम से भी जाना जाता है, ख्वाजा हुसैन अजमेरी ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती के वंशज है , बादशाह अकबर के समय ख़्वाजा हुसैन अजमेरी अजमेर दरगाह के सज्जादानशीन थे जिनको बादशाह अकबर द्वारा दरगाह दीवान का लक़ब देकर नवाज़ा गया, बादशाह अकबर द्वारा आपको बहुत परेशान किया गया और कई वर्षों तक कैद में भी रखा । दरगाह ख़्वाजा साहब अजमेर में प्रतिदिन जो रौशनी की दुआ पढ़ी जाती है वह दुआ ख़्वाजा हुसैन अजमेरी द्वारा लिखी गई थी ।[5][6] [7]
ख़्वाजा हुसैन अजमेरी[संपादित करें]
फ़्रेम|दाएँ|मज़ार मुबारक़ ख़्वाजा हुसैन अजमेरी औलाद (वंशज) ख़्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह ख़्वाजा हुसैन अजमेरी ग़रीब नवाज़ रहमतुल्लाह अलैह की औलाद हैं । आपके वालिद के विसाल के बाद अजमेर शरीफ़ के लोगों ने यह तय किया कि उनके तीनो भाइयों को रोज़ए ख़्वाजा पे ले चलते हैं, जिसके हाथ लगाने से दरवाजा रोज़ा शरीफ़ खुद बखुद खुल जाएगा उसी को दरगाह शरीफ़ का दीवान (सज्जादानशीन) मुक़र्रर कर दिया जाएगा । लिहाज़ा आपके दो भाइयों के हाथ से रोज़ा शरीफ़ का दरवाजा नहीं खुला । आपके हाथ लगाते ही रोज़ा शरीफ़ का दरवाज़ा खुल गया , चुनांचे आपकी मसनदे सज्जादगी पर बैठा दिया गया ।
ख़्वाजा हुसैन अजमेरी का सर चाहिए[संपादित करें]
अबुल फ़ज़ल और फ़ैज़ी जो नागौर शरीफ़ से ताल्लुक़ रखते थे, बहुत तेज़ व तर्रार थे , अकबर के ख़ास लोगों में शुमार था । अकबर बादशाह से क़ुरबत हासिल करने के लिए दिन दरोग़ गोई से काम लिया । दीवान ख़्वाजा हज़रत हुसैन अजमेरी को अबुल फ़ज़ल ने अपना खालाज़ाद भाई बताया । अकबर को ख़्वाजा बुज़ुर्ग से काफी अक़ीदत थी । अकबर बहुत ज़हीन और चालाक था । एक दिन अजमेर पहुंचकर अकबर ने ख़्वाजा हुसैन अजमेरी से मालूम कर लिया की क्या अबुल फ़ज़ल आपके ख़ालाज़ाद भाई हैं । ख़्वाजा हुसैन ने फ़रमाया तमाम मुसलमान भाई हैं । अकबर ने दूसरी बार सवाल दोहराया । आपने फिर फ़रमाया तमाम मुसलमान भाई हैं । अकबर ख़ामोश हो गया । यह सवाल सुनकर अबुल फ़ज़ल की दरोग़ गोई सामने आ गई । उसी दिन से अबुल फ़ज़ल के दिल में आपके लिए दुश्मनी पैदा हो गई । एक दिन मौका पाकर अकबर को ख़्वाजा हुसैन अजमेरी के ख़िलाफ़ करना चाहा । अकबर से कहा हुज़ूर ख़्वाजा हुसैन अजमेर का इरादा है कि राजाओं का लश्कर जमा करके आप पर चढ़ाई करें और खुद देहली के बादशाह बन जाएं । अकबर ने ये बात सुनकर अबुल फ़ज़ल से कहा के से यकीन हुआ ? इस पर अबुल फ़ज़ल ने कहा तमाम राजा उन्हें सलाम करने हाज़िर होते हैं, अगर आपको सच्चाई मालूम करनी है तो बतौर इम्तेहान आप किसी एक रजा से यह कहिये कि मुझे ख़्वाजा हुसैन अजमेरी का सर चाहिए, सर उतार कर लाया जाए । चुनांचे अकबर ने राजा बीकानेर, राजा जयपुर, रजा जोधपुर, को अपने दरबार में तलब किया और हुक्म दिया कि मुझे ख़्वाजा हुसैन अजमेरी का सर चाहिए । तीनों राजा दस्त बस्ता अर्ज़ करने लगे, हुज़ूर हुक्म हो तो हम अपने मा बाप का सर काटकर ला सकतें हैं, मगर एक दरवेश सिफ़त भगत इंसान जो तमाम हिन्दू मुसलामानों कि