"जातक कथाएँ": अवतरणों में अंतर

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इसी प्रकार रोमांच के रूप में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि नाटकीय आख्यान के रूप में छदन्त जातक (514) आदि, एक ही विषय पर कहे हुए कथनों के संकलन के रूप में कुणाल जातक (536) आदि, संक्षिप्त नाटक के रूप में उम्मदन्ती जातक (527) आदि, नीतिपरक कथाओं के रूप में गुण जातक (157) आदि, पूरे महाकाव्य के रूप में पेस्सन्तर जातक (547) आदि एवं ऐतिहासिक संवादों के रूप में संकिच्च जातक (530) और महानारदकस्सप जातक (544) आदि। अनेक प्रकार के वर्णनात्मक आख्यान जातक में भरे पड़े हैं, जिनकी साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त रूप में भी नहीं किया जा सकता।
 
==साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान==
बुद्धकालीन भारत के समाज, धर्म, राजनीति, भूगोल, लौकिक विश्वास, आर्थिक एवं व्यापारिक अवस्था एवं सर्वाधिक जीवन की पूरी सामग्री हमें जातक में मिलती है। जातक केवल लोक-कथाओं का प्राचीनतम संग्रह भर नहीं हैं। बौद्ध साहित्य में तो उसका स्थान सर्वमान्य है ही। स्थविरवाद के समान महायान में भी उसकी प्रभूत महत्ता है, यद्यपि उसके रूप के सम्बन्ध में कुछ थोड़ा बहुत परिवर्तन है। बौद्ध साहित्य के समान समग्र भारतीय-साहित्य में और इतना ही नहीं, समग्र विश्व-साहित्य में जातक का एक महत्वपूर्ण स्थान है। इसी प्रकार भारतीय सभ्यता के एक युग का ही वह निदर्शक नहीं है, बल्कि उसके प्रसार की एक अद्भूत गाथा भी जातक में समाये हुए हैं। विशेषतः भारतीय इतिहास में जातक के स्थान को कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं ले सकता। बुद्धकालीन भारत के सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक जीवन को जानने के लिए जातक एक उत्तम साधन हैं। चूँकि उसकी सूचना प्रासंगिक रूप से ही दी गई है इसलिए वह और भी अधिक प्रामाणिक हैं और महत्वपूर्ण भी। जातक के आधार पर यहाँ बुद्धकालीन भारत का संक्षिप्ततम विवरण भी नहीं दिया जा सकता। जातक की निदान-कथा में हम तत्कालीन भारतीय भूगोल सम्बन्धी महत्वपूर्ण सूचना पाते हैं। जातक में कहा गया है कि जम्बुदीप (भारत) का विस्तार दस हजार योजन है। मध्य प्रदेश की सीमाओं का उल्लेख वहाँ इस प्रकार किया गया है,‘‘मध्य देश की पूर्व दिशा में कजंगला नामक कस्बा है, उसके बाद बड़े शाल के वन है औ र फिर आगे सीमान्त देश। पूर्व-दक्षिण में सललवती नामक नदी है उसके आगे सीमान्त देश। दक्षिण-दिशा में सेतकण्णिक नामक कस्बा है, उसके आगे सीमान्त देश। पश्चिम दिशा में थूण नामक ब्राह्मण ग्राम है, उसके बाद सीमान्त देश। उत्तर दिशा में उशीरध्वज नामक पर्वत है, उसके बाद सीमान्त देश।‘‘
 
यह वर्णन यहाँ विनय-पिटक से लिया गया है और बुद्ध कालीन मध्य देश की सीमाओं का प्रामाणिक परिचायक माना जाता है। जातक के इसी भाग में नेरंजना अनोमा आदि नदियों, पाण्डव पर्वत, वैभार गिरि गयासीस आदि पर्वतों उरूवेला, कपिलवस्तु, वाराणसी, रा जगृह, लुम्बिनी, वैशाली, श्रावस्ती आदि नगरों और स्थानों एवं उत्कल देश (उड़ीसा) का तथा यष्टिवन (लटिठवन) आदि वनों का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण कोसल और मगध का तो उसके ग्रामों, नगरों, नदियों, और पर्वतों के सहित वह पूरा वर्णन उपस्थित करता है। सोलह महाजनपदों- अंग, मगध, काशी, कोसल, वज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरू, पांचाल, मच्छ (मत्स्य),सूरसेन (शूरसेन), अस्सक (अश्मक), अवन्ती, गन्धार और कम्बोज का विस्तृत वर्णन हमें असम्पादन जातक में मिलता है।<ref>अंगुत्तर निकाय पृष्ठ संख्या-129 (सोलह महाजपदों का नाम) पालि साहित्य का इतिहास भरत सिंह उपाध्याय</ref>
 
