"स्वनिम": अवतरणों में अंतर

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== मुक्त वितरण ==
 
जब ध्वनि में अन्तर होने पर भी अर्थ-परिवर्तन न हो, तो उसे मुक्त वितरण (Free Distribution) कहते हैं। हिन्दी में स्वनिम के ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं; यथा- दीवार > दीवान, ग़म > गम। यहाँ प्रथम शब्द में / र / - / ल और द्वितीय में / ग / - / ग / ध्वनियों के अतिरिक्त पूरा परिवेश समान है। इसके लिए '''~''' चिन्ह का प्रयोग करते हैं; यथा- दीवार > दीवाल / र / ~ / ल।
 
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:ल- -ल- -ल
:लखन कलम कमल
 
== विशेषताएँ ==
 
* 1. स्वनिम भाषा की लघुत्तम इकाई है; यथा - अ, त, क, प आदि।
 
* 2. स्वनिम विभिन्न समान ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करता है। यदि एक ध्वनि का एक से अधिक या अनेक तरह से उच्चारण किया जाए, तो उसके लिए एक ही स्वनिम होगा; यथा- 'क' ध्वनि को दस व्यक्ति बोले या एक ही व्यक्ति दस बार बोले तो इसके दस रूप होंगे, किन्तु इन दसों ध्वनि-रूपों के लिए एक ही स्वनिम होगा।
 
* 3. स्वनिम अर्थ-भेदक इकाई है; यथा- तन और मन शब्दों में अर्थ-भिन्नता त और म स्वनिमों की भिन्नता के कारण है। तन के न और मन के न के उच्चारण में सूक्ष्म भिन्नता अवश्य है, किन्तु दोनों एक ही स्वनिम से सम्बन्धित है; इसलिये इनसे अर्थ-भिन्नता नहीं होती है।
 
* 4. स्वनिम उच्चारित भाषा से सम्बन्धित है। लिखित भाषा से इसका सम्बन्ध नहीं होता। लिखित भाषा में इसी प्रकार की इकाई लेखिम होती है। हिन्दी में क एक स्वनिम है जिसके लिये अंग्रेजी में कई लेखिमों का प्रयोग होता है; यथा- C > कैमल (camel) K > काइट (kite) > केमेस्ट्री (chemistry), Que > चैक (cheque) ck > बैक (Back) आदि।
 
* 5. प्रत्येक भाषा के अपने स्वनिम होते हैं, जो अन्य किसी भी भाषा के स्वनिम से भिन्न होते हैं। अर्थात् स्वनिम भाषा विशेष पर आधारित होते हैं; यथा - प, फ हिन्दी के स्वनिम हैं, जब कि अन्य भाषा में ये ध्वनियाँ भी हो सकती हैं जब कोई व्यक्ति अपनी भाषा के स्वनिमों से भिन्न किसी अन्य भाषा के स्वनिमों का प्रयोग करता है, तो उनके उच्चारण में कठिनाई आती है। ऐसे समय वह न स्वनिमों की भिन्नता के आधार पर विभिन्न भाषा-भाषियों की पहचान सम्भव है यदि हिन्दी में 'जल' है तो बंगला में 'जॉल'।
 
* 6. स्वनिम समपवर्ती ध्वनियों से प्रभावित होते हैं; त अघोष, अल्पप्राण, दन्त्य ध्वनि जब न के साथ प्रयुक्त होती है तो नासिक्य ध्वनि 'न' का प्रभाव उस पर पड़ जाता है - तन झ तँन।
 
* 7. सभी भाषाओं में ध्वनियों की एक निश्चित व्यवस्था होती है जिसके आधार पर उनमें ध्वन्यात्मक संतुलन बना रहता है; यथा - हिन्दी के क, घ, छ, झ, ठ, ढ आदि स्वनिमों का ज्ञान हो तो स्वनिम-व्यवस्था के अनुसार अल्पप्राण-महाप्राण के क्रम के अनुसार 'क' वर्ग में 'घ' के अतिरिक्त 'ख' एक अन्य महाप्राण ध्वनि की सम्भावना स्पष्ट हो जाएगी। इस प्रकार स्वनिम-व्यवस्था पूरी हो जाती है।
 
