"राम प्रसाद 'बिस्मिल'": अवतरणों में अंतर

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|धर्म = हिंदू
|राष्ट्रीयता = भारतीय
|स्मारक = अमर शहीद पं॰ राम प्रसाद बिस्मिल उद्यान, [[ग्रेटर नोएडा]] </br /> संग्रहालय, [[शाहजहाँपुर]]
अमर शहीद पं रामप्रसाद बिस्मिल संग्रहालय, िजला-मुरैना,म.प्र.
}}
'''राम प्रसाद 'बिस्मिल'''' (११ जून १८९७-१९ दिसम्बर १९२७) [[भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] की क्रान्तिकारी धारा के एक प्रमुख [[स्वतंत्रता सेनानी| सेनानी]] थे, जिन्हें ३० वर्ष की आयु में [[ब्रिटिश राज|ब्रिटिश सरकार]] ने [[फाँसी]] दे दी। वे मैनपुरी षड्यन्त्र व काकोरी-काण्ड जैसी कई घटनाओं मे शामिल थे तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य भी थे।
 
राम प्रसाद एक [[कवि]], [[शायर]], [[अनुवादक]], बहुभाषाभाषी, [[इतिहासकार]] व [[साहित्यकार]] भी थे। ''बिस्मिल'' उनका उर्दू तखल्लुस ([[उपनाम]]) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे ''राम'' और ''अज्ञात'' के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।
 
शुक्रवार ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी ([[निर्जला एकादशी]]) विक्रमी संवत् १९५४ को [[उत्तर प्रदेश]] के [[शाहजहाँपुर]] में जन्मे राम प्रसाद को ३० वर्ष की आयु में सोमवार पौष कृष्ण एकादशी ([[सफला एकादशी]]) विक्रमी संवत् १९८४ को वे शहीद हुए। उन्होंने सन् १९१६ में १९ वर्ष की आयु में क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था। ११ वर्ष के क्रान्तिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं और स्वयं ही उन्हें प्रकाशित किया। उन पुस्तकों को बेचकर जो पैसा मिला उससे उन्होंने हथियार खरीदे और उन हथियारों का उपयोग [[ब्रिटिश राज]] का विरोध करने के लिये किया। ११ पुस्तकें ही उनके जीवन काल में प्रकाशित हुईं और ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त की गयीं।
<!-- <ref name="क्रान्त">{{cite book |last1=Verma |first1='Krant' Madan Lal |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=क्रांतिकारी बिस्मिल और उनकी शायरी|url=http://www.worldcat.org/title/krantikari-bismila-aura-unaki-sayari/oclc/466558602 |format= |accessdate=४ मार्च २०१४ |edition=1 |series= |volume= |date= |year=1998 |month= |origyear= |publisher=प्रखर प्रकाषन|location=[[दिल्ली]] |isbn= |oclc= 466558602|doi= |id= |page=18 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=स्वयं किताबें लिखीं, छ्पायीं, बेचीं, फिर जो धन आया, उससे शस्त्र खरीदे फिर बाग़ी मित्रों में बँटवाया। सैन्य-शस्त्र-संचालन का था बहुत बड़ा अनुभव पाया, इसीलिये बिस्मिल के जिम्मे सेनापति का पद आया। फिर क्या था शुरुआत उन्होंने की सीधे संधान की! आओ तुमको कथा सुनाएँ बिस्मिल के बलिदान की!!|ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> -->
 
बिस्मिल को तत्कालीन [[संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध]] की लखनऊ सेण्ट्रल जेल की ११ नम्बर बैरक<!-- <ref>{{cite news|url=http://www.indianexpress.com/news/history-in-a-barrack/488177/|trans_title=एक बैरक में इतिहास |title=History in a barrack|date=12 जुलाई 2009|publisher=[[द इंडियन एक्सप्रेस]]|accessdate= ४ मई २०१४}}</ref>--> में रखा गया था। इसी जेल में उनके दल के अन्य साथियोँ को एक साथ रखकर उन सभी पर ब्रिटिश राज के विरुद्ध साजिश रचने का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया था।
 
<!-- [[बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय]] द्वारा रचित [[वन्दे मातरम]] के बाद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की रचना [[सरफरोशी की तमन्ना]] ही है जिसे गाते हुए न जाने कितने लोग फाँसी के तख्ते पर झूल गये।<ref>{{cite book |last1=जगदीश |first1=जगेश|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=क्लम आज उनकी जय बोल |url=|format= |accessdate=२९ अप्रैल २०१४ |edition=1 |series= |volume= |date= |year=१९८९ |month= |origyear= |publisher=प्रचारक ग्रन्थावली परियोजना [[हिन्दी प्रचारक संस्थान]]|location=[[वाराणसी]]|isbn=|oclc= |doi= |id= |page=१६० |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=बेड़ियों की झनकार पर क्रान्तिकारी जो नारे लगाते और गाने गाते थे वे अखबारों में छपने लगे जिसमें से यह गज़ल परवर्ती सभी राष्ट्रीय अवसरों पर गायी जाने लगी - सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजु-ए-क़ातिल में है! |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> -->
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बिस्मिल के दादा जी नारायण लाल का पैतृक गाँव बरबाई था। यह गाँव तत्कालीन [[ग्वालियर]] राज्य में [[चम्बल नदी]] के बीहड़ों के बीच स्थित तोमरघार क्षेत्र के [[मुरैना]] जिले में था और वर्तमान में यह [[मध्य प्रदेश]] में है। बरबाई ग्राम-वासी आये दिन अंग्रेज़ों व अंग्रेज़ी आधिपत्य वाले ग्राम-वासियों को तंग करते थे। पारिवारिक कलह के कारण नारायण लाल ने अपनी पत्नी विचित्रा देवी एवं दोनों पुत्रों - मुरलीधर व कल्याणमल सहित अपना पैतृक गाँव छोड़ दिया।<ref name="चौहान">{{cite book |last1=रामप्रसाद |first1=बिस्मिल |editor1-first=चौहान |editor1-last=डॉ॰कृष्णवीर सिंह |title=स्वाधीनता की देवी कैथरिन |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=5776 |accessdate= 19 मार्च 2014 |edition=1 |year=2007 |publisher=साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन |location=[[जयपुर]]|isbn=81-7932-061-8|pages=103}}</ref> उनके गाँव छोड़ने के बाद बरबाई में केवल उनके दो भाई - अमान सिंह व समान सिंह ही रह गये जिनके वंशज आज भी उसी गाँव में रहते हैं।<ref>{{cite news|url = http://www.atalsandesh.in/news.php?post=45521&title=|title = '''आखिर कौन बनेगा मुरैना का सरताज?'''|accessdate = 29 अप्रैल 2014|quote = कम ही लोग जानते होंगे कि आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल का संबंध मुरैना जिले के बरबई से था। उनके पूर्वज चंबल इलाके के बरबई से यूपी के शाहजहांपुर में जाकर बस गए थे, जहां 1897 में बिस्मिल का जन्म हुआ। शहर में भिंड रोड से प्रवेश करते ही उनकी स्मृति में बनाया गया संग्रहालय ध्यान खींचता है। उन्होंने 1918 मैनपुरी षड़यंत्र में हिस्सा लिया और [[काकोरी कांड]] में शामिल रहे। तब मुरैना संयुक्त प्रांत का हिस्सा था। 19 दिसम्बर 1927 को उन्हें गोरखपुर जेल में फांसी दे दी गई थी।}}</ref> आज बरबाई गाँव के एक पार्क में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा राम प्रसाद बिस्मिल की एक [[प्रतिमा]] स्थापित कर दी गयी है।वहीं 'बरबाई' ग्राम को 'सांसद आदर्श ग्राम योजना 'के तहत भी विकसित किया जा रहा है।इसके अतिरिक्त मुरैना में बिस्मिल का एक [[मन्दिर]] एवं जिला मुख्यालय पर 'अमर शहीद पं रामप्रसाद बिस्मिल संग्रहालय' भी बनाया गया है,जो चम्बल अंचल के अमर शहीदों एवं अंचल के ऐतिहासिक व पुरा स्थलों की जानकारी प्रदान करता है।<ref>{{cite news|url=http://news.webindia123.com/news/articles/India/20091209/1401248.html|title= मध्य प्रदेश के एक जिले में शहीद राम प्रसाद बिस्मिल का मन्दिर|publisher=[[वेबदुनिया]]|date= 9 दिसम्बर 2009|location=[[मुरैना]]|accessdate= ४ मार्च २०१४}}</ref>
 