महासुतसोम जातक (537) में कुरू देश का विस्तार 300 योजन बताया गया है। इसी प्रकार धूमकारि जातक (413) तथा दस ब्राह्मण जातक (415) में कहा गया है कि युधिष्ठिर गोत्र के राजा का उस समय वहाँ राज्य था। कुरु देश की राजधानी इन्द्रप्रस्थ का विस्तार सात योजन महासुतसोम जातक (537) तथा विधुर पण्डित जातक (545) में दिया गया है। धनंजय कोरव्य और सुतसोम आदि कुरू-राजाओं के नाम कुरूधम्म जातक (276), धूमकारि जातक (413), सम्भव जातक (515) और विधुर पंडित जातक (545) में आते है। उत्तर पंचाल के लिए कुरू और पंचाल वंशों में झगड़ा चलता रहा, इसकी सूचना हम चम्पेय्य जातक (506) तथा अन्य अनेक जातकों मेंं पाते हैं। कभी वह कुरू राष्ट्र में सम्मिलित हो जाता था (सोमनस्स जातक 415) और कभी कम्पिल्ल राष्ट्र में भी, जिसका साक्ष्य ब्रह्मदत्त जातक (323), चयद्दिस जातक (513) और गण्डतिन्दु जातक (520) में विद्यमान है। पंचाल राज दुर्मख निमि का समकालिक था, इसकी सूचना हमें कुम्भकार जातक में मिलती है। अस्सक (अश्मक) राष्ट्र की राजधानी पोतन या पोतलि का उल्लेख हमें चुल्लकालिंग जातक (301)में मिलता है। मिथिला का विस्तार सुरूचि जातक (489) और गन्धार जातक (406) में सात योजन बताया गया है। महाजनक जातक (539) में मिथिला का बड़ा सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है जिसकी तुलना महाभारत 3.206.6-9 से की जाती है। सागल नगर का वर्णन कालिंगबोधि जातक (479) और कुस जातक (531) में है। काशी राज्य के विस्तार का वण र्न धजविदेह जातक (391) में है। उसकी राजधानी वाराणसी के केतुमती, सुरून्धन, सुदस्सन, ब्रह्मवड्ढन, पुप्फवती, रम्मनगर और मोलिनी आदि नाम थे। ऐसा साक्ष्य अनेक जातकों में मिलता है। तण्डुलनालि जातक (5) में वाराणसी के प्राकार का वर्णन है। तेलपत्त जातक (96) और सुसीम जातक (163) में वाराणसी से तक्षशिला की दूरी 2000 योजन बताई गई है। कुम्भकार जातक (408) में गन्धार के राजा नग्गजि या नग्नजित् का वर्णन है। कुस जातक (531) में मल्लराष्ट्र और उसकी राजधानी कुसावती या कुसिनारा का वर्णन है। चम्पेय्य जातक (506) में अंग और मगध के संघर्ष का वर्णन है। इसी प्रकार रूक्खधम्म जातक और फन्दन जातक में शाक्य और कोलियों के रोहिणी नदी के पानी को लेकर झगड़े का वर्णन है। वत्स राज्य और उसके अधीन भग्ग् राज्य की सूचना धोनसाख जातक (353) में मिलती है। इन्द्रिय जातक में सुरट्ठ अवन्ती, दक्षिणापथ, दंडकवन कुम्भवति नगर आदि का वर्णन है। संरभग जातक में सुरट्ठ देश का वर्णन है।
 