बेलौस ख़िदमत कर रहे हैं ख़्वाजा हुसैन का सर काट कर लाना हमारे लिए नामुमकिन है । और जो कुछ हुक्म कीजिये हम तामीले हुक्म के लिए हाजिर हैं । जब रजागान दरबार से रुख़्सत हो चुके तो अबुल फ़ज़ल ने कहा देखा हुज़ूर मेने आपसे सच ही तो कहा था, अब आपको पूरा पूरा यकीन हो गया होगा । जलालुद्दीन अकबर ने फ़ौरन हुक्म दिया कि ख़्वाजा हुसैन से कह दो कि वो अजमेर से फ़ौरन निकल जाएं, मक्का मोअज़्ज़मा या मदीना शरीफ़ चले जाएं । चूंकि दीवान ख़्वाजा हुसैन अजमेरी साहब बे ताल्लुक़ मुज़र्रद आदमी थे, चंद ख़ादिमों को लेकर मक्का शरीफ़ को रवाना हो गए ।
अकबर बादशाह का पश्चाताप[संपादित करें]
काफी दिन वहाँ कयाम रहा । एक दिन किसी ख़ादिम ने अर्ज़ की हुज़ूर बादशाह ने आपको बिलाकु़सूर सताया है, कुछ तो सज़ा दीजिए । ख़ादिम के बार बार इसरार पर एक दिन जलाल में आकार फ़रमाया इंशा अल्लाह वो खु़द माफ़ीनामा के साथ हमें अजमेर बुलाएगा । लिहाज़ा आपके इस इरशाद के दूसरे ही दिन उसके पेट में सख़्त दर्द हुआ, तमाम तबीब आज़िज़ आ गए, दिन भर तड़पता रहा । किसी भी दवा से इफ़ाक़ा न हुआ । रात को जब गु़नूदगी तरी हुई तो हज़रत ख़्वाजा साहब ने बशारत दी और ख़्वाब में फ़रमाया, अकबर तुने हमारे फरज़न्द ख़्वाजा हुसैन पर नाहक़ ज़ुल्म किया है वो बेक़सूर था, उसको जल्द वापस बुला वर्ना तेरी मौत में कुछ कमी नहीं । यह सुन कर अकबर लरज़ गया और माफ़ी माँगी । उसी वक़्त उठकर फरमान लिखया, तब जाकर अकबर को दर्द से छुटकारा हासिल हुआ । ख़्वाजा हुसैन मक्का मोअज़्ज़मा से वापस अजमेर शरीफ़ आकार मसनदे सज्जादगी पर रौनक़ अफ़रोज़ हुए । आपका मक़बरा बड़े गुम्बद में सौलह खम्बा, शाहजहाँनी मस्जिद के पीछे है । औलादे ख़्वाजा के मख़सूस क़ब्रिस्तान में यह मक़बरा है ।
आपका विसाल[संपादित करें]
आपका विसाल 1029 हिजरी में हुआ । यही तारीख़ मालूम हो सकी । गुम्बद की तामीर बादशाह शाहजहाँ के दौर में 1047 में हुई ।
अकबरी मस्जिद दरगाह अजमेर[संपादित करें]
अकबरी मस्जिद इस मस्जिद को अकबर बादशाह ने दीवान सज्जादानशीन सैयद ख़्वाजा हुसैन अजमेर की हवेली को मस्मार करके 977 हिजरी में तामीर कराया ।
चिश्तिया तरीका - पुनस्थापना[संपादित करें]
चिश्तिया तरीका अबू इसहाक़ शामी ने ईरान के शहर "चश्त" में शुरू किया था, इस लिए इस तरीक़े को "चश्तिया" या चिश्तिया तरीका नाम पड गया। लैकिन वह भारत उपखन्ड तक नहीं पहुन्चा था। मोईनुद्दीन चिश्ती साहब ने इस सूफ़ी तरीक़े को भारत उप महाद्वीप या उपखन्ड में स्थापित और प्रचार किया। यह तत्व या तरीक़ा आध्यात्मिक था, भारत भी एक आध्यात्म्कि देश होने के नाते, इस तरीक़े को समझा, स्वागत किया और अपनाया। धार्मिक रूप से यह तरीका बहुत ही शान्तिपूर्वक और धार्मिक विग्नान से भरा होने के कारण भारतीय समाज में इन्के सिश्यगण अधिक हुवे। इन्की चर्चा दूर दूर तक फैली और लोग दूर दूर से इनके दरबार में हाजिर होते, और धार्मिक ग्यान पाते।
अजमेर में उनका प्रवेश[संपादित करें]