* 8. कभी-कभी दो ध्वनियाँ बिना अर्थ-परिवर्तन के एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त होती हैं। यह प्रायः बोलियों की सहजीकरण की स्थिति में होता है, किन्तु यदा-कदा मानक उच्चारण में भी ऐसे प्रयोग मिल जाते हैं; यथा- क > क > ख़ > ख, ज़ > ज (इल्जाम) प्रथम शब्द का अर्थ दोष है और द्वितीय का अर्थ है- घोड़े के मुख में लगाम देना यहाँ दोनों ही शब्द समान 'दोष' अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं।
 
* 9. प्रत्येक भाषा के स्वनिमों की संख्या भिन्न होती है।
 
* 10. यदि कोई ध्वनि एक बार निश्चित हो जाए कि स्वनिम है, तो वह सदा प्रत्येक स्थिति में स्वनिम होगी। (Once phoneme ever phoneme.)
 
* 11. यदि कोई ध्वनि आदि, मध्य और अन्त में से किसी एक में मिले तो स्वनिम स्थिति विचारणीय है। हिन्दी में ऐसी स्थिति नहीं दिखाई देती। अंग्रेजी ध्वनियाँ p + k की आदि स्थिति में क्रमशः P<sup>h</sup> , T<sup>h</sup> , K<sup>h</sup> हो जाती हैं, किन्तु मध्य और अन्त में पूर्ववत PTK रहती हैं।
 
: आदि मध्य अन्य
: P<sup>h</sup> -p- -p
: t<sup>h</sup> -t- -t
: k<sup>h</sup> -k- -k
 
प्रवर्तित ध्वनि केवल आदि में है, इसके अर्थ में परिवर्तन भी नहीं होता। अन्त में स्वनिम नहीं है। मध्य तथा अन्त स्थिति में अधिक परिवेश में प्रयुक्त होने से p.t.k. स्वनिम हैं। ये ध्वनियाँ आपस में संस्वन हैं।
 
== उपयोगिता ==
 
* 1. स्वनिम ज्ञान से भाषा के शुद्ध उच्चारण में सरलता होती है। स्वनिम के माध्यम से ही किसी भाषा की मूल ध्वनियों का ज्ञान होता है। इस प्रकार भाषा-शिक्षण में स्वनिम ज्ञान का विशेष महत्त्व है।
 
* 2. स्वनिम उच्चरित भाषा से सम्बन्धित है। इनके माध्यम से भाषा की ध्वनियों की संख्या का नियन्त्राण होता है। इस प्रकार के नियन्त्राण से भाषा उच्चारण में समुचित व्यवस्था बनी रहती है। स्वनिम व्यवस्था से नई ध्वनियों के आगम पर उनका सीखना सम्भव और सरल होता है।
 
* 3. स्वनिम भाषा की अर्थ भेदक इकाई है। भाषा की अन्य इकाइयाँ - शब्द, पद, वाक्य आदि का ज्ञान तब तक सम्भव नहीं होता जब तक स्वनिम का ज्ञान न हो, क्योंकि भाषा की परवर्ती वृहत्तर इकाइयाँ स्वनिम पर आधारित हैं।
 
* 4. लिपि-निर्माण में स्वनिम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भाषा के स्वनिमों के निश्चयन के पश्चात् ही लिपि का निर्माण होता है। इस प्रकार स्वनिम को लिपि का मूलाधार कह सकते हैं।
 
* 5. आदर्श लिपि का निश्चय ही स्वनिम के माध्यम से होता है। जिस लिपि में एक स्वनिम के लिए एक लिपि चिह्न हो, उसे आदर्श लिपि कहते हैं।
 
* 6 स्वनिम के माध्यम से ही अन्तर्राष्ट्रीय लिपि (I.N.P.A) का रूप सामने आया है। सभी भाषाओं के विभिन्न स्वनिमों के लिए इसमें समुचित रूप से एक-एक चिन्ह की व्यवस्था होती है। इस प्रकार भाषा के शुद्ध उच्चारण, [[आदर्श लिपि]] और [[अन्तरराष्ट्रीय लिपि]] निर्माण आदि में स्वनिम की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
 
== इन्हें भी देखें ==