"प्याज़े का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 1:
[[ज़ाँ प्याज़े|पियाजे]] द्वारा प्रतिपादित '''संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त''' (theory of cognitive development) [[मानव बुद्धि]] की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बन्धित एक विशद सिद्धान्त है। प्याज़े का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका [[बचपन]] एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पियाजे का सिद्धान्त, '''विकासी अवस्था सिद्धान्त''' (developmental stage theory) कहलाता है। यह सिद्धान्त [[ज्ञान]] की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है, कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है।
 
व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है; अर्थात् पहचानता है, प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझने की कोशिश करता है तथा संबंधित वस्तु/व्यक्ति के संदर्भ में अमूर्त चिन्तन करता है। उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कोई भी व्यक्ति वातावरण में उपस्थित किसी भी प्रकार के उद्दीपकों (स्टिमुलैंट्स) से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता है, पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है, ग्रहण करता है, उसकी व्याख्या करता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संज्ञात्माक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता हैं ।
बच्चे [[सदाचार|नैतिक मुद्दों]] के बारे में किस तरह सोचते हैं; इसके बारे में प्याजे (1932) ने रूचि जागृत की थी। उन्होंने बहुत अधिक गहराई से चार से बारह साल के उम्र के बच्चों का अवलोकन और साक्षात्कार किया। पियाजे ने बच्चों को कंचे खेलते हुए देखा ताकि वे यह जान सकें कि बच्चों ने खेल के नियम पर किस तरह से विचार किया। उन्होंने बच्चों से नैतिक मुद्दों (जैसे, सजा और न्याय) के बारे में भी बात की। पियाजे ने पाया कि जब बच्चे नैतिकता के बारे में सोचते हैं, तो वे दो अलग-अलग अवस्थाओं से होकर गुजरते है।
 
ज्याँ प्याजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार, बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता हैं और परिमार्जित होता रहता है। पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धान्त को '''विकासात्मक सिद्धान्त''' भी कहा जाता है। चूंकि उसके अनुसार, बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओ से होकर गुजरता है, इसलिये इसे '''अवस्था सिद्धान्त''' भी कहा जाता है।
* '''चार से सात साल के बच्चे''' (बाहरी सत्ता से प्राप्त) नैतिकता दिखाते है जो कि प्याजे के नैतिक विकास के सिद्धान्तों की पहली अवस्था है। बच्चे न्याय और नियमों को दुनिया के ना बदलने वाले गुणधर्म मानते हैं। उनके लिए न्याय और नियम ऐसी चीजें हैं जो लोगों के बस से बाहर होती हैं।
 
== संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ ==
* '''सात से दस साल की उम्र में बच्चे''' नैतिक चिन्तन की पहली से दूसरी अवस्था के बीच एक मिली-जुली स्थिति में होते है।
 
ज्यां पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार अवस्थाओं में विभाजित किया है-
* '''दस साल या उससे बड़े बच्चे''' आटोनोमस (स्वतंत्रता पर आधारित) नैतिकता दिखाते है। वे यह बात जान जाते है कि नियम और कानून लोगों के बनाए हुए है। और किसी के कार्य का मूल्यांकन करने में वे कार्य को करने वाले व्यक्ति के इरादों और कार्य के परिणामों के ऊपर भी विचार करते हैं।
*(१) संवेदिक पेशीय अवस्था (Sensory Motor) : जन्म के दो वर्ष
*(२) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational) : 2-7 वर्ष
*(३) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational) : 7 से 12 वर्ष
*(४) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational) : 12 से 15 वर्ष
 
=== संवेदी पेशीय अवस्था ===
चूंकि छोटे बच्चे बाहरी सत्ता वाली नैतिकता के स्तर पर होते है, वे किसी के व्यवहार के बारे में सही या गलत का निर्णय उस व्यवहार से होने वाले परिणामों को देखकर लेते हैं, न कि व्यवहार कर्त्ता के उद्देश्यों के आधार पर। जैसे कि उनके के लिए जानबूझ कर तोड़े गए एक कप की तुलना में हादसे में 12 कप टूटने की घटना ज्यादा बुरी है। जैसे बच्चे स्वतन्त्र अवस्था पर आने लगते हैं, वैसे-वैसे किसी काम को करने वाले का उद्देश्य/इरादा उनके नैतिक चिन्तन का एक आवश्यक बिन्दु बनने लगता है।
इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारिरीक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जि त करता है । बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाओं () होती है वह इन सहज क्रियाओं और ज्ञानन्द्रियों की सहायता से बच्चा वस्तुओं ध्वनिओं ,स्पर्श, रसो एवं गंधों का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनरावृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है।
 
=== पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था ===
बाहरी सत्ता के आधर पर नैतिक चिन्तन करने वाले बच्चे यह भी मानते हैं कि नियम न बदलने वाली चीज है और यह नियम किसी शक्तिशाली सत्ता के द्वारा बनाए गए हैं। प्याजे ने छोटे बच्चों को सुझाया कि वह कंचे के खेल के नए नियम बनाएं, तो छोटे बच्चों ने मना कर दिया। दूसरी तरफ बड़े बच्चों ने परिवर्तन को स्वीकारा और पहचाना कि नियम सिर्फ हमारी सुविधा के लिए बनाए गए हैं, जिन्हें बदला जा सकता है।
इस अवस्था में बालक स्वकेन्द्रित व स्वार्थी न होकर दूसरों के सम्पर्क से ज्ञान अर्जित करता है । अब वह खेल, अनुकरण, चित्र निर्माण तथा भाषा के माध्यम से वस्तुओं के संबंध में अपनी जानकारी अधिकाधिक बढ़ाता है। धीरे-धीरे वह प्रतीकों को ग्रहण करता है किन्तु किसी भी कार्य का क्या संबंध होता है तथा तार्किक चिन्तन के प्रति अनभिज्ञ रहते हैं।
 
=== स्थूल संक्रियात्मक अवस्था ===
बाहरी सत्ता के आधार पर नैतिक चिन्तन करने वाले बच्चे 'तुरन्त न्याय' की धारणा में भी विश्वास रखते हैं। यानि कि अगर एक नियम तोड़ा जाता है तो सजा भी मिलनी चाहिए। छोटे बच्चे मानते हैं कि अगर किसी चीज को खंडित किया या तोड़ा गया है तब यह काम अपने आप सजा से जुड़ जाता है। इसीलिए छोटे बच्चे जब भी कोई गलत काम करते हैं तब चिन्ता से अपने आसपास देखने लगते हैं, यह सोचकर कि उन्हें सजा तो मिलेगी। तुरंत न्याय का सिद्धान्त यह भी कहता है कि अगर किसी के साथ कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हुआ हो तो उस व्यक्ति ने जरूर पहले कुछ किया होगा, जिसके परिणास्वरूप ऐसा हुआ। बड़े बच्चे जो नैतिकता की स्वतन्त्रता रखने लगते है, यह पहचानते है कि सजा तभी मिलती है जब किसी ने कुछ गलत होते देख लिया हो और उसके बाद भी जरूरी नहीं कि सजा मिले ही।
इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रांरभ कर लेता है एवं वस्तुओं एव घटनाओं के बीच समानता, भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन हो जाती है इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध, वर्गीकरण , क्रमानुसार व्यवस्था किसी भी वस्तु ,व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है। वह तर्क कर सकता है। संक्षेप में वह अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूल करने के लिये अनेक नियम को सीख लेता है।
 
=== औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था ===
नैतिक तर्क को लेकर इस तरह के परिवर्तन कैसे आते हैं? पियाजे मानते हैं कि जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते है उनकी सोच सामाजिक मुद्दों के बारे में गहरी होती चली जाती है। प्याजे का मानना है कि सामाजिक समझ साथियों के साथ आपसी लेन-देन से आती है। जिन साथियों के पास एक जैसी शक्ति और ओहदा होता है वहां योजनाओं के बीच समझौता किया जाता है और सहमत न होने पर तर्क दिया जाता है और आखिर में सब कुछ ठीक हो जाता है। अभिभावक और बच्चे के रिश्तों में जहां अभिभावक के पास शक्ति होती है लेकिन बच्चों के पास नहीं, वहां नैतिक तर्क की समझ को विकसित करने की संभावना कम रहती है क्योंकि अधिकतर नियम आदेशात्मक तरीके से दिए जाते हैं।
यह अवस्था 12 वर्ष के बाद की है इस अवस्था की विशेषता निम्न है :-
 
* तार्किक चिंतन की क्षमता का विकास
* समस्या समाधान की क्षमता का विकास
* वास्तविक-आवास्तविक में अन्तर समझने की क्षमता का विकास
* वास्तविक अनुभवों को काल्पनिक परिस्थितियों में ढालने की क्षमता का विकास
* परिकल्पना विकसित करने की क्षमता का विकास
* विसंगंतियाँ के संबंध में विचार करने की क्षमता का विकास
 
== ज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया एवं सरचना ==
जीन पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की प्रकिया में मुख्यतः दो बातों को महत्वपूर्ण माना है। पहला संगठन दूसरा अनुकूलन । संगठन से तात्पर्य वुद्धि में विभिन्न क्रियाएँ जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति , चिंतन एवं तर्क सभी संगठित होकर करती है। उदा. एक बालक वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों के संबंध में उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएँ पृथक पृथक कार्य नही करती है बल्कि एक साथ संगठित होकर कार्य करती है। वातावरण के साथ समायोजन करना संगठन का ही परिणाम है। संगठन व्यक्ति एवं वातावरण के संबंध को आंतरिक रूप से प्रभावित करता है। अनुकूलन बाह्य रूप से प्रभावित करता है।
 
==बाहरी कड़ियाँ==