अजमेर में जब वे, धार्मिक प्रचार कर्ते तो चिश्ती तरीके से कर्ते। इस तरीके में ईश्वर ग्नान पद्य रूप में गाने के साधनों द्वारा लोगों तक पहुन्चाया जाता। मतलब ये कि, क़व्वाली, समाख्वानी, और उपन्यासों द्वारा लोगों को ईश्वर के बारे में बतान और मुक्ति मार्ग दर्शन करवाना। स्थानीय हिन्दू राजाओं से भी कयी मत भेद हुवे परन्तु वह सब मतभेद स्वल्पकालीन थे। स्थानीय राजाओं ने भी मोईनुद्दीन साहब के प्रवचनों से मुग्द हुवे और उन्हें कोई कश्ट या आपदा आने नहीं दिया।
इस तरह स्थानीय लोगों के ह्रुदय भी जीत लिये, और लोग भी इनके मुरीद (शिश्य) होने लगे।
उनके आखरी पल[संपादित करें]
मोईनुद्दीन चिश्ती दरगाह, अजमेर।
६३३ हिज़री के आते ही उन्हें पता था कि यह उनका आखरी वर्श है, जब वे अजमेर के जुम्मा मस्जिद में अपने प्रशंसको के साथ बैठे थे, तो उनहोंने शेख अली संगल (र अ) से कहा कि वे हज़रत बख्तियार काकी (र अ) को पत्र लिखकर आने के लिये कहें। ख्वाजा साहेब के बाद क़ुरान-ए-पाक, उनका गालिचा और उनके चप्पल काकी (र अ) को दिया गया और कहा "यह विशवास मुहम्म्द (स अ व्) का है, जो मुझे मेरे पीर-ओ-मुर्शिद से मिला हैं, मैं आप पर विशवास करके आप को दे रहा हुँ और उसके बाद उनका हाथ लिया और नभ की ओर देखा और कहा "मैंने तुम्हें अल्लाह पर न्यास्त किया है और तुम्हें यह मौका दिया है उस आदर और सम्मान प्राप्त करने के लिए।" उस के बाद ५ और ६ रजब को ख्वाजा साहेब अपने कमरे के अंदर गए और क़ुरान-ए-पाक पढने लगे, रात भर उनकी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन सुबह को आवाज़ सुनाई नहीं दी। जब कमरा खोल कर देखा गया, तब वे स्वर्ग चले गये थे, उनके माथे पर सिर्फ यह पंक्ति चमक रही थी "वे अल्लाह के मित्र थे और इस संसार को अल्लाह का प्रेम पाने के लिए छोड दिया।" उसी रात को काकी (र अ) को मुहम्मद (स अ व्) स्वपन में आए थे और कहा "ख्वाजा साहेब अल्लाह के मित्र हैं और मैं उनहें लेने के लिये आया हुँ। उनकी जनाज़े की नमाज़ उन के बडे पुत्र ख्वाजा फ़क्रुद्दीन (र अ) ने पढाई। हर साल हज़रत के यहाँ उनका उर्स बडे पैमाने पर होता है।
साधारण संस्क्रुती में[संपादित करें]
हुसैन इब्न अली के पाशस्त में इन्हों ने यह कविता लिखी, जो दुनियां भर में मशहूर हुई।
शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन
शाह हैं हुसैन, बादशाह हैं हुसैन
दीन अस्त हुसैन, दीनपनाह अस्त हुसैन
धर्म हैं हुसैन, धर्मरक्षक हैं हुसैन
सरदाद न दाद दस्त दर दस्त ए यज़ीद
अपना सर पेश किया, मगर हाथ नहीं पेश किया आगे यज़ीद के
हक़्क़ाक़-ए बिना-ए ला इलाह अस्त हुसैन
सत्य है कि हुसैन ने शहादा की बुनियाद रखी
चिश्ती तरीक़े के सूफ़ीया[संपादित करें]
मोइनुद्दीन साहब के तक्रीबन एक हज़ार खलीफ़ा और लाखों मुरीद थे। कयी पन्थों के सूफ़ी भी इनसे आकर मिल्ते और चिश्तिया तरीके से जुड जाते। इन्के शिश्यगणों में प्रमुख ; क़ुत्बुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा फ़रीद्, निज़ामुद्दीन औलिया, हज़रत अह्मद अलाउद्दीन साबिर कलियरी, अमीर खुस्रो, नसीरुद्दीन चिराग दहलवी, बन्दे नवाज़, अश्रफ़ जहांगीर सिम्नानी और अता हुसैन फ़ानी.