कालान्तर में यह परिवार [[उत्तर प्रदेश]] के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर आ गया। शाहजहाँपुर में मुन्नूगंज के फाटक के पास स्थित एक अत्तार की दुकान पर मात्र तीन रुपये मासिक में नारायण लाल ने नौकरी कर ली। इतने कम पैसे में उनके परिवार का गुज़ारा नहीं होता था। बिस्मिल की दादी विचित्रा देवी ने अपने पति का हाथ बटाने के लिये अनाज पीसने का कार्य शुरू कर दिया। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्षों तक चलता रहा।<ref name="चौहान">< /ref>
 
[[चित्र:Father of Bismil1193.gif|thumb|left|200px|बिस्मिल के पिता मुरलीधर]]
नारायण लाल यहीं के प्रसिद्ध[[तोमर]] वंश के क्षत्रिय थेथे। ।किन्तुकिन्तु उनके आचार-विचार, सत्यनिष्ठा व धार्मिक प्रवृत्ति से स्थानीय लोग प्रायः उन्हें "पण्डित जी" ही कहकर सम्बोधित करते थे। इससे उन्हें एक लाभ यह भी होता था कि प्रत्येक तीज - त्योहार पर दान - दक्षिणा व भोजन आदि घर में आ जाया करता। इसी बीच नारायण लाल को स्थानीय निवासियों की सहायता से एक पाठशाला में सात रुपये मासिक पर नौकरी मिल गयी। कुछ समय पश्चात् उन्होंने यह नौकरी भी छोड़ दी और रेजगारी (इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी के सिक्के) बेचने का कारोबार शुरू कर दिया। इससे उन्हें प्रतिदिन पाँच-सात आने की आय होने लगी। नारायण लाल ने रहने के लिये एक मकान भी शहर के खिरनीबाग मोहल्ले में खरीद लिया और बड़े बेटे मुरलीधर का विवाह अपने ससुराल वालों के परिवार की ही एक कन्या मूलमती से करके उसे इस नये घर में ले आये। शादी पश्चात मुरलीधर को शाहजहाँपुर की नगरपालिका में १५ रुपये मासिक वेतन पर नौकरी मिल गयी। किन्तु उन्हें यह नौकरी पसन्द नहीं आयी। कुछ दिन बाद उन्होंने नौकरी त्याग कर कचहरी में स्टाम्प पेपर बेचने का काम शुरू कर दिया। इस व्यवसाय में उन्होंने अच्छा खासा धन कमाया। तीन बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगीं व ब्याज पर रुपये उधार देने का काम भी करने लगे।<ref name="चौहान">< /ref>
 
== प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा ==
११ जून १८९७ को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर के खिरनीबाग मुहल्ले में मुरलीधर और उनकी पत्नी मूलमती को जन्मे बिस्मिल अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। उनसे पूर्व एक पुत्र पैदा होते ही मर चुका था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसो उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक [[ज्योतिषी]] ने भविष्यवाणी की थी - "यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत रोक नहीं पायेगी।<nowiki>''</nowiki><ref>सरफरोशी की तमन्ना भाग-१ पृष्ठ १७</ref> माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर ''र'' पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही [[राम]] के आराधक थे अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। बालक को घर में सभी लोग प्यार से ''राम'' कहकर ही पुकारते थे। रामप्रसाद के जन्म से पूर्व उनकी माँ एक पुत्र खो चुकी थीं अतः जादू-टोने का सहारा भी लिया गया। एक खरगोश लाया गया और नवजात शिशु के ऊपर से उतार कर आँगन में छोड़ दिया गया। खरगोश ने आँगन के दो-चार चक्कर लगाये और फौरन मर गया। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है। मुरलीधर के कुल ९ सन्तानें हुईं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का भी देहान्त हो गया।<ref name="चौहान">< /ref>
 
<!-- [[चित्र:बिस्मिल की माँ1225.gif|thumb|right|200px|बिस्मिल की माँ मूलमती]] Commented as image's Copyright is not clear-->
बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। उसका मन खेलने में अधिक किन्तु पढ़ने में कम लगता था। इसके कारण उनके पिताजी तो उसकी खूब पिटायी लगाते परन्तु माँ हमेशा प्यार से यही समझाती कि "बेटा राम! ये बहुत बुरी बात है मत किया करो।" इस प्यार भरी सीख का उसके मन पर कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य पड़ता। उसके पिता ने पहले हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु उ से उल्लू न तो उन्होंने पढ़ना सीखा और न ही लिखकर दिखाया। उन दिनों हिन्दी की वर्णमाला में उ से उल्लू ही पढ़ाया जाता था। इस बात का वह विरोध करते थे और बदले में पिता की मार भी खाते थे। हार कर उसे [[उर्दू]] के स्कूल में भर्ती करा दिया गया। शायद यही प्राकृतिक गुण रामप्रसाद को एक क्रान्तिकारी बना पाये। लगभग १४ वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूकची से रुपये चुराने की लत पड़ गयी। चुराये गये रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गयी थी। कुल मिलाकर रुपये - चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के प्रेमरस से परिपूर्ण उपन्यासों व गजलों की पुस्तकें पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भाँग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद को चोरी करते हुए पकड़ लिया गया। खूब पिटाई हुई, उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गयीं लेकिन रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी। आगे चलकर जब उनको थोड़ी समझ आयी तभी वे इस दुर्गुण से मुक्त हो सके।<ref name="चौहान">< /ref>
 
रामप्रसाद ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझे हुए विद्वान व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर भी पड़ा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ के साथ [[ब्रह्मचर्य]] का पालन करने लगा। पुजारी की देखा-देखी रामप्रसाद ने व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। किशोरावस्था की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें मन में थीं वे भी छूट गयीं। केवल सिगरेट पीने की लत नहीं छूटी। परन्तु वह भी कुछ दिनों बाद विद्यालय के एक सहपाठी सुशीलचन्द्र सेन की सत्संगति से छूट गयी। सिगरेट छूटने के बाद रामप्रसाद का मन पढ़ाई में लगने लगा। बहुत शीघ्र ही वह अंग्रेजी के पाँचवें दर्ज़े में आ गए।<ref name="चौहान">< /ref>
रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत से उसका सम्पर्क हुआ। मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को [[आर्य समाज]] के सम्बन्ध में बताया और स्वामी दयानन्द सरस्वती की लिखी पुस्तक [[सत्यार्थ प्रकाश]] पढ़ने को दी। सत्यार्थ प्रकाश के गम्भीर अध्ययन से रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा।<ref name="चौहान">< /ref>
 