सालित्तक जातक और कुरूधम्म जातक से हमें पता चलता है कि अचिरवती नदी श्रावस्ती में होकर बहती थी। सरभंग जातक में गोदावरी नदी का भी उल्लेख है और उसे कविट्ठ वन के समीप बताया ग या है। गन्धार जातक में कश्मीर गन्धार का उल्लेख है। कण्ह जातक में संकस्स (संकाश्य) का उल्लेख है। चम्पेय्य जातक से हमें सूचना मिलती है कि चम्पा नदी अंग और मगध जनपदों की सीमा पर होकर बहती थी। गंगमाल जातक में गन्धमादन पर्वत का उल्लेख है। बिम्बिसार सम्बन्धी महत् वपूर्ण सूचना जातकों में भरी पड़ी है। महाकोसल की राजकुमारी कोसलादेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन और काशी गाँव की प्राप्ति का उल्लेख हरितमात जातक (239) और बड्ढकि सूकर जातक(283) में है। मगध और कोसल के संघर्षों का और अन्त में उनकी एकता का उल्लेख बड्ढकिसूकर जातक, कुम्मासपिंड जातक, तच्छसूकर जातक और भद्दसाल जातक आदि अनेक जातकों में है। इस प्रकार बुद्धकालीन राजाओं राज्यों, प्रदेशों, जातियों, ग्रामों, नगरों, नदियों, पर्वतों आदि का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। तिलमुट्ठि जातक (252) में ह में तक्षशिला विश्वविद्यालय का एक उत्तम चित्र मिलता है। संखपाल जातक (524) और दरीमुख जातक (378) में मगध के राजकुमारों के तक्षशिला में शिक्षार्थ जाने का उल्लेख है। तक्षशिला में शिक्षा के विधान, पाठ्यक्रम, अध्ययन विषय, उनके व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष, निवास भोजन, नियन्त्रण आदि के विषय में पूरी जानकारी हमें जातकों में मिलती है। वाराणसी राजगृह, मिथिला, उज्जयिनी श्रावस्ती, कौशाम्बी तक्षशिला आदि प्रसिद्ध नगरों को मिलाने वाले मार्गों का तथा स्थानीय व्यापार का पूरा विवरण हमें जातकों में मिलता है। काशी से चेदि जाने वाली सड़क का उल्लेख वेदब्भ जातक (48)में है। क्या-क्या पेशे उस समय लोगों में प्रचलित थे, कला और दस्तकारी की क्या अवस्था थी तथा व्यवसाय किस प्रकार होता था, इसके अनेक चित्र हमें जातकों में मिलते हैं। बावेरू जातक (339) और सुसन्धि जातक (360) से हमें पता लगता है कि भारतीय व्यापार विदेशों से भी होता था और भारतीय व्यापारी सुवर्णभूमि (बरमा से मलाया तक का प्रदेश) तक व्यापार के लिए जाते थे। भरूकच्छ उस समय एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। सुसन्धि जातक में हमें इसका उल्लेख मिलता है।
 
जल के मार्गों का भी जातकों में स्पष्ट उल्लेख है। लौकिक विश्वासों आदि के बारे में देवधम्म जातक (6) और नलपान जातक (20) आदि में समाज में स्त्रियों के स्थान के सम्बन्ध में अण्डभूत जातक (62) आदि में दासों आदि की अवस्था के सम्बन्ध में कटाहक जातक (125) आदि में, सुरापान आि द के सम्बन्ध में सुरापान जातक (81) आदि में, यज्ञ में जीव हिंसा के सम्बन्ध में दुम्मेध जातक (50) आदि में, व्यापारिक संघों और डाकुओं के भय आदि के सम्बन्ध में खुरप्प जातक (265) और तत्कालीन शिल्पकला आदि के विषय में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि में प्रभूत सामग्री भरी पड़ी है, जिसका यहाँ विवरण देना अत्यन्त कठिन है। जिस समय का जातक में चित्रण है, उसमें वर्ण व्यवस्था प्र्रचलित थी। ब्राह्मणों का समाज में उच्च स्थान था। ब्राह्मण और क्षत्रिय ये दो वर्ण उच्च माने जाते थे। दासों की प्रथा प्रचलित थी, उनके साथ दुर्व्यवहार के भी उदाहरण मिलते हैं, दास क्रीत भी होते थे, और पितृक्रमागत भी होते थे। विशेष अवस्थाओं में दास मुक्त भी कर दिये जाते थे। बुद्ध काल में जाति पेशे की सूचक नहीं थी। जातक कहानियों से पता चलता है कि किसी भी समय एक पेशे को छोड़कर कोई व्यक्ति दूसरा पेशा कर सकता था और इसमें उसकी जाति बाधक नहीं होती थी। विवाह-सम्बन्ध प्रायः समान जातियों और कुलों (सामाजिक कुल) में अच्छे माने जाते थे। उत्सवों में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सम्मिलित होती थीं अनेक प्रकार के उत्सव बुद्ध काल में होते रहते थे और उ नमें मांस मछली के भोजन के साथ-साथ सुरापान भी चलता था। स्त्रियों के सदाचार को अक्सर जातक की कहानियों में संशय की दृष्टि से देखा गया है। कहा गया है कि सत्य का होना उनमें सुदुर्लभ ही है। ‘‘सच्च तेसं सुदुल्लभं‘‘ परन्तु भार्या के रूप में स्त्री की प्रशंसा की गइ र् है और उसे परम सखा बताया गया है, ‘‘भरिया नाम परमा सखा‘‘।
 