आज कल, हज़ारो भक्तगण जिन में मुस्लिम, हिन्दू, सिख, ईसाई व अन्य धर्मों के लोग उर्स के मोके पर हाज़िरी देने आते हैं।
अजमेर
 
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अजमेर के जैन मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति
अनासागर का दृश्य
अजमेर राजस्थान प्रान्त में अजमेर जिले का मुख्यालय एवं मुख्य नगर है। यह अरावली पर्वत श्रेणी की तारागढ़ पहाड़ी की ढाल पर स्थित है। यह नगर सातवीं शताब्दी में अजयराज सिंह नामक एक चौहान राजा द्वारा बसाया गया था जिसने चौहान वंश की स्थापना की। इस नगर का मूल नाम 'अजयमेरु' था। सन् १३६५ में मेवाड़ के शासक, १५५६ में अकबर और १७७० से १८८० तक मेवाड़ तथा मारवाड़ के अनेक शासकों द्वारा शासित होकर अंत में १८८१ में यह अंग्रेजों के आधिपत्य में चला गया।
नगर के उत्तर में अनासागर तथा कुछ आगे फ्वायसागर नामक कृत्रिम झीलें हैं। यहाँ का प्रसिद्ध मुसलमान फकीर मुइनुद्दीन चिश्ती का मकबरा प्रसिद्ध है। एक प्राचीन जैन मंदिर, जो १२०० ई. में मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया था, तारागढ़ पहाड़ी की निचली ढाल पर स्थित है। इसके खंडहर अब भी प्राची हिंदू कला की प्रगति का स्मरण दिलाते हैं। इसमें कुल ४० स्तंभ हैं और सब में नए-नए प्रकार की नक्काशी है; कोई भी दो स्तंभ नक्काशी में समान नहीं हैं। तारागढ़ पहाड़ी की चोटी पर एक दुर्ग भी है।
इसका आधुनिक नगर एक प्रसिद्ध रेलवे केन्द्र भी है। यहाँ पर नमक का व्यापार होता है जो साँभर झील से लाया जाता है। यहाँ खाद्य, वस्त्र तथा रेलवे के कारखाने हैं। तेल तैयार करना भी यहाँ का एक प्रमुख व्यापार है।
खिड़की मस्जिद, दिल्ली
 
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खिड़की मस्जिद का निर्माण फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ के प्रधानमंत्री खान-ई-जहान जुनैन शाह ने 1380 में करवाया था। मस्जिद के अंदर बनी खूबसूरत खिड़कियों के कारण इसका नाम खिड़की मस्जिद पड़ा। यह मस्जिद दो मंजिला है। मस्जिद के चारों कोनों पर बुर्ज बने हैं जो इसे किले का रूप देते हैं। तीन दरवाजों पर मीनारें बनी हैं। पुराने समय में पूर्वी द्वार से प्रवेश किया जाता था लेकिन अब दक्षिण द्वार पर्यटकों और श्रद्धालुओं के लिए खुला रहता है।
यह मस्जिद दक्षिण दिल्ली के खिड़की गांव में बनी हुई है।
साँचा:दिल्ली की मस्जिदें
 
== [[अमीर खुसरो]] ==