"जैन दर्शन": अवतरणों में अंतर
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==द्रव्य==
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द्रव्य वह है, जिसमें गुण और पर्याय हो-'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'। गुण स्वरूप धर्म है और पर्याय आगन्तुक धर्म। इन धर्मों के दो भेद हैं- (क) भावात्मक (ख) अभावात्मक। स्वरूपधर्मों के बिना द्रव्य का अस्तित्त्व सम्भव नहीं। यह जगत् द्रव्यों से बना है। द्रव्य सत् हैं; क्योंकि उसमें सत्ता के तीनों लक्षण उत्पत्ति, व्यय (क्षय) और नित्यता मौजूद है। द्रव्य के दो रूप हैं- अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अनस्तिकाय के अमूर्त होने से इसमें केवल काल की ही गणना होती है, जबकि अस्तिकाय में दो प्रकार के द्रव्य हैं- (क) जीव तथा (ख) अजीव। चेतन द्रव्य जीव अथवा आत्मा है। सांसारिक दशा में यही आत्मा जीव कहलाती है। जीव में प्राण तथा शारीरिक, मानसिक और ऐन्द्रिक शक्ति है, जिसमें कार्य के प्रभाव से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदायिक तथा पारिमाणिक- ये पाँच भाव प्राण से संयुक्त, रहते हैं। द्रव्य के रूप बदलने पर यही ‘भावदशापन्न प्राण’ पुद्गल (डंजजमत) कहलाता है। इस प्रकार पुद्गल युक्त जीव ही संसारी कहा जाता है।
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