शिल्पों का समाज में आदर था। वेश्याओं के प्रभूत वर्णन जातक में मिलते है, इस समय यह प्रथा विद्यमान थी। इसी प्रकार द्यूत का व्यसन भी प्रचलित था। विधुर पंडित जातक में हम धनंजय कोरव्य को जुआ खेलते देखते है। शासन में रिश्वत चलती थी। कणवेर जातक में हम एक कोतवाल को रिश्वत लेते देखते हैं। शकुनों में और फलित ज्योतिष में लोगों का विश्वास था। छींक आने को अपशकुन मानते थे और जब कोई छींकता था तो उससे लोग कहते थे ‘जियो’ या ‘चिंरजीव होओ’। सत्य क्रिया (सच्च किरिया) में लोगों का विश्वास था। मूगपक्ख जातक में हम देखते है कि काशिराज की रानी ने सत्य क्रिया के बल से सन्तान प्राप्त की। इसी प्रकार बट्टक जातक में कहा है कि एक बटेर के बच्चे ने अपने सत्य क्रिया बल से वृक्ष में लगी आग को बुझा दि या। वयः प्राप्त कुमारिकाओं को अपना वर खोजने की स्वतन्त्रता थी, ऐसा अम्ब जातक से पता चलता है। संकिच्च जातक में पत्नी को धनक्कीता कहा गया है। इससे पता चलता है कि कुछ विशेष अवस्थाओं में पति को कन्या के पिता को धन भी देना पड़ता था। उदय जातक से भी ऐसा ही मालूम पड़ता है।
 
जहाँ तक धार्मिक अवस्था का सम्बन्ध है, एक प्रकार का लोक-धर्म प्रचलित था। लोग यक्षों, वृक्षों, नागों, गरुड़ों और नदियों की पूजा करते थे। एक स्त्री को जो अपने पति से विछुड़ गई है, हम भागीरथी गंगा की स्तुति करते और उसकी शरण में जाते देखते हैं। परन्तु इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि एक प्रकार का भाग वत् धर्म लोगों में प्रचलित था। गोकुलदास दे ने इस बात को दिखाने का बड़ा प्रयास किया है, कि धर्म का जो स्वरूप जातककालीन समाज मे हम देखते हैं उसमें भागवत धर्म के तत्व विद्यमान हैं। जातककालीन समाज में एक प्रकार का लोकधर्म प्रचलित था। जिसमें साधारण जन-समाज के विश्वास और उसकी विभिन्न लौकिक और आध्यात्मिक आवश्यकताएँ समतल पर प्रतिबिम्बित थी। अर्थात पूजा, वन्दना, दान, देवताओं की शरणागति आदि की भावनाएँ प्रधान थी। जातक वस्तुतः प्राचीन भारतीय सामाजिक जीवन सम्बन्धी सूचनाओं का अगाध भण्डार ही हैं और उनका समग्रतया अध्ययन पालि साहित्य के इतिहास लेखक के लिए सम्भव नहीं है। यह अनेक महाग्रन्थों का विषय है।
 
बौद्ध धर्म के सभी सम्प्रदायों में जातक का महत्व सुप्रतिष्ठित है। महायान और हीनयान को वह एक प्रकार से जोड़ने वाली कड़ी है, क्योंकि महायान का बोधिसत्व आदर्श यहाँ अपने बीज-रूप में विद्यमान है। दूसरी-तीसरी शताब्दी ईसवी पूर्व के साँची और भरहुत के स्तूपों में जातक के अनेक दृश्य अंकित है। मिलिन्दपंहां में अनेक जातक कथाओं को उद्धृत किया गया है। अमरावती स्तूप द्वितीय शताब्दी ईसवी में उसके चित्र अंकित है। पाँचवी शताब्दी में लंका में उसके 500 दृश्य अंकित किये जा चुके थे। अजन्ता की चित्रकारी में भी महिस जातक (278) अंकित है। बोध गया में भी उसके अनेक चित्र अंकित है। जावा के बोरोबदूर स्तूप 9वीं शताब्दी ईसवी में बरमा के पगान नगर में स्थित पेगोडाओं (13 वीं शताब्दी ईसवी) में और सिआम में सुखोदय नामक प्राचीन नगर में जातक के अनेक दृश्य चित्रित मिले हैं। अतः जातक का महत्व भारत में ही नहीं, भारत के बाहर भी स्थविरवाद बौद्ध धर्म में ही नहीं बौद्ध धर्म के अन्य अनेक रूपों में भी प्रतिष्ठित है।
 
कालक्रम की दृष्टि से वैदिक साहित्य की [[शुनःशेप]] की कथा यम-यमी संवाद, पुरूरवा उर्वशी संवाद आदि कथानक ही बुद्ध पूर्व काल के हो सकते है। छान्दोग्य और बृहदारण्यक आदि कुछ उपनिष्दों की आख्यायिकाएँ भी बुद्ध पूर्व काल की मानी जा सकती है, और इसी प्रकार ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के कुछ आख्यान भी बुद्ध पूर्व काल की माने जा सकते हैं। इनका भी जातकों से और सामान्यतः पालि सहित्य से घनिष्ठ सम्बन्ध है। तेविज्ज सुत्त में अट्टक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अिं र्घैंरा, भारद्वाज, वशिष्ठ, काश्यप और भृगु इन दस मन्त्रकर्ता ऋषियों के नामों के साथ-साथ ऐतरेय ब्राह्मण, तैति्तरीय ब्राह्मण, छान्दोग्य ब्राह्मण और छन्दावा ब्राह्मण का भी उल्लेख हुआ है। मज्झिम निकाय के अस्सलायन सुत्तन्त के आश्वालायन ब्राह्मण को प्रश्न उपनिषद के आश्वलायन से मिलाया गया है। मज्झिम निकाय के आश्वालायन श्रावस्ती निवासी है और वेद-वेदा र्घैं में पार र्घैं त है। इसी प्रकार प्रश्न उपनिषद के आश्वालयन भी वेद वेदा र्घैं के महापंडित है और कौसल्य (कोसल निवासी) है। जातकों में भी वैदिक साहित्य के साथ निकट सम्पर्क के अनेक लक्षण पाये जाते है। उद्दालक जातक (487)में उद्दालक के तक्षशिला जाने और वहाँ एक लोक विश्रुत आचार्य की सूचना पाने का उल्लेख है। इसी प्रकार सेतुकेतु जातक में उद्दालक के पुत्र श्वेतुकेतु का कलाओं की शिक्षा प्राप्त करने के लिए तक्षशिला जाने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण के उद्दालक को हम उत्तरापथ में भ्रमण करते हुए देखते है। अतः इससे यह निष्कर्ष निकालना असंगत नहीं है कि जातकों के उद्दालक और श्वेतुकेतु ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों के इन नामों के व्यक्तियों से भिन्न नहीं है। जर्मन विद्वान लूडर्स ने सेतुकेतु जातक(377) में आने वाली गाथाओं को वैदिक आख्यान और महाकाव्य युगीन काव्य को मिलाने वाली कड़ी कहा है, जो समुचित ही है। इसी प्रकार सिंहली विद्वान मललसेकर का कहना है कि जातक का सम्बन्ध भारतीय साहित्य की उस आख्यान-विधा से है, जिससे उत्तरकालीन महाकाव्यों का विकास हुआ है। रामायण और महाभारत के साथ जातक की तुलना करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि इन दोनों ग्रन्थों के सभी अंश बुद्ध पूर्व युग के नहीं है। रामायण के वर्तमान रूप में 2400 श्लोक पाये जाते हैं। रामायण में कहा भी गया है ‘चतुर्विंश सहस्राणि श्लोकानाम उक्त वान् ऋषिः। किन्तु बौद्ध महाविभाषा-शास्त्र (कात्यायनी पुत्र के ज्ञान प्रस्थान शास्त्र की व्याख्या) से सिद्ध है कि द्वितीय शताब्दी ईसवी में भी रामायण में केवल 12,000 श्लोक थे। रामायण 2-109-34 में बुद्ध तथागत का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार शक, यवन आदि के साथ संघर्ष का वर्णन है। किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव के द्वारा कुरू मद्र और हिमालय के बीच में यवनों औ र शकों के देश और नगरों को स्थित बताया गया है।
 
इससे सिद्ध है कि जिस समय में अंश लिखे गये थे, ग्रीक और सिथियन लोग पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य जमा चुके थे। अतः रामायण के काफी अंश महाराज बिम्बिसार या बुद्ध के काल के बाद लिखे गये। महा भारत में इसी प्रकार एडूकों (बौद्ध मन्दिरों) का स्पष्ट उल्लेख है। बौद्ध विशेषण चातुर्महाराजिक भी वहाँ आया है। रोमक (रोमन) लोगों का भी वर्णन है। इसी प्रकार सिथियन और ग्रीक आदि लोगों का भी वर्णन है। आदि पर्व में महाराज अशोक को महासुर कहा गया है और महावीर्योऽपराजितः के रूप में उसकी प्रशंसा की गई है। शान्ति पर्व में विष्णुगुप्त कौटिल्य (द्वितीय शताब्दी ईसवीं पूर्व) के शिष्य कामन्दक का भी अर्थविद्या के आचार्य के रूप में उल्लेख है। इस प्रकार अनेक प्रमाणों के आधार पर सिद्ध है कि महाभारत के वर्तमान रूप का काफी अंश बुद्ध अशोक और कौटिल्य विष्णुगुप्त के बाद के युग का है। जातक की अनेक गाथाओं और रामायण के श्लोकों में अद्भुत समानता है। दसरथ जातक (461) और देवधम्म जातक (6) में हमें प्रायः राम-कथा की पूरी रूपरेखा मिलती है। जयद्दिस जातक (513) में राम का दण्डकारण्य जाना दिखाया गया है। इसी प्रकार साम जातक(540) की सदृशता रामायण 2. 63-25 से है और विण्टरनित्ज के मत में जातक का वर्णन अधिक सरल और प्रारम्भिक है। वेस्सन्तर जातक के प्रकृति वर्णन का साम्य इसी प्रकार वाल्मीकि के प्रकृति वर्णन से है और इस जातक की कथा के साथ राम की कथा में भी काफी सदृशता है। महाभारत के साथ जातक की तुलना अनेक विद्वानों ने की है। उनके निष्कर्षों को यहाँ संक्षिप्ततम रूप में भी रखना वास्तव में बड़ा कठिन है। महाजनक जातक (539) के जनक उपनिषदों और महाभारत के ही ब्राह्मज्ञानी जनक है। मिथिला के प्रासादों को जलते देखकर जनक ने कहा था मिथिलायां प्रदीप्तायां न में दह्यति किंचन । ठीक उनका यही कथन हमें महाजनक जातक (539) में भी मिलता है तथा कुम्भकार जातक (408) और सोणक जातक(529) में भी मिलता है। अतः दोनों व्यक्ति एक है।
 
