"राजा मान सिंह": अवतरणों में अंतर

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'''राजा मान सिंह''' [[आमेर]] (आम्बेर) के कच्छवाहा [[राजपूत]] राजा थे। उन्हें 'मान सिंह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। राजा भगवन्त दास इनके पिता थे।
 
वह [[अकबर]] की सेना के प्रधान [[सेनापति]], [[जोधा बाई]] के भतीजे/भाई,{{तथ्य}} [[अकबर]] के साले और [[मुग़ल]] सेना में सेनापति थे। उन्होने आमेर के मुख्य महल के निर्माण कराया।
 
महान इतिहासकार कर्नल [[जेम्स टॉड]] ने लिखा है- " [[भगवान दास]] के उत्तराधिकारी मानसिंह को अकबर के दरबार में श्रेष्ठ स्थान मिला था।..मानसिंह ने ''उडीसा'' और ''आसाम'' को जीत कर उनको बादशाह अकबर के अधीन बना दिया. राजा मानसिंह से भयभीत हो कर ''काबुल'' को भी अकबर की अधीनता स्वीकार करनी पडी थी। अपने इन कार्यों के फलस्वरूप मानसिंह बंगाल, बिहार, दक्षिण और काबुल का शासक नियुक्त हुआ था।"<ref>1.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
== महाराजा मानसिंह और महाराणा प्रताप ==
जब अकबर के सेनापति मानसिंह [[शोलापुर]] [[महाराष्ट्र]] विजय करके लौट रहे थे, तो मानसिंह ने प्रताप से मिलने का विचार किया। प्रताप उस वक़्त कुम्भलगढ़ में थे। अपनी राज्यसीमा मेवाड़ के भीतर से गुजरने पर (किंचित अनिच्छापूर्वक) महाराणा प्रताप को उनके स्वागत का प्रबंध [[उदयपुर]] के उदयसागर की पाल पर करना पड़ा. स्वागत-सत्कार एवं परस्पर बातचीत के बाद भोजन का समय भी आया। महाराजा मानसिंह भोजन के लिए आये किन्तु महाराणा को न देख कर आश्चर्य में पड़ गये| उन्होंने महाराणा के पुत्र अमरसिंह से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि 'महाराणा साहब के सिर में दर्द है, अतः वे भोजन पर आपका साथ देने में में असमर्थ हैं।' कर्नल टॉड के अनुसार असल में महाराणा प्रताप, आमेर महाराजा मानसिंह की बहन/ बुआ (?) जोधा बाई 'अकबर जैसे विदेशी आक्रान्ता' से ब्याही थी के साथ बैठ कर भोजन करना अपना निजी और समस्त राजपूत जाति का अपमान समझते थे। मानसिंह इस बात को ताड़ गए और उन्होंने वहीं अपने इस अपमान का बदला लेने का निश्चय कर डाला। बिना भोजन किए ही वह चले गए।
 
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यही घटना [[हल्दी घाटी]] के युद्ध का कारण भी बनी। अकबर को राणा प्रताप के इस व्यवहार के कारण मेवाड़ पर आक्रमण करने का एक और मौका मिल गया। सन 1576 ई. में अकबर की आज्ञा पर मानसिंह 'महाराणा प्रतापसिंह को दण्ड देने' के अभियान पर नियत हुए।
 
राजस्थान का इतिहास आगे कुछ और भी भयंकर सचाइयां बताता है।<ref>2.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>"....प्रताप के आदेश पर जो स्थान महाराजा मानसिंह के भोजन के लिए नियत किया गया था, वह खोद डाला गया, उस पर गंगाजल छिड़का गया, मानसिंह को जिन बर्तनों में भोजन परोसा गया था वे बर्तन अपवित्र हो जाने से नष्ट कर दिए गए, जिन-जिन राजपूतों ने उस दिन आमेर नरेश राजा मानसिंह को अपनी आँखों से देखा था, उन्होंने दुबारा हजामत बनवाई, पानी में गंगाजल डाल कर स्नान किया और नए वस्त्र धारण किये...." महाराजा मानसिंह ने ये घटना जा कर अकबर को बतलाई और कुछ इतिहासकारों के अनुसार यही घटना [[हल्दी घाटी]] के युद्ध का कारण भी बनी। अकबर को राणा प्रताप के इस व्यवहार के कारण मेवाड़ पर आक्रमण करने का एक और मौका मिल गया। सन 1576 ई. में अकबर की आज्ञा पर मानसिंह 'महाराणा प्रतापसिंह को दण्ड देने' के अभियान पर नियत हुए।
मुगलों की विशाल सेना टिड्डी दल की तरह मेवाड़ की ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ अकबर का जबरदस्त तोपखाना भी था। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खाँ, आसफ खाँ और महाराजा मानसिंह के साथ अकबर का शाहजादा सलीम उस मुगल सेना का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या इतिहासकार ८० हजार से १ लाख तक बताते हैं।
 
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उस विशाल मुगल सेना का कड़ा मुकाबला राणा प्रताप ने अपने मुट्ठी भर (सिर्फ बीस-बाईस