== स्वामी सोमदेव से भेंट ==
रामप्रसाद जब गवर्नमेण्ट स्कूल शाहजहाँपुर में आठवीं कक्षा के छात्र थे तभी संयोग से [[स्वामी सोमदेव]] का आर्य समाज भवन में आगमन हुआ।<ref name="चौहान">< /ref> मुंशी इन्द्रजीत ने रामप्रसाद को स्वामीजी की सेवा में नियुक्त कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दशा और दिशा दोनों में परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। एक ओर सत्यार्थ प्रकाश का गम्भीर अध्ययन व दूसरी ओर स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। सन् १९१६ के [[कांग्रेस]] अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष ''पं॰ जगत नारायण 'मुल्ला''' के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य [[बालगंगाधर तिलक]] की पूरे [[लखनऊ]] शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। अधिवेशन के दौरान उनका परिचय [[केशव बलिराम हेडगेवार]] (छ्द्मनाम: केशव चक्रवर्ती), सोमदेव शर्मा व मुकुन्दीलाल आदि से हुआ। बाद में इन्हीं सोमदेव शर्मा ने किन्हीं सिद्धगोपाल शुक्ल के साथ मिलकर नागरी साहित्य पुस्तकालय, [[कानपुर]] से एक पुस्तक भी प्रकाशित की जिसका शीर्षक रखा गया था - ''अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास''। यह पुस्तक बाबू गनेशप्रसाद के प्रबन्ध से कुर्मी प्रेस, लखनऊ में सन् १९१६ में प्रकाशित हुई थी।<ref>{{cite book |last1=क्रान्त|first1=मदनलाल वर्मा |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate=४ अप्रैल २०१४ |edition=1 |series= |volume=2 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=[[प्रवीण प्रकाशन]] |location=[[नई दिल्ली]] |isbn= 81-7783-120-8|oclc= |doi= |id= |page=५२४ |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=मुझे यह पुस्तक काकोरी-काण्ड की फाइल से राजकीय अभिलेखागार लखनऊ से प्राप्त हुई|ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>
रामप्रसाद ने यह पुस्तक अपनी माताजी से दो बार में दो-दो सौ रुपये लेकर प्रकाशित की थी। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी [[आत्मकथा]] में किया है। यह पुस्तक छपते ही जब्त कर ली गयी थी बाद में जब [[काकोरी काण्ड]] का अभियोग चला तो [[साक्ष्य]] के रूप में यही पुस्तक प्रस्तुत की गयी थी। अब यह पुस्तक सम्पादित करके ''सरफरोशी की तमन्ना'' नामक ग्रन्थावली के भाग-तीन में संकलित की जा चुकी है और [[तीन मूर्ति भवन]] पुस्तकालय, नई-दिल्ली सहित कई अन्य पुस्तकालयों में देखी जा सकती है।<ref >{{cite book |last1=क्रान्त|first1=मदनलाल वर्मा |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate=४ अप्रैल २०१४ |edition=1 |series= |volume=2 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=[[प्रवीण प्रकाशन]] |location=[[नई दिल्ली]] |isbn= 81-7783-120-8|oclc= |doi= |id= |page=५२४ |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=मैंने अपनी शोध ग्रन्थावली '''सरफरोशी की तमन्ना''' के तीसरे खण्ड में मात्र इतिहास की सामग्री को दिया है, भूमिका हटा दी है।|ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>
 
== मैनपुरी षड्यन्त्र ==
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सन १९१५ में [[भाई परमानन्द]] की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद [[ब्रिटिश साम्राज्य]] को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे, १९१६ में एक [[पुस्तक]] छपकर आ चुकी थी, कुछ नवयुवक उनसे जुड़ चुके थे, स्वामी सोमदेव का आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हो चुका था। एक संगठन उन्होंने [[पं॰ गेंदालाल दीक्षित]] के मार्गदर्शन में ''मातृवेदी'' के नाम से खुद खड़ा कर लिया था। इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी। दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से रामप्रसाद ने, जो अब तक 'बिस्मिल' के नाम से प्रसिद्ध हो चुके थे, जून १९१८ में दो तथा सितम्बर १९१८ में एक - कुल मिलाकर तीन डकैती भी डालीं, जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी। २६ से ३१ दिसम्बर १९१८ तक [[दिल्ली]] में लाल किले के सामने हुए [[कांग्रेस]] अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्ला कर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि [[पुलिस]] ने छापा डाला किन्तु बिस्मिल की सूझ बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं।
 
पण्डित गेंदालाल दीक्षित का जन्म [[यमुना]] किनारे स्थित मई गाँव में हुआ था। [[इटावा]] जिले के एक प्रसिद्ध कस्बे [[औरैया]] के [[डीएवी]] [[स्कूल]] में अध्यापक थे। देशभक्ति का जुनून सवार हुआ तो ''शिवाजी समिति'' के नाम से एक संस्था बना ली और हथियार एकत्र करने शुरू कर दिये। [[आगरा]] में हथियार लाते हुए पकड़े गये थे। किले में कैद थे वहाँ से पुलिस को चकमा देकर रफूचक्कर हो गये। बिस्मिल की ''मातृवेदी'' संस्था का विलय शिवाजी समिति में करने के बाद दोनों ने मिलकर कई काम किये। एक बार पुन: पकड़े गये, पुलिस पीछे पड़ी थी, भाग कर दिल्ली चले गये जहां उनका प्राणान्त हुआ। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में पण्डित गेन्दालाल जी का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है।
 
[[मैनपुरी षडयंत्र]] में शाहजहाँपुर से ६ युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। १ नबम्बर १९१९ को मजिस्ट्रेट बी॰ एस॰ क्रिस ने मैनपुरी षडयन्त्र का फैसला सुना दिया। जिन-जिन को सजायें हुईं उनमें मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी १९२० में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया। बिस्मिल पूरे २ वर्ष भूमिगत रहे। उनके दल के ही कुछ साथियों ने शाहजहाँपुर में जाकर यह अफवाह फैला दी कि भाई रामप्रसाद तो पुलिस की गोली से मारे गये जबकि सच्चाई यह थी कि वे पुलिस मुठभेड़ के दौरान यमुना में छलाँग लगाकर पानी के अन्दर ही अन्दर योगाभ्यास की शक्ति से तैरते हुए मीलों दूर आगे जाकर नदी से बाहर निकले और जहाँ आजकल [[ग्रेटर नोएडा]] आबाद हो चुका है वहाँ के निर्जन बीहड़ों में चले गये। वहाँ उन दिनों केवल [[बबूल]] के ही वृक्ष हुआ करते थे; और ऊसर जमीन में आदमी तो कहीं दूर-दूर तक दिखता ही नहीं था।
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== "दि रिवोल्यूशनरी" (घोषणा-पत्र) का प्रकाशन ==
 
क्रान्तिकारी पार्टी की ओर से १ जनवरी १९२५ को किसी गुमनाम जगह से प्रकाशित एवं २८ से ३१ जनवरी १९२५ के बीच समूचे [[हिन्दुस्तान]] के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित ४ पृष्ठ के पैम्फलेट "दि रिवोल्यूशनरी" में राम प्रसाद बिस्मिल ने विजय कुमार के छद्म नाम से अपने दल की विचार-धारा का लिखित रूप में खुलासा करते हुए साफ शब्दों में घोषित कर दिया था कि क्रान्तिकारी इस देश की शासन व्यवस्था में किस प्रकार का बदलाव करना चाहते हैं और इसके लिए वे क्या-क्या कर सकते हैं? केवल इतना ही नहीं, उन्होंने गांधी जी की नीतियों का मजाक बनाते हुए यह प्रश्न भी किया था कि जो व्यक्ति स्वयं को आध्यात्मिक कहता है वह अँग्रेजों से खुलकर बात करने में डरता क्यों है? उन्होंने हिन्दुस्तान के सभी नौजवानों को ऐसे छद्मवेषी [[महात्मा]] के बहकावे में न आने की सलाह देते हुए उनकी क्रान्तिकारी पार्टी में शामिल हो कर अँग्रेजों से टक्कर लेने का खुला आवाहन किया था। ''दि रिवोल्यूशनरी'' के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इस [[क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र)]] में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन*<ref>{{cite book |last1=मदनलाल वर्मा |first1='क्रान्त'|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=सरफ़रोशी की तमन्ना (रामप्रसाद बिस्मिल: व्यक्तित्व और कृतित्व)|url=http://www.worldcat.org/title/sarapharosi-ki-tamanna/oclc/222570896&referer=brief_results |format= |accessdate=१० मई २०१४ |edition=2 |series= |volume= |date= |year=1998 |month= |origyear= |publisher=[[प्रवीण प्रकाशन]]|location=[[नई दिल्ली]] |isbn= |oclc=222570896 |doi= |id= |page=१७० से १७४ |pages= |chapter= |chapterurl= |quote= |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> को भली-भाँति समझा जा सकता है। इस पत्र का अविकल ''हिन्दी काव्यानुवाद''<ref>''स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास'' (लेखक:मदनलाल वर्मा 'क्रान्त') पुस्तक के भाग-तीन में पृष्ठ ६४४ से ६४८ तक</ref> अब हिन्दी विकीस्रोत<ref>[https://wikisource.org/wiki/क्रान्तिकारी_(घोषणा_पत्र) क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र)]</ref> पर भी उपलब्ध है।
 
== काकोरी-काण्ड ==
[[चित्र:Accused of Cacori Conspiracy1271.gif|thumb|right|200px||<big>काकोरी-काण्ड के क्रान्तिकारी</big><br /> <small>सबसे ऊपर [[राम प्रसाद 'बिस्मिल']] एवं [[अशफाक उल्ला खाँ]] नीचे ग्रुप फोटो में क्रमश: (from left to right)1.योगेशचन्द्र चटर्जी, 2.प्रेमकृष्ण खन्ना, 3.मुकुन्दी लाल, 4.विष्णुशरण दुब्लिश, 5.सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य, 6.रामकृष्ण खत्री, 7.मन्मथनाथ गुप्त, 8.राजकुमार सिन्हा, 9.ठाकुर रोशनसिंह, 10.पं॰ रामप्रसाद 'बिस्मिल', 11.राजेन्द्रनाथ लाहिडी, 12.गोविन्दचरण कार, 13.रामदुलारे त्रिवेदी, 14.रामनाथ पाण्डेय, 15.शचीन्द्रनाथ सान्याल, 16.भूपेन्द्रनाथ सान्याल, 17.प्रणवेशकुमार चटर्जी</small>]]
'''दि रिवोल्यूशनरी''' नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय [[घोषणापत्र]] को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को बंगाल में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह घोषणापत्र अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी कानपुर से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही [[हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन|हावड़ा स्टेशन]] पर ट्रेन से उतरे कि एच॰ आर॰ ए॰ के [[संविधान]] की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये। उन्हें [[हजारीबाग]] जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ़ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को [[बिचपुरी]] तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। परन्तु उन्हें उनमें कुछ विशेष धन प्राप्त नहीं हो सका।
 
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</ref>
 
शाहजहाँपुर में उनके घर पर ७ अगस्त १९२५ को हुई एक इमर्जेन्सी मीटिंग में निर्णय लेकर योजना बनी<ref name="श्रीकृष्ण सरल">< /ref> और ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर रेलवे स्टेशन से बिस्मिल के नेतृत्व में कुल १० लोग, जिनमें अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), [[मुरारी शर्मा]] (वास्तविक नाम मुरारी लाल गुप्त) तथा बनवारी लाल शामिल थे, ८ डाउन [[सहारनपुर]]-[[लखनऊ]] पैसेंजर रेलगाड़ी में सवार हुए। इन सबके पास पिस्तौलों के अतिरिक्त [[जर्मनी]] के बने चार [[माउज़र पिस्तौल]] भी थे जिनके बट में कुन्दा लगा लेने से वह छोटी स्वचालित राइफल की तरह लगता था और सामने वाले के मन में भय पैदा कर देता था। इन माउजरों की मारक क्षमता<ref>मन्मथनाथ गुप्त ''भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास'' पृष्ठ-२१० (१००० गज तक)</ref> भी साधारण पिस्तौलों से अधिक होती थी। उन दिनों ये माउजर आज की [[एके47|ए॰ के॰ - ४७ रायफल]] की तरह चर्चित थे। लखनऊ से पहले [[काकोरी]] रेलवे स्टेशन पर रुक कर जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, क्रान्तिकारियों ने चेन खींचकर उसे रोक लिया और गार्ड के डिब्बे से सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। उसे खोलने की कोशिश की गयी किन्तु जब वह नहीं खुला तो [[अशफाक उल्ला खाँ]] ने अपना माउजर [[मन्मथनाथ गुप्त]] को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गये। मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया जिससे छूटी गोली अहमद अली नाम के मुसाफिर को लग गयी। वह मौके पर ही ढेर हो गया। शीघ्रतावश चाँदी के सिक्कों व नोटों से भरे चमड़े के थैले चादरों में बाँधकर वहाँ से भागने में एक चादर वहीं छूट गयी। अगले दिन अखबारों के माध्यम से यह खबर पूरे संसार में फैल गयी। ब्रिटिश सरकार ने इस ट्रेन डकैती को गम्भीरता से लिया और डी॰ आई॰ जी॰ के सहायक (सी॰ आई॰ डी॰ इंस्पेक्टर) मिस्टर आर॰ ए॰ हार्टन<ref>चीफ कोर्ट आफ अवध जजमेण्ट फाइल १९२७, नवल किशोर प्रेस, [[लखनऊ]] पृष्ठ सं० १</ref> के नेतृत्व में [[स्कॉटलैण्ड]] की सबसे तेज तर्रार पुलिस को इसकी जाँच का काम सौंप दिया।
 
== गिरफ्तारी और अभियोग ==
सी॰ आई॰ डी॰ ने गम्भीर छानबीन करके सरकार को इस बात की पुष्टि कर दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है। पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के विज्ञापन सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये। इसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे [[धोबी]] के निशान से इस बात का पता चल गया कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है। शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसी लाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद प्राप्त कर लिया। यह भी पता चल गया कि ९ अगस्त १९२५ को शाहजहाँपुर से उसकी पार्टी के कौन-कौन लोग शहर से बाहर गये थे और वे कब-कब वापस आये? जब खुफिया तौर से इस बात की पुष्टि हो गयी कि राम प्रसाद बिस्मिल, जो एच॰ आर॰ ए॰ का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था तो २६ सितम्बर १९२५ की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से ४० से भी अधिक<ref name="ReferenceA">[[मन्मथनाथ गुप्त]] ''भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास'', [[आत्माराम एण्ड सन्स]] नई दिल्ली, पृष्ठ-२१२</ref> लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
 