इसी प्रकार ऋष्यशृर्घैं की पूरी कथा नकिनिका जातक(526) में है। युधिष्ठिर (युधिट्ठिल) और विदुर (विधूर) का संवाद दस ब्राह्मण जातक (495) में है। कुणाल जातक (536) में कृष्ण और द्रौपदी की कथा है। इसी प्रकार घट जातक(355) में कृष्ण द्वारा कंस-वध और द्वारका बसाने का पूरा वर्णन है। महाकण्ह जातक(469) निमि जातक(541) और महानारदकस्सप जातक(544) में राजा उशीनर और उसके पुत्र शिवि का वर्णन है। सिवि जातक (449) में भी राजा शिवि की दान पारमिता का वर्णन है, अपनी आँखों को दे देने के रूप में। अतः कहानी मूलतः बौद्ध है, इसमें सन्देह नहीं है। महाभारत में 100 ब्राह्मदत्तों का उल्लेख है। सम्भवतः ब्रह्मदत्त किसी एक राजा का नाम न होकर राजाओं का सामान्य विशेषण था, जिसे 100 राजाओं ने धारण किया। दुम्मेध जातक(50) में भी राजा और उसके कुमार दोनों का नाम ब्रह्मदत्त बताया गया है। इसी प्रकार गंगमाल जातक(421) मे कहा गया है कि ब्रह्मदत्त कुल का नाम है। सुसीम जातक(411), कुम्मासपिण्ड जातक(415), अट्ठान जातक(425), लोमासकस्सप जातक(433) आदि जातकों की भी, यही स्थिति है। अतः जातकों में आये हुए ब्रह्मदत्त केवल एक समय के पर्याय नहीं है। उनमें कुछ न कुछ ऐतिहासिकता भी अवश्य है।
 
रामायण और महाभारत के अतिरिक्त पतंजलि के महाभाष्य में भी जातक गाथाएँ उल्लिखित हैं। प्राचीन जन साहित्य में और बाद के कथा-साहित्य पर भी उसका प्रभाव उपलक्षित है। प्रथम शताब्दी ईसवी में गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में अपनी वड्डकहा (बृहत्कथा) लिखी जो अाज अप्राप्त है। परन्तु सोमदेव ने जो स्वयं बौद्ध थे, ग्यारहवीं -बारहवीं शताब्दी में अपना कथासरित्सागर बृहत्कथा के आधार पर ही लिखा और उसमें अनेक कहानियों के मूल श्रोत भी जातक में दिखाई पड़ते है। इसी प्रकार हितोपदेश में भी अनेक कहानियाँ जातक कथाओं प र आधारित दिखाई जा सकती हैं। भारतीय लोक-साहित्य में भी अनेक जातक-कहानियों को अदृश्य रूप से खोजा जा सकता है। ऐसी कहानियाँ भारत के प्रत्येक प्रान्त में प्रचलित हैं। उदाहरणतः-‘‘सीख वाकूँ दीजिए, जाकूँ सीख सुहाइ। सीख न दीजै बानरा, बया कौ घर जाई‘‘ के रूप में बन्दर और बया की कहानी भारत के सब प्रदेशों में विदित है। बन्दर और बया की यह कहानी कूटिदूसक जातक (321) की कहानी है। इसी प्रकार कई अनेक कहानियों को मनोरंजकपूर्ण ढंग से खोजा जा सकता है।
 
