"कला": अवतरणों में अंतर

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== कला का महत्त्व ==
जीवन, ऊर्जा का [[महासागर]] है। जब अंतश्‍चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रुप में उभारती है। कला जीवन को '''सत्‍यम् शिवम् सुन्‍दरम्''' से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्‍मा का सत्‍य स्‍वरुप झलकता है। कला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं।नहीं, इतनी विशाल इतनी विस्‍तृत।विस्‍तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे।समेटे, तभी तो कवि मन कह उठा-
 
: '''साहित्‍य संगीत कला वि‍हीनः साक्षात् पशुः पुच्‍छ विषाणहीनः ॥'''
 
[[रबीन्द्रनाथरवीन्द्रनाथ ठाकुर]] के मुख से निकला “कला में मनुष्‍य अपने भावों की अभिव्‍यक्ति करता है ” तो [[प्लेटो]] ने कहा - “कला सत्‍य की अनुकृति के अनुकृति है।”
 
[[लेव तालस्तोय|टालस्‍टाय]] के शब्‍दों में अपने भावों की क्रिया, रेखा रंग ध्‍वनि या शब्‍द द्वारा इस प्रकार अभिव्‍यक्ति करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव उत्‍पन्‍न हो जाए कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रुप लेती है, कलाकार का अन्‍तर्मन मानो मूर्त ले उठता है चाहे लेखनी उसका माध्‍यम हो या रंगों से भीभीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्‍यम है। यह ‍कठिन तपस्‍या है, साधना है। इसी के माध्‍यम से कलाकार सुनहरी और इन्‍द्रधनुषइन्‍द्रधनुषी आत्‍मा से स्‍वप्निल विचारों को साकार रुप देता है।
 
कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्‍थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्‍य केवल मनुष्‍य रह जाता है। कला व्‍यक्ति के मन में बनी स्‍वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्‍तृत और व्‍यापकता प्रदान करती है। व्‍यक्ति के मन को उदात्‍त बनाती है। वह व्‍यक्ति को “स्‍व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्‍बकम्” से जोड़ती है।
 
कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्‍दर्य, प्रवाह, उल्‍लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है, जिसमें मानवीयता को सम्‍मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्‍काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्‍तरण प्रस्‍तुत कर सकती है।
 
जब यह कला [[संगीत]] के रुप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्‍वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्‍य आत्‍मविस्‍मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्‍हार राग से मेघ बरसना यह कला की साधना का ही चरमोत्‍कर्ष है। संगीत की साधना; सुरों की साधना है। मिलन है आत्‍मा से परमात्‍मा का; अभिव्‍यक्ति है अनुभूति की।
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संगीत के बाद ये ललित-कलाओं में स्‍थान दिया गया है तो वह है- [[नृत्‍यकला]]। चाहे वह भरतनाट्यम हो या कत्‍थक, मणिपुरी हो या कुचिपुड़ी। विभिन्‍न भाव-भंगिमाओं से युक्‍त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को ये नृत्‍य जीवन्‍तता प्रदान करते हैं। शास्‍त्रीय नृत्‍य हो या लोकनृत्‍य इनमें खोकर तन ही नहीं मन भी झूम उठता है।
 
कलाओं में कला, श्रेष्‍ठ कला, वह है [[चित्रकला]]। मनुष्‍य स्‍वभाव से ही अनुकरण की प्रवृत्ति रखता है। जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्‍न करता है। यही उसकी आत्‍माभिव्‍यंजना है। अपनी रंगों से भरी तूलिका से चित्रकार जन भावनाओं की अभिव्‍यक्ति करता है तो दर्शक हतप्रभ रह जाता है। पाषाण युग से ही जो चित्र पारितोषक होते रहे हैं ये मात्र एक विधा नहीं, अपितू ये मानवता के विकास का एक निश्चित सोपान प्रस्‍तुत करते हैं। चित्रों के माध्‍यम से आखेट करने वाले आदिम मानव ने न केवल अपने संवेगों को बल्कि रहस्‍यमय प्रवृत्ति और जंगल के खूंखार प्रवासियों के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष को भी अभिव्‍यक्‍त किया है। धीरे-धीरे चित्रकला शिल्‍पकला सोपान चढ़ी। सिन्‍धुघाटी सभ्‍यता में पाये गये चित्रों में पशु-पक्षी मानवआकृतिमानव आकृति सुन्‍दर प्रतिमाएँ, ज्यादा नमूने भारत की आदिसभ्‍यता की कलाप्रियता का द्योतक है।
 
[[अजन्‍ता]], बाध आदि के गुफा चित्रों की कलाकृतियों पूर्व बौद्धकाल के अन्‍तर्गत आती है। भारतीय कला का उज्‍ज्वल इतिहास भित्ति चित्रों से ही प्रारम्‍भ होता है और संसार में इनके समान चित्र कहीं नहीं बने ऐसा विद्वानों का मत है। अजन्‍ता के कला मन्दिर प्रेम, धैर्य, उपासना, भक्ति, सहानुभूति, त्‍याग तथा शान्ति के अपूर्व उदाहरण है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कला" से प्राप्त