काकोरी काण्ड में केवल १० ही लोग वास्तविक रूप से शामिल हुए थे अत: उन सभी को नामजद किया गया। इनमें से पाँच - चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा<ref>{{cite book |last1=जगदीश |first1=जगेश|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=कलम आज उनकी जय बोल |url=|format= |accessdate=२ अप्रैल २०१४ |edition=1 |series= |volume= |date= |year=१९८९ |month= |origyear= |publisher=प्रचारक ग्रन्थावली परियोजना [[हिन्दी प्रचारक संस्थान]]|location=[[वाराणसी]]|isbn=|oclc= |doi= |id= |page=१५७ |pages= |chapter= |chapterurl= |quote= |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> (छद्मनाम), केशव चक्रवर्ती (छद्मनाम), अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला और उन्हें ५ वर्ष की कैद से लेकर फाँसी तक की सजा सुनायी गयी। फरार अभियुक्तों के अतिरिक्त जिन-जिन क्रान्तिकारियों को '''एच॰ आर॰ ए॰''' का सक्रिय कार्यकर्ता होने के सन्देह में गिरफ्तार किया गया था उनमें से १६ को [[साक्ष्य]] न मिलने के कारण रिहा कर दिया गया। स्पेशल मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने प्रत्येक क्रान्तिकारी की छबि खराब करने में कोई कसर बाकी नहीं रक्खी। सिर्फ़ इतना ही नहीं, केस को सेशन कोर्ट में भेजने से पहले ही इस बात के सभी साक्षी व साक्ष्य एकत्र कर लिये थे कि यदि अपील भी की जाये तो एक भी अभियुक्त बिना सजा के छूटने न पाये।
<!-- [[चित्र:Cacori Column1283.gif|thumb|right|200px|जी॰ पी॰ ओ॰ लखनऊ के सामने '''रिंग थियेटर''' की स्मृति में लगे '''काकोरी स्तम्भ''' का उद्घाटन करते यू॰पी॰ के राज्यपाल गणपतिराव देवराव तपासे]] चित्र साफ नहीं है। जब तक मुक्त व साफ चित्र ना मिले इस टिप्पणी को ना हटायें।-->
बनारसी लाल को हवालात में ही पुलिस ने कड़ी सजा का भय दिखाकर तोड़ लिया। शाहजहाँपुर जिला काँग्रेस कमेटी में पार्टी-फण्ड को लेकर इसी बनारसी का बिस्मिल से झगड़ा हो चुका था। बिस्मिल ने, जो उस समय जिला काँग्रेस कमेटी के ऑडीटर थे, बनारसी पर पार्टी-फण्ड में गबन का आरोप सिद्ध करते हुए उसे काँग्रेस पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया था। बाद में जब गांधी जी १६ अक्टूबर १९२० (शनिवार) को शाहजहाँपुर आये तो बनारसी ने उनसे मिलकर अपना पक्ष रक्खा। गान्धी जी ने उस समय यह कहकर कि छोटी-मोटी हेरा-फेरी को इतना तूल नहीं देना चाहिये, इन दोनों में सुलह करा दी। परन्तु बनारसी बड़ा ही धूर्त आदमी था। उसने पहले तो बिस्मिल से माफी माँग ली फिर गांधी जी को अलग ले जाकर उनके कान भर दिये कि रामप्रसाद बड़ा ही अपराधी किस्म का व्यक्ति है। वे इसकी किसी बात का न तो स्वयं विश्वास करें न ही किसी और को करने दें।
 
आगे चलकर इसी बनारसी लाल ने बिस्मिल से मित्रता कर ली और मीठी-मीठी बातों से पहले उनका विश्वास अर्जित किया और उसके बाद उनके साथ कपड़े के व्यापार में साझीदार बन गया। जब बिस्मिल ने गान्धी जी की आलोचना करते हुए अपनी अलग पार्टी बना ली तो बनारसी लाल अत्यधिक प्रसन्न हुआ और मौके की तलाश में चुप साधे बैठा रहा। पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को अप्रूवर (सरकारी गवाह) बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में एक अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी ऐसी-ऐसी गोपनीय बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। इसका उल्लेख राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में किया है।
 
[[लखनऊ]] जिला जेल, जो उन दिनों संयुक्त प्रान्त (यू॰पी॰) की सेण्ट्रल जेल कहलाती थी, की ११ नम्बर बैरक<ref>[http://www.indianexpress.com/news/history-in-a-barrack/488177/ एक बैरक में इतिहास (History in a barrack)] - 12 जुलाई 2009 [[इंडियन एक्सप्रेस]] का एक समाचार, अभिगमन तिथि: ४ मई २०१४</ref> में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रक्खा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया। रिंग थियेटर नाम की यह बिल्डिंग कोठी हयात बख्श और मल्लिका अहद महल के बीच हुआ करती थी जिसमें ब्रिटिश अफसर आकर फिल्म व नाटक आदि देखकर मनोरंजन किया करते थे। इसी रिंग थियेटर में लगातार १८ महीने तक ''किंग इम्परर वर्सेस राम प्रसाद 'बिस्मिल' एण्ड अदर्स'' के नाम से चलाये गये ऐतिहासिक मुकदमे में ब्रिटिश सरकार ने १० लाख रुपये<ref>[[मन्मथनाथ गुप्त]] ''भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास'', [[आत्माराम एण्ड सन्स]] नई दिल्ली, पृष्ठ-२१२<name="ReferenceA"/ref> उस समय खर्च किये थे जब सोने का मूल्य २० रुपये तोला (१२ ग्राम) हुआ करता था। ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश से यह बिल्डिंग भी बाद में ढहा दी गयी और उसकी जगह सन १९२९-१९३२ में जी॰ पी॰ ओ॰ (मुख्य डाकघर) लखनऊ<ref>http://sites.google.com/site/lucknowtravelguide/gpo-lucknow</ref> के नाम से एक दूसरा भव्य भवन बना दिया गया। १९४७ में जब भारत आजाद हो गया तो यहाँ गांधी जी की भव्य प्रतिमा स्थापित करके रही सही कसर नेहरू सरकार ने पूरी कर दी। जब केन्द्र में गैर काँग्रेसी [[जनता पार्टी|जनता सरकार]] का पहली बार गठन हुआ तो उस समय के जीवित क्रान्तिकारियों के सामूहिक प्रयासों से सन् १९७७ में आयोजित '''काकोरी शहीद अर्द्धशताब्दी समारोह''' के समय यहाँ पर काकोरी स्तम्भ का अनावरण उत्तर प्रदेश के [[राज्यपाल]] गणपतिराव देवराव तपासे ने किया ताकि उस स्थल की स्मृति बनी रहे।
<!-- [[चित्र:Jagat Narayan Mulla.jpg|thumb|right|200px|सरकारी वकील [[जगत नारायण मुल्ला|जगतनारायण 'मुल्ला']]]] कॉपीराइट जानकारी क्लीयर नहीं। -->
 
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६ अप्रैल १९२७ को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने ११५ पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु [[ब्रिटिश साम्राज्य]] को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चाताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चाताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकती है।
 
फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी। विशेष जज जे॰ आर॰ डब्लू॰ बैनेट की अदालत में काकोरी षड़यंत्र का अतिरिक्त केस दायर किया गया और १३ जुलाई १९२७ को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को [[फाँसी]] तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी। सेशन जज के फैसले के खिलाफ १८ जुलाई १९२७ को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रज़ा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि सजायाफ्ता क्रान्तिकारियों की ओर से के॰ सी॰ दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की क्योंकि सरकारी खर्चे पर उन्हें लक्ष्मीशंकर मिश्र नाम का एक बड़ा साधारण-सा वकील दिया गया था जिसको लेने से उन्होंने साफ मना कर दिया।
 