जिस प्रकार जातक कथाएँ समुद्र मार्ग से लंका, बर्मा, सिआम, जावा, सुमात्रा हिन्द-चीन आदि दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों को गई और वहाँ स्थापत्य कला आदि में चित्रित की गई उसी प्रकार स्थल मार्ग से हिन्दुकुश और हिमालय को पार कर पश्चिमी देशों तक उनके पहुँचने की कथा बड़ी लम्बी और मनोहर है। पिछले पचास-साठ वर्षों की ऐतिहासिक गवेषणाओं से यह पर्याप्त रूप से सिद्ध हो चुका है कि बुद्ध पूर्व काल में भी विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क थे। बावेरू जातक और सुसन्धि जातक में विदेशों के साथ भारत के व्यापारिक सम्पर्क के सम्बन्धों की पर्याप्त झलक दिखायी देती है। द्वितीय शताब्दी ईसवीं से ही अलसन्द जिसे अलक्षेन्द्र (अलेक्जेण्डर) ने बसाया था, पूर्व और पश्चिम की संस्कृतियों का मिलन केन्द्र हो गया था। वस्तुतः पश्चिम में भारतीय साहित्य और विशेषतः जातक कहानियों की पहुँच अरब और उनके बाद ग्रीक लोगों के माध्यम से हुई। पंचतन्त्र में अनेक जातक-कहानियाँ विद्यमान है, यह तथ्य सर्वविदित है। छठीं शताब्दी ईसवीं में पंचतन्त्र का अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया। आठवीं शताब्दी में कलेला दमना शीर्षक से उसका अनुवाद अरबी में किया गया। ‘ कलेला दमना’ शब्द ‘कर्कट’ और ‘दमनक’ के अरबी रूपान्तर हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में पंचतंत्र के अरबी अनुवाद का जर्मन भाषा में अनुवाद ,फिर धीरे-धीरे सभी यूरोपीय भाषाओं में उसका रूपान्तर हो गया। वास्तव में सीधे रूप से भी जातक ने विदेशी साहित्य को प्रभावित किया है और उसकी कथा भी अत्यन्त प्राचीन है।
 
ग्रीक साहित्य में ई्सप की कहानियाँ प्रसिद्ध है। फ्रैंच, जर्मन और अंग्रेज विद्वानों की खोज से सिद्ध है कि ईसप एक ग्रीक थे। ईसप की कहानियों का यूरोपीय साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है और विद्वानों के द्वारा यह दिखा दिया गया है कि ईसप की अधिकांश कहानियों का आधार जातक है।
 
