"युगधर्म": अवतरणों में अंतर

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इतिहास-पुराणों में '''युगधर्म''' का विस्तार के साथ प्रतिपादन मिलता है (देखिये, [[मत्स्यपुराण]] 142-144 अध्याय; [[गरूड़पुराण]] 1.223 अध्याय; वनपर्व 149 अध्याय)। किस काल में [[युग]] (चतुर्युग) संबंधी पूर्वोक्त धारणा प्रवृत्त हुई थी, इस संबंध में गवेषकों का अनुमान है कि ख्रिष्टीय चौथी शती में यह विवरण अपने पूर्ण रूप में प्रसिद्ध हो गया था। वस्तुत: ईसा पूर्व प्रथम शती में भी यह काल माना जाए तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता।
 
निम्नलिखित दो श्लोकों के द्वारा यह बताया गया है कि किस प्रकार युगों के ह्रास का क्रम से धर्मों का ह्रास भी देखा जाता है।
: ''अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे।
: ''अन्ये कलियुगे न¤णां युगह्रासानुरूपतः ॥1॥
 
अर्थात् युग के ह्रास के अनुरूप चारों युगों के धर्मों का ह्रास होने लगा। [[कृतयुग]] या [[सत्ययुग]] के धर्म अन्य है, [[त्रेतायुग]] में अन्य, [[द्वापर]] में कुछ अन्य तथा [[कलियुग]] में कुछ अन्य धर्म उपाय के रूप
में प्रचलित हुए।
 
: ''तपः परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते।
: ''द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥2॥
 
अर्थात् सत्ययुग का परम श्रेष्ठ धर्म [[तप]] या तपस्या माना गया है जिससे मानव अपने सभी श्रेय एवं प्रेय प्राप्त कर सकता था। त्रेता में ज्ञान प्राप्त करना, द्वापर में यज्ञ करना परम धर्म मान्य है और कलियुग का धर्म केवल दान को ही माना गया है।
 
==इन्हें भी देखें==