बिस्मिल ने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की तो सरकारी वकील मुल्ला जी बगलें झाँकते नजर आये। बिस्मिल की इस तर्क क्षमता पर चीफ जस्टिस लुइस शर्टस को उनसे यह पूछना पड़ा - ''"मिस्टर रामप्रसाद! फ्रॉम व्हिच यूनीवर्सिटी यू हैव टेकेन द डिग्री ऑफ लाॅ?"'' (राम प्रसाद! तुमने किस विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री ली है?) इस पर उन्होंने हँस कर कहा था- ''"एक्सक्यूज मी सर! ए किंगमेकर डजन्ट रिक्वायर ऐनी डिग्री।"'' (क्षमा करें महोदय! सम्राट बनाने वाले को किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं होती।) अदालत ने इस जवाब से चिढ़कर बिस्मिल द्वारा १८ जुलाई १९२७ को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी। उसके बाद उन्होंने ७६ पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश की। उसे पढ़ कर जजों ने यह शंका व्यक्त की कि यह बहस बिस्मिल ने स्वयं न लिखकर किसी विधिवेत्ता से लिखवायी है। आखिरकार अदालत द्वारा उन्हीं लक्ष्मीशंकर मिश्र को बहस करने की इजाजत दी गयी जिन्हें लेने से बिस्मिल ने मना कर दिया था।
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चीफ कोर्ट में शचीन्द्र नाथ सान्याल, भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल को छोड़कर शेष सभी क्रान्तिकारियों ने अपील की थी। २२ अगस्त १९२७ को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को आई॰ पी॰ सी॰ की दफा १२१ (ए) व १२० (बी) के अन्तर्गत आजीवन कारावास तथा ३०२ व ३९६ के अनुसार फाँसी एवं ठाकुर रोशन सिंह को पहली दो दफाओं में ५+५ = कुल १० वर्ष की कड़ी कैद तथा अगली दो दफाओं के अनुसार फाँसी का हुक्म हुआ। [[शचींद्रनाथ सान्याल|शचीन्द्र नाथ सान्याल]], जब जेल में थे तभी लिखित रूप से अपने किये पर पश्चाताप प्रकट करते हुए भविष्य में किसी भी क्रान्तिकारी कार्रवाई में हिस्सा न लेने का वचन दे चुके थे। इसके आधार पर उनकी उम्र-कैद बरकरार रही। शचीन्द्र के छोटे भाई भूपेन्द्र नाथ सान्याल व बनवारी लाल ने अपना-अपना जुर्म कबूल करते हुए कोर्ट की कोई भी सजा भुगतने की अण्डरटेकिंग पहले ही दे रखी थी इसलिये उन्होंने अपील नहीं की और दोनों को ५-५ वर्ष की सजा के आदेश यथावत रहे। चीफ कोर्ट में अपील करने के बावजूद योगेशचन्द्र चटर्जी, मुकुन्दी लाल व गोविन्दचरण कार की सजायें १०-१० वर्ष से बढ़ाकर उम्र-कैद में बदल दी गयीं। सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य व विष्णुशरण दुब्लिश की सजायें भी यथावत (७ - ७ वर्ष) कायम रहीं। खूबसूरत हैण्डराइटिंग में लिखकर अपील देने के कारण केवल प्रणवेश चटर्जी की सजा को ५ वर्ष से घटाकर ४ वर्ष कर दिया गया। इस काण्ड में सबसे कम सजा (३ वर्ष) रामनाथ पाण्डेय को हुई। [[मन्मथनाथ गुप्त]], जिनकी गोली से मुसाफिर मारा गया, की सजा १० से बढ़ाकर १४ वर्ष कर दी गयी। काकोरी काण्ड में प्रयुक्त माउजर पिस्तौल के कारतूस चूँकि [[प्रेमकृष्ण खन्ना]] के शस्त्र-लाइसेन्स पर खरीदे गये थे जिसके पर्याप्त साक्ष्य मिल जाने के कारण प्रेमकृष्ण खन्ना को ५ वर्ष के कठोर कारावास की सजा भुगतनी पड़ी।<ref name="Sharma">{{cite book |last1=Sharma |first1=Vidyarnav |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=Yug Ke Devta: Bismil Aur Ashfaq |url=http://www.worldcat.org/title/yuga-ke-devata-bismila-aura-asfaka/oclc/166276255&referer=brief_results |format= |accessdate=14 मई 2014 |edition=2 |series= |volume= |date= |year=2004 |month= |origyear= |publisher=Praveen Prakashan |location=[[New Delhi]] |isbn=81-7783-078-3|oclc=166276255 |doi= |id= |page=118-119 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote= |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>
चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। ठाकुर मनजीत सिंह राठौर ने सेण्ट्रल लेजिस्लेटिव कौन्सिल में काकोरी काण्ड के सभी फाँसी (मृत्यु-दण्ड) प्राप्त कैदियों की सजायें कम करके आजीवन कारावास (उम्र-कैद) में बदलने का प्रस्ताव पेश करने की सूचना दी। कौन्सिल के कई सदस्यों ने सर विलियम मोरिस को, जो उस समय संयुक्त प्रान्त के गवर्नर थे, इस आशय का एक प्रार्थना-पत्र भी दिया किन्तु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया।
 
सेण्ट्रल कौन्सिल के ७८ सदस्यों ने तत्कालीन वायसराय व गवर्नर जनरल एडवर्ड फ्रेडरिक लिण्डले वुड को [[शिमला]] में हस्ताक्षर युक्त मेमोरियल भेजा जिस पर प्रमुख रूप से पं॰ मदन मोहन मालवीय, [[मोहम्मद अली जिन्ना]], एन॰ सी॰ केलकर, [[लाला लाजपत राय]], [[गोविन्द वल्लभ पन्त]], आदि ने हस्ताक्षर किये थे किन्तु वायसराय पर उसका भी कोई असर न हुआ। अन्त में [[मदन मोहन मालवीय]] के नेतृत्व में पाँच व्यक्तियों का एक प्रतिनिधि मण्डल शिमला जाकर वायसराय से मिला और उनसे यह प्रार्थना की कि चूँकि इन चारो अभियुक्तों ने लिखित रूप में सरकार को यह वचन दिया है कि वे भविष्य में इस प्रकार की किसी भी गतिविधि में हिस्सा न लेंगे और उन्होंने अपने किये पर पश्चाताप भी प्रकट किया है अतः जजमेण्ट पर पुनर्विचार किया जा सकता है। चीफ कोर्ट ने अपने फैसले में भी यह बात लिखी थी। इसके बावजूद वायसराय ने उन्हें साफ मना कर दिया।
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इत्र फुलेल और फूलों की वर्षा के बीच उनकी लाश का जुलूस जा रहा था। दुकानदारों ने उनके शव के ऊपर वेशुमार पैसे फेंके। दोपहर ११ बजे आपकी लाश शमशान-भूमि पहुँची और अन्तिम-क्रिया समाप्त हुई। आपके पत्र का आखिरी हिस्सा आपकी सेवा में प्रस्तुत है - 'मैं खूब सुखी हूँ। १९ तारीख को प्रातः जो होना है उसके लिये तैयार हूँ। परमात्मा मुझे काफी शक्ति देंगे। मेरा विश्वास है कि मैं लोगों की सेवा के लिये फिर जल्द ही इस देश में जन्म लूँगा। सभी से मेरा नमस्कार कहें। दया कर इतना काम और करना कि मेरी ओर से पण्डित जगतनारायण (सरकारी वकील, जिन्होंने इन्हें फाँसी लगवाने के लिये बहुत जोर लगाया था) को अन्तिम नमस्कार कह देना। उन्हें हमारे खून से लथपथ रुपयों के बिस्तर पर चैन की नींद आये। बुढ़ापे में ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे।"
 
रामप्रसाद जी की सारी हसरतें दिल-ही-दिल में रह गयीं। आपने एक लम्बा-चौड़ा ऐलान किया है जिसे संक्षेप में हम दूसरी जगह दे रहे हैं। फाँसी से दो दिन पहले सी.आई.डी. के डिप्टी एस.पी. और सेशन जज मि. हैमिल्टन आपसे मिन्नतें करते रहे कि आप मौखिक रूप से सब बातें बता दो। आपको पन्द्रह हजार रुपया नकद दिया जायेगा और सरकारी खर्चे पर विलायत भेजकर बैरिस्टर की पढ़ाई करवाई जायेगी। लेकिन आप कब इन सब बातों की परवाह करते थे। आप तो हुकूमतों को ठुकराने वाले व कभी-कभार जन्म लेने वालों में से थे। मुकदमे के दिनों आपसे जज ने पूछा था - 'आपके पास कौन सी डिग्री है?' तो आपने हँसकर जवाब दिया था - 'सम्राट बनाने वालों को डिग्री की कोई जरूरत नहीं होती, क्लाइव के पास भी तो कोई डिग्री नहीं थी।' आज वह वीर हमारे बीच नहीं है, आह!"<ref>[http://books.google.co.in/books?id=w5LliYQaQgwC&pg=PA86 भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़], जगमोहन सिंह और चमनलाल, [[गूगल बुक]] पृष्ठ ८६-८७ </ref>
== अस्थि-कलश की स्थापना ==
बिस्मिल की अन्त्येष्टि के बाद बाबा राघव दास ने गोरखपुर के पास स्थित [[देवरिया]] जिले के बरहज नामक स्थान पर ताम्रपात्र में उनकी अस्थियों को संचित कर एक चबूतरा जैसा स्मृति-स्थल बनवा दिया। <ref > अरविन्द 'पथिक', [[2006]], बिस्मिल चरित, सापेक्ष प्रकाशन, [[गाजियाबाद]], ISBN: 81-903186-3-8, पृष्ठ: 131</ref >
 
