"नाना साहेब": अवतरणों में अंतर

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(धूंधूपंत) नाना साहब ने सन् 1824 में वेणुग्राम निवासी माधवनारायण राव के घर जन्म लिया था। इनके पिता [[पेशवा बाजीराव द्वितीय]] के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबंध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बंदूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया।
 
28 जनवरी सन् 1851 को पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अंतिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कंपनी के शासन ने [[विठूर]] स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन संपत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के संबंध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परंतु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी संपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरंत ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। ((साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपूर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धूंधूपंत को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किंतु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने [[अजीमुल्ला खाँ]] को अपना वकील नियुक्त कर [[महारानी विक्टोरिया]] के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने [[फ्रांस]], [[इटली]] तथा [[रूस]] आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा [[यूरोप]] के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया।
 
नानाराव धूंधूपंत को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारंभ की। नाना साहब का इस उमर में तीर्थयात्रा पर निकलना कुछ रहस्यात्मक सा जान पड़ता है। सन् 1857 में वह [[काल्पी]], [[दिल्ली]] तथा [[लखनऊ]] गए। काल्पी में आपने बिहार के प्रसिद्ध [[कुँवर सिंह]] से भेंट की और भावी क्रांति की कल्पना की। जब [[मेरठ]] में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रांति की सेनाओं का कभी गुप्त रूप से और कभी प्रकट रूप से नेतृत्व किया। क्रांति प्रारंभ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रांतिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रांतिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रांतिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परंतु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता।