"भीखाजी कामा": अवतरणों में अंतर

→‎जीवन परिचय: स्वतंत्रता सेनानी सरदारसिंह राणा का 'वंदे मातरम्' अंकित ध्वज में मेडम कामा और सावर...
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'''श्रीमती भीखाजी जी रूस्तम कामा (मैडम कामा)''' ({{IPA audio link|भीखाईजी कामा.ogg}} {{IPAc-en|ˈ|b|h|iː|kh|aː|iː|j|iː|_|k|aː|m|aː}}) (24 सितंबर 1861-13 अगस्त 1936) भारतीय मूल की [[फ्रांस|फ्रांसीसी]] नागरिक थीं जिन्होने [[लन्दन]], [[जर्मनी]] तथा [[अमेरिका]] का भ्रमण कर [[भारत]] की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया।
वे [[जर्मनी]] के [[स्टटगार्ट]] नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में [[भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज]] फहराने के लिए सुविख्यात हैं। उस समय तिरंगा वैसा नहीं था जैसा आज है।<ref>{{cite web |url= http://www.pustak.org/bs/home.php?bookid=1726|title= लहराता रहे तिरंगा|accessmonthday=[[12 दिसंबर]]|accessyear=[[2007]]|format= पीएचपी|publisher=भारतीय साहित्य संग्रह|language=}}</ref>
 
उनके द्वारा [[पेरिस]] से प्रकाशित "वन्देमातरम्" पत्र प्रवासी भारतीयों में काफी लोकप्रिय हुआ। 1909 में जर्मनी के स्टटगार्ट में हुयी अन्तर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम भीकाजी कामा ने कहा कि - ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन जारी रहना मानवता के नाम पर कलंक है। एक महान देश भारत के हितों को इससे भारी क्षति पहुँच रही है।’’ उन्होंने लोगों से [[भारत]] को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया कि - ‘‘आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।’’ यही नहीं मैडम भीकाजी कामा ने इस कांफ्रेंस में ‘वन्देमातरम्’ अंकित भारतीय[[भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज]] ध्वज फहरा कर अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। मैडम भीकाजी कामा लन्दन में [[दादा भाई नौरोजी]] की प्राइवेट सेक्रेटरी भी रहीं।
 
धनी परिवार में जन्म लेने के बावजूद इस साहसी महिला ने आदर्श और दृढ़ संकल्प के बल पर निरापद तथा सुखी जीवनवाले वातावरण को तिलांजलि दे दी और शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुँचे साम्राज्य के विरुद्ध क्रांतिकारी कार्यों से उपजे खतरों तथा कठिनाइयों का सामना किया। श्रीमती कामा का बहुत बड़ा योगदान साम्राज्यवाद के विरुद्ध विश्व जनमत जाग्रत करना तथा विदेशी शासन से मुक्ति के लिए भारत की इच्छा को दावे के साथ प्रस्तुत करना था। भारत की स्वाधीनता के लिए लड़ते हुए उन्होंने लंबी अवधि तक निर्वासित जीवन बिताया था।
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== जीवन परिचय ==
भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 को [[बम्बई]] में एक [[पारसी]] परिवार में हुआ था। उनमें लोगों की मदद और सेवा करने की भावना कूट−कूट कर भरी थी। वर्ष 1896 में मुम्बई में [[प्लेग]] फैलने के बाद भीकाजी ने इसके मरीजों की सेवा की थी। बाद में वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई थीं। इलाज के बाद वह ठीक हो गई थीं लेकिन उन्हें आराम और आगे के इलाज के लिए यूरोप जाने की सलाह दी गई थी। वर्ष 1902 में वह इसी सिलसिले में [[लंदन]] गईं और वहां भी उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संघर्ष के लिए काम जारी रखा। भीकाजी ने वर्ष 1905 में अपने सहयोगियों [[सरदारसिंह राणा]], [[विनायक दामोदर सावरकर]] और [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]] की मदद से [[भारत केका ध्वजप्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज]] का पहला डिजाइन तैयार किया था।
 
भीकाजी कामा ने 22 अगस्त 1907 को [[जर्मनी]] में हुई इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांफ्रेंस में भारतीय स्वतंत्रता के ध्वज[[भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज]] को बुलंद किया था। उस सम्मेलन में उन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्त करने की अपील की थी। उनके तैयार किए गए झंडे से काफी मिलते−जुलते डिजायन को बाद में भारत के ध्वज के रूप में अपनाया गया। राणाजी, कामाजी और सावरकरजी द्वारा निर्मित यह ध्वज[[भारत का प्रथम तिरंगा राष्ट्रध्वज]] आज भी गुजरात के [[भावनगर]] स्थित [[सरदारसिंह राणा]] के पौत्र और भाजपा नेता [[राजुभाई राणा]] ( राजेन्द्रसिंह राणा ) के घर सुरक्षित रखा गया है।
 
वह अपने क्रांतिकारी विचार अपने समाचार-पत्र ‘वंदेमातरम्’ तथा ‘तलवार’ में प्रकट करती थीं। श्रीमती कामा की लड़ाई दुनिया-भर के साम्रज्यवाद के विरुद्ध थी। वह भारत के स्वाधीनता आंदोलन के महत्त्व को खूब समझती थीं, जिसका लक्ष्य संपूर्ण पृथ्वी से साम्राज्यवाद के प्रभुत्व को समाप्त करना था। उनके सहयोगी उन्हें ‘भारतीय क्रांति की माता’ मानते थे; जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात् महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे। यूरोप के समाजवादी समुदाय में श्रीमती कामा का पर्याप्त प्रभाव था। यह उस समय स्पष्ट हुआ जब उन्होंने यूरोपीय पत्रकारों को अपने देश-भक्तों के बचाव के लिए आमंत्रित किया। वह ‘भारतीय राष्ट्रीयता की महान पुजारिन’ के नाम से विख्यात थीं। फ्रांसीसी अखबारों में उनका चित्र [[जोन ऑफ आर्क]] के साथ आया। यह इस तथ्य की भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी कि श्रीमती कामा का यूरोप के राष्ट्रीय तथा लोकतांत्रिक समाज में विशिष्ट स्थान था।<ref>{{cite web |url= http://www.pustak.org/bs/home.php?bookid=1726|title= प्रतिष्ठित भारतीय|accessmonthday=[[12 दिसंबर]]|accessyear=[[2007]]|format= पीएचपी|publisher=भारतीय साहित्य संग्रह|language=}}</ref>