== फाँसी के बाद क्रान्तिकारी आन्दोलन में तेज़ी ==
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१९२७ में बिस्मिल के साथ ३ अन्य क्रान्तिकारियों के बलिदान ने पूरे हिन्दुस्तान के हृदय को हिलाकर रख दिया। ९ अगस्त १९२५ के काकोरी काण्ड के फैसले से उत्पन्न परिस्थितियाँ ने [[भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम]] की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। समूचे देश में स्थान-स्थान पर चिनगारियों के रूप में नई-नई समितियाँ गठित हो गयीं। [[बेतिया]] (बिहार) में फणीन्द्रनाथ का '''हिन्दुस्तानी सेवा दल''', [[पंजाब]] में सरदार [[भगत सिंह]] की '''नौजवान सभा''' तथा [[लाहौर]] (अब पाकिस्तान) में [[सुखदेव]] की '''गुप्त समिति''' के नाम से कई क्रान्तिकारी संस्थाएँ जन्म ले चुकी थीं। हिन्दुस्तान के कोने-कोने में क्रान्ति की आग दावानल की तरह फैल चुकी थी। [[कानपुर]] से गणेशशंकर विद्यार्थी का '''प्रताप''' व [[गोरखपुर]] से दशरथ प्रसाद द्विवेदी का '''स्वदेश''' जैसे अखबार इस आग को हवा दे रहे थे।
 
काकोरी काण्ड के एक प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद, जिन्हें राम प्रसाद बिस्मिल उनके [[पारा|पारे]] (mercury) जैसे चंचल स्वभाव के कारण ''क्विक सिल्वर'' कहा करते थे, पूरे हिन्दुस्तान में भेस बदल कर घूमते रहे। उन्होंने भिन्न-भिन्न समितियों के प्रमुख संगठनकर्ताओं से सम्पर्क करके सारी क्रान्तिकारी गतिविधियों को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया। ८ व ९ सितम्बर १९२८ में फिरोजशाह कोटला दिल्ली में ''[[हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन|एच॰ आर॰ ए॰]]'', नौजवान सभा, हिन्दुस्तानी सेवा दल व गुप्त समिति का विलय करके ''[[हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन|एच॰ एस॰ आर॰ ए॰]]'' नाम से एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी का गठन हुआ। इस पार्टी को बिस्मिल के बताये रास्ते पर चलकर ही देश को आजाद कराना था किन्तु [[ब्रिटिश साम्राज्य]] के दमन चक्र ने वैसा भी नहीं होने दिया।
 
[[File:BTStoneNalgadha1760.jpg|thumb|right|200px|नोएडा-ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे के समीप स्थित नलगढ़ा गाँव में रखा ऐतिहासिक पत्थर जिसका प्रयोग भगतसिंह ने बम बनाने के लिये किया]]
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९ अगस्त १९४२ को दिन निकलने से पहले ही काँग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्य गिरफ्तार हो चुके थे और काँग्रेस को गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया। गान्धी जी के साथ भारत कोकिला [[सरोजिनी नायडू]] को यरवदा (पुणे) के आगा खान पैलेस में सारी सुविधाओं के साथ, [[डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद]] को [[पटना]] जेल में व अन्य सभी सदस्यों को [[अहमदनगर]] के किले में नजरबन्द रखने का नाटक [[ब्रिटिश साम्राज्य]] ने किया था ताकि जनान्दोलन को दबाने में बल-प्रयोग से इनमें से किसी को कोई हानि न हो। सरकारी आँकड़ों के अनुसार इस जनान्दोलन में ९४० लोग मारे गये १६३० घायल हुए,१८००० डी० आई० आर० में नजरबन्द हुए तथा ६०२२९ गिरफ्तार हुए। आन्दोलन को कुचलने के ये आँकड़े [[दिल्ली]] की सेण्ट्रल असेम्बली में ऑनरेबुल होम मेम्बर ने पेश किये थे।
 
सन् १९४३ से १९४५ तक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने [[आजाद हिन्द फौज]] का नेतृत्व किया। उनके सैनिक "सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है; देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?" जैसा ''सम्बोधि - गीत'' और "कदम-कदम बढाये जा, खुशी के गीत गाये जा; ये जिन्दगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा!" सरीखे ''कौमी-तराने'' फौजी बैण्ड की धुन के साथ गाते हुए [[सिंगापुर]] के रास्ते [[कोहिमा]](नागालैण्ड) तक आ पहुँचे। तभी [[जापान]] पर अमरीकी परमाणु हमले के कारण नेताजी को अपनी रणनीति बदलनी पड़ी। वे विमान से [[रूस]] जाने की तैयारी में जैसे ही फारमोसा के ताईहोकू एयरबेस से उड़े कि १८ अगस्त १९४५ को उनके ९७-२ मॉडल हैवी बॉम्बर प्लेन में आग लग गयी। उन्हें घायल अवस्था में ताईहोकू ''आर्मी हॉस्पिटल'' ले जाया गया जहाँ रात ९ बजे उनकी मृत्यु हो गयी।<ref >{{cite book |last1=क्रान्त|first1=मदनलाल वर्मा |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate=14 मई 2014 |edition=1 |series= |volume=3 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=[[प्रवीण प्रकाशन]] |location=[[नई दिल्ली]] |isbn= 81-7783-121-6|oclc= |doi= |id= |page=846 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=|bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>
 
नेताजी की मौत और आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकदमे की खबर ने पूरे हिन्दुस्तान में तूफान मचा दिया। इसके फलस्वरूप [[दूसरे विश्वयुद्ध]] के बाद बम्बई बन्दरगाह पर उतरे नौसैनिकों ने बगावत कर दी। १८ फ़रवरी १९४६ को [[बम्बई]] से शुरू हुआ यह ''नौसैनिक विद्रोह'' देश के सभी बन्दरगाहों व महानगरों में फैल गया। २१ फ़रवरी १९४६ को [[ब्रिटिश]] आर्मी ने बम्बई पहुँच कर हमारे नौसैनिकों पर गोलियाँ चलायीं जिसके परिणामस्वरूप केवल २२ फ़रवरी १९४६ को ही २२८ लोग मारे गये तथा १०४६ घायल हुए। यह उस समय का सबसे भयंकर दमन था जो क्रूर ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुस्तान में किया।<ref>{{cite book |last1=क्रान्त |first1=|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate=10 मई 2014 |edition=1 |series= |volume=1 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=प्रवीण प्रकाशन |location=नई दिल्ली |isbn= 81-7783-119-4|oclc= |doi= |id= |page=66 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote= |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>
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== बिस्मिल का क्रान्ति-दर्शन ==
[[चित्र:Release of Sarfaroshi ki Tamanna by A.B.Vajpayee.jpg|thumb|right|200px|बिस्मिल की पुस्तकों के लोकार्पण का चित्र। बायें से क्रमश: [[लेखक]], [[प्रकाशक]], [[विजय कुमार मलहोत्रा]] एवं पूर्व प्रधानमन्त्री [[अटल बिहारी वाजपेयी]] (सबसे दायीं ओर)]]
[[भारतवर्ष]] को [[ब्रिटिश साम्राज्य]] से मुक्त कराने में यूँ तो असंख्य वीरों ने अपना अमूल्य बलिदान दिया परन्तु राम प्रसाद बिस्मिल एक ऐसे अद्भुत क्रान्तिकारी थे जिन्होंने अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्म लेकर साधारण शिक्षा के बावजूद असाधारण प्रतिभा और अखण्ड पुरुषार्थ के बल पर ''हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ'' के नाम से देशव्यापी संगठन खड़ा किया जिसमें एक - से - बढ़कर एक तेजस्वी व मनस्वी नवयुवक शामिल थे जो उनके एक इशारे पर इस देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन कर सकते थे किन्तु [[अहिंसा]] की दुहाई देकर उन्हें एक-एक करके मिटाने का क्रूरतम षड्यन्त्र जिन्होंने किया उन्हीं का चित्र [[भारतीय]] पत्र मुद्रा (Paper Currency) पर दिया जाता है। जबकि [[अमरीका]] में एक व दो अमरीकी डॉलर पर आज भी [[जॉर्ज वाशिंगटन]] का ही चित्र छपता है जिसने [[अमरीका]] को अँग्रेजों से मुक्त कराने में प्रत्यक्ष रूप से आमने-सामने [[युद्ध]] लड़ा था।
 