सीहचम्म जातक (189) की कथा अति प्रसिद्ध है जो ईसप की कहानियों में भी पाई जाती है। सिंह की खाल ओढ़े हुए गधा इन दोनों जगह ही दिखाई पड़ता है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स का मत है कि शेक्सपियर ने अपने नाटक किंग जोन्ह में इस कथा की ओर संकेत किया है- अंक-2, दृश्य-1 तथा अंक 3 दृश्य 1 में। इसी प्रकार अलिफ लैला की कहानियों से भी जातक की समानताएँ है। समुग्ग जातक (436) का सीधा सम्बन्ध अलिफ लैला की एक कहानी से दिखाया गया है। कृतज्ञ पशु और अकृतज्ञ मनुष्यों की कहानियाँ जो सच्चं किर जातक (73) तक्कारिय जातक (481) आैर महाकवि जातक (516) में मिलती है। यूरोप की अनेक भाषाओं के कथा-साहित्य में बिखरी पड़ी है। इसी प्रकार अकृतज्ञ पत्नी की कहानी भी है, जो चूलपदुम जातक (193) मेंं आई है, प्रायः सारे यूरोप के कथा साहित्य में व्याप्त है। कच्छप जातक (215) की कहानी ग्रीक, लैटिन, अरबी, फारसी और अनेक यूरोपीय भाषाओं के साहित्य में पाई जाती है ऐसा रायस डेविड्स का कथन है। इसी प्रकार जम्बुखादक जातक (294) की कहानी है। पनीर के टुकड़े को लेकर गीदड़ और कौए की कहानी के रूप में यह यूरोप भर के बालकों को विदित है। महोसध जातक, दधिवाहन जातक और राजोवाद जातक की कहानियाँ भी इसी प्रकार यूरोपीय साहित्य में थोड़े बहुत रूपान्तर से पाई जाती है। अन्य अनेक कहानियों की भी तुलना विद्वानों ने जातक से की हैं। आठवीं शताब्दी में अरबों ने यूरोप पर आक्रमण किया। स्पेन और इटली आदि को उन्होंने रौंद डाला। उन्हीं के साथ जातक कहानियाँ भी इन देशों मे गईं और उन्होंने धीरे-धीरे सारे यूरोपीय साहित्य को प्रभावित किया। फ्रांस के मध्यकालीन साहित्य में पशु पक्षी सम्बन्धी कहानियों की अधिकता है। फ्रेंच विद्वानों ने उन पर जातक के प्रभाव को स्वीकार किया है।बायबिल और विशेषतः सन्त जोन्ह के सुसमाचार की अनेक कहानियों और उपमाओं की तुलना पालि, त्रिपिटक और विशेषतः जातक के इस सम्बन्धी विवरणों से विद्वानों ने की है। ईसाई धर्म पर बौद्ध धर्म का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव में अन्य अनेक तत्वों के अति रिक्त जातक का भी काफी सहयोग रहा है। इ्र्रसाई सन्त प्लेसीडस की तुलना निग्रोधमिग जातक (12) की कथा से की गई है। यद्यपि विण्टरनित्ज ने उसमें अधिक साम्य नहीं पाया है। पर सब से अधिक साम्य मध्ययुग की रचना बरलाम एण्ड जोसफत का जातक के बोधिसत्व से है। इस रचना में जो मू लतः छठीं या सातवीं शताब्दी ईसवी में पहलवी में लिखी गई थी। भगवान बुद्ध की जीवनी एक ईसाई सन्त के परिधान में वर्णित की गई है। बाद में इस रचना के अनुवाद अरब, सीरिया इटली और यूरोप की अन्य भाषाओं मेंं हुए। ग्रीक भाषा में इस रचना का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरब के खलीफा अलमंसूर के समकालिक एक ईसाई सन्त ने, जिसका नाम दमिश्क का सन्त जोन्ह (सेण्ट जोन्ह आव दमस्कस 676-749 ई0) था किया। ग्रीक से इस रचना का लैटिन में अनुवाद हुआ और फिर यूरोप की अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। करीब 80 संस्करण इस रचना के यूरोप अफ्रीका और पश्चिमी एशिया की भाषाओं में हुए है। इस रचना में जोसफत बोधिसत्व के रूप में है और बरलाम उनके गुरु हैं। बुद्ध के जन्म की कथा बृद्ध, रोगी, मृत और प्रव्रजित को उनके द्वारा देखना और संन्यास लेना, ये सब तथ्य बुद्धचरित की शैली में यहाँ वर्णित है। बुद्ध के जन्म पर की गई भविष्यवाणी का भी वर्णन और पिता के द्वारा पुत्र को महल के अन्दर रखने का भी, ताकि यह संसार का दुःख न देख सके। जोसफत शब्द अरबी युदस्तफ का रूपान्तर है, जो स्वयं संस्कृत बोधिसत्व का अरबी अनुवाद है। बोधिसत्व शब्द पहले बोसत बना और फिर जोसफत या जोसफ। ईसाई धर्म में सन्त जोसफत को (जिनका न केवल नाम बल्कि पूरा जीवन बोधिसत्व बुद्ध का जीवन है) ईसाई सन्त के रूप में स्वीकार किया गया है। पोप सिक्सटस पंचम (1585-90) ने अपने 27 दिसम्बर सन् 1585 के आदेश में जोसफत और बरलाम को ईसाई सन्तों के रूप में स्वीकार किया है।
 
इस प्रकार ईसाई परिधान में मध्यकालीन यूरोप बोधिसत्व बुद्ध को पूजता रहा। मध्ययुगीन ईसाई यूरोप पर बौद्ध धर्म के प्रभाव का यह प्रतीक है। यह एक बड़ी अद्भुत किन्तु ऐतिहासिक रूप से सत्य बात है। डॉ0 टी0 डब्ल्यू0 रायस डेविड्स ने शेक्सपियर के मर्चेण्ट ऑव वेनिस में तीन डिबियों तथा आधसेर मांस के वर्णन में तथा एज यू लाइक इट में बहुमूल्य रत्नों के विवरण में जातक के प्रभाव को ढूँढ निकाला है एवं स्लेवोनिक जाति के साहित्य में तथा प्रायः सभी पूर्वी यूरोप के साहित्य में जातक के प्रभाव की विद्यमानता दिखाई है। भिक्षु शीलभद्र ने पर्याप्त उदाहरण देकर सिद्ध किया है कि निमि जातक (541) ही चौदहवीं शताब्दी के इटालियन कवि दाँते की प्रसिद्ध रचना का आधार है। जर्मन विद्वान बेनफे ने जातक को विश्व को कथा साहित्य का उद्गम कहा है जो तथ्यों के प्रकाश में अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता है।
 
इस प्रकार भारतीय साहित्य और संस्कृति के साथ विश्व के साहित्य और सभ्यता के इतिहास में जातक का स्थान महत्वपूर्ण है।
 
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