"टामस हाब्स": अवतरणों में अंतर

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राज्य को उसके मौलिक तत्वों में विघटित करने पर प्राकृतिक अवस्था प्राप्त होती है। यह अवस्था ऐतिहासिक तथ्य नहीं बल्कि [[अराजकता]] की तार्किक अवधारणा है। बाह्य जगत् में व्याप्त गति के प्रतिघात से मानव शरीर में दो प्रकार की गतियाँ उत्पन्न होती हैं- आकर्षण और विकर्षण। मनोवैज्ञानिक स्तर पर उन्हें इच्छा और विद्वेष कहते हैं। जो वस्तुएँ जीवनरक्षा में सहायक होती हैं, मनुष्य उनके प्रति आकृष्ट होता है और जिनसे जीवन नष्ट होता है उनसे वह पलायन करता है। वांछित वस्तुएँ शुभ कही जाती हैं और अवांछित अशुभ। चूँकि जीवन की रक्षा तथा संवृद्धि करनेवाली वस्तुएँ सीमित है और सभी व्यक्ति अपनी दैहिक तथा मानसिक शक्तियों को मिलाकर लगभग समान हैं, अत: वांछित वस्तुओं की प्राप्ति तथा उसको संचित रखने के लिए प्रतिद्वंद्वित प्रारंभ होती है जो शीघ्र ही गौरव तथा शक्ति के लिए संघर्ष के रूप में परिणत हो जाती है। इस संघर्ष का पर्यवसान केवल मृत्यु में होता है क्योंकि शक्तिलिप्सा अनंत होती है। उसमें विवेक एवं मर्यादा के लिये कोई स्थान नहीं होता। सदैव अतृप्त वासनाओं की तुष्टि में संलग्न, मदांध तथा एक दूसरे के प्रति सशंक व्यक्तियों के निरंतर युद्ध के परिणामस्वरूप प्राकृतिक अवस्था में मानव जीवन एकाकी, तुच्छ, घृणित, पाशविक और क्षणिक हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में सभ्यता, संस्कृति तथा व्यवसाय का सर्वथा अभाव रहता है। न्याय अन्याय का प्रश्न ही नहीं उठता। व्यक्ति अपनी जीवनरक्षा के लिए जो कुछ कर सकता है वही उसका प्राकृतिक अधिकार है। प्राकृतिक अधिकार केवल प्राकृतिक शक्ति से ही सीमित होते हैं।
 
प्राकृतिक अवस्था मनुष्य के असीम अभिमान, स्वार्थ तथा अनियंत्रित भावावेश का परिणाम है। किंतु इस भयावह परिस्थिति से मुक्ति दिलानेवाली बुद्धि भी उसमें विद्धमान रहती है। बुद्धि के द्वारा मनुष्य प्राकृतिक नियमों की खोज करता है जिनसे शांति की व्यवस्था होती है और जीवनरेखा की संभावना बढ़ जाती है। प्राकृतिक विधान यह शिक्षा देता है कि प्रतिद्वंद्विता और हिंसा आत्मरक्षा के शत्रु हैं, सहयोग तथा शांति ही उसके वास्तविक साधन हैं। अत: प्रत्येक व्यक्ति को शांति ढूँढ़ने का प्रयत्न करना चाहिए। यदि अन्य व्यक्ति भी इस बात के लिए तैयार हों तो उसे अपने असीम प्राकृतिक अधिकारों को छोड़ने तथा दूसरों के विरुद्ध उतनी ही स्वतंत्रता से संतुष्ट रहने के लिए तत्पर होना चाहिए जितनी वह अपने विरुद्ध दूसरों को देने के लिए उद्यत हो। मनुष्य को अपने किए हुए वादों के अनुकूल आचरण करना चाहिए क्योंकि पारस्परिक विश्वास और प्रसंविदा[[संविदा]] (contract) से ही समाज की स्थापना की जा सकती है।
 
प्राकृतिक विधान राज्य के लिए आवश्यक हैं किंतु हाब्स अपने अहंवादी मनोविज्ञान से उनका सांमाजस्य स्थापित नहीं कर पाता। यदि मनुष्य बुद्धियुक्त प्राणी है तो प्राकृतिक अवस्था का यह भयानक चित्र असत्य है और यदि यह चित्र वास्तविक है तो ऐसे प्राणियों से समाज में रहने की आशा करना व्यर्थ है। फिर प्राकृतिक विधान नैतिक विधान है अथवा केवल उपयोगिता के नियम, यह स्पष्ट नहीं है। निस्संदेह ईश्वर अथवा संप्रभु के ओदश का रूप धारण कर लेने पर वे नैतिक रूप से बाध्य करते हैं। किंतु संप्रभु से आदिष्ट होते के पूर्व उनकी बाध्यता नैतिक है अथवा केवल बौद्धिक इस विषय में विद्वनों में मतभेद है। हाब्स यह भी कहता है कि शक्ति के बिना प्रसंविदासंविदा बेकार है। अत: नैतिक तथा बौद्धिक रूप से बाध्य होने पर भी व्यक्ति को राज्य का आज्ञापालन करने के लिए भौतिक बंधन की आवश्यकता है।
 
प्रसंविदासंविदा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अपने असीम प्राकृतिक अधिकारों को एक अन्य व्यक्ति, या व्यक्तिसमूह, को स्थानांतरित कर देता है जो सबकी शांति और सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता है। प्रसंबिदासंबिदा का अंग ने होने के कारण यह व्यक्ति, या व्यक्तिसमूह, किसी भी मानवीय कानून से बाध्य नहीं है। वह सभी व्यक्तियों का प्रतिनिधि है। अत: उसका विरोध आत्मविरोध है। उसमें संनिहित संप्रभुता अविभाज्य, असीम अदेय तथा स्थायी है। चर्च तथा अन्य समुदायों का वह एकमात्र स्वामी है। उसके आदेश ही कानून हैं और जहाँ कानून मौन है, वहीं जनता स्वतंत्र है। संप्रभु की आज्ञा की अवहेलना व्यक्ति आत्मरक्षा हेतु ही कर सकता है। प्रसंविदासंविदा के अतिरिक्त राज्य की स्थापना विजय के द्वारा भी हो सकती है किंतु दोनों में कोई तात्विक अंतर नहीं है।
 
हाब्स आधुनिक राजदर्शन का जन्मदाता कहा जाता है। [[बेंथम]] के [[उपयोगितावाद]] तथा [[आस्टिन]] के [[संप्रभुता सिद्धांत]] (Theory of Sovereignty) पर उसका प्रभाव स्पष्ट है। यद्यपि उसने निरंकुश संप्रभुता का समर्थन किया, तथापि [[व्यक्तिवाद]] उसके दर्शन की आधारशिला है। संप्रभु की असीम अधिकार देते हुए भी व्यक्ति के जीवन में राज्य के अनावश्यक हस्तक्षेप को वह अवांछनीय मानता है। फिर, व्यक्ति की राजभक्ति की आधार है संप्रभु की सुरक्षा तथा शांति प्रदान करने की क्षमता। यदि यह ऐसा नहीं कर सकता, तो जनता दूसरा शासक चुनने के लिए स्वतंत्र है। संप्रभु को राज्य करने का दैवी अधिकार नहीं है।