बिस्मिल की पहली पुस्तक सन् १९१६ में छपी थी जिसका नाम था-''अमेरिका की स्वतन्त्रता का इतिहास''। बिस्मिल के ''जन्म शताब्दी वर्ष: १९९६-१९९७'' में यह पुस्तक स्वतन्त्र भारत में फिर से प्रकाशित हुई जिसका विमोचन [[भारत]] के पूर्व प्रधानमन्त्री [[अटल बिहारी वाजपेयी]] ने किया।"<ref>[[हिन्दुस्तान (समाचार पत्र)]] (हिन्दी दैनिक) [[नई दिल्ली]], २० दिसम्बर १९९६, "क्रान्तिकारियों के साथ हमने न्याय नहीं किया": वाजपेयी, अभिगमन तिथि: २ अप्रैल २०१४</ref> उस कार्यक्रम में [[राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ]] के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो॰ [[राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया)]] भी उपस्थित थे।<ref>[[दैनिक जागरण]] (हिन्दी दैनिक) [[नई दिल्ली]], २० दिसम्बर १९९६ "देशवासी महान क्रान्तिकारियों को भूल रहे हैं": वाजपेयी, अभिगमन तिथि: २ अप्रैल २०१४</ref> इस सम्पूर्ण ग्रन्थावली में बिस्मिल की लगभग दो सौ प्रतिबन्धित कविताओं के अतिरिक्त पाँच पुस्तकें भी शामिल की गयी थीं। परन्तु आज तक किसी भी सरकार ने बिस्मिल के क्रान्ति-दर्शन को समझने व उस पर शोध करवाने का प्रयास ही नहीं किया। जबकि गान्धी जी द्वारा १९०९ में विलायत से [[हिन्दुस्तान]] लौटते समय पानी के जहाज पर लिखी गयी पुस्तक [[हिन्द स्वराज]] पर अनेकोँ संगोष्ठियाँ हुईं। बिस्मिल सरीखे असंख्य शहीदों के सपनों का भारत बनाने की आवश्यकता है।
 
== साहित्य रचना ==
बिस्मिल एक लेखक थे और उन्होंने कई कविताएँ, ग़ज़लें एवं पुस्तकें लिखी थीं। कुछ प्रमुख कविताओं व ग़ज़लों के बारे में नीचे दिया जा रहा है।
 
=== कविताएँ एवं ग़ज़लें ===
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# ''स्वदेशी रंग'',
# ''चीनी-षड्यन्त्र (चीन की राजक्रान्ति)'',
# ''तपोनिष्ठ अरविन्द घोष की कारावास कहानी''<ref >{{cite book|author=[[मदनलाल वर्मा 'क्रान्त']]|publisher:अनुराग प्रकाशन|place=23, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली|volume=1|year=[[2014]]|ISBN=978-81-87779-94-0}}</ref >
# ''अशफ़ाक की याद में'',
# ''सोनाखान के अमर शहीद-'वीरनारायण सिंह''',
पंक्ति 226:
</ref>
 
कुल आठ भाषाओं में इसका [[अनुवाद]] प्रकाशित हो चुका है।<ref>[http://www.worldcat.org/search?q=su%3ABismila%2C+Ra%CC%84maprasa%CC%84da%2C+1897-1927.&fq=&dblist=638&fc=ln:_25&qt=show_more_ln%3A&cookie विश्व पुस्तक सूचीपत्र (वर्ल्डकैट) में राम प्रसाद 'बिस्मिल' की पुस्तकों की सूची], accessdate=7 मार्च 2014</ref> क्रान्तिकारियों के जीवन के ऊपर सर्वाधिक ग्रन्थ लिखने वाले हिन्दी साहित्यकार [[श्रीकृष्ण सरल]] ने अपने ग्रन्थ क्रान्तिकारी कोश में बिस्मिल की आत्मकथा को नवयुवकों के लिये एक आदर्श मार्गनिर्देशिका बतलाया है। इसमें उनके एकादश वर्षीय क्रान्तिकारी जीवन का निचोड़ दिया गया है। इसे आद्योपान्त पढ़ने के बाद कैसा भी नवयुवक हो, व्यवस्था-परिवर्तन अथवा [[क्रांति|क्रान्ति]] के लिये हिंसा का मार्ग अपना ही नहीं सकता।<ref name="श्रीकृष्ण सरल">< /ref>
 
== बिस्मिल के साहित्य का अनुसन्धान व प्रकाशन ==
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[[राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ]] के चतुर्थ सरसंघचालक [[राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया)|रज्जू भैया]] ने एक पुस्तक<ref>{{cite book |last1=मदनलाल वर्मा |first1='क्रान्त'|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=सरफ़रोशी की तमन्ना (रामप्रसाद बिस्मिल: व्यक्तित्व और कृतित्व)|url=http://www.worldcat.org/title/sarapharosi-ki-tamanna/oclc/222570896&referer=brief_results |format= |accessdate= |edition=2 |series= |volume= |date= |year=1998 |month= |origyear= |publisher=[[प्रवीण प्रकाशन]]|location=नई दिल्ली |isbn= |oclc=222570896 |doi= |id= |page=७ आशीर्वचन |pages= |chapter= |chapterurl= |quote= |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> में बिस्मिल के बारे में लिखा है:
 
''"मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग [[शाहजहाँपुर]] में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में [[काकोरी काण्ड]] के एक प्रमुख सहयोगी श्री [[प्रेमकृष्ण खन्ना]] के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री [[राम प्रसाद 'बिस्मिल']] प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि 'बिस्मिल' जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बड़ा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बड़ा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: 'बिस्मिल' जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।"'' - प्रो॰ राजेन्द्र सिंह [[सरसंघचालक]] '''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ'''
 
=== रामविलास शर्मा ===
पंक्ति 310:
{{भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम}}
 
{{Authority control}}
 
{{Persondata <!-- मेटाडाटा: [[विकिपीडिया:व्यक्तिगत आँकड़े]] देखें। -->
| NAME =Bismil, Ram Prasad
Line 319 ⟶ 322:
| PLACE OF DEATH = गोरखपुर जेल (उत्तर प्रदेश), भारत
}}
 
{{Authority control}}
 
[[श्रेणी:1897 में जन्मे लोग]]
[[श्रेणी:१९२७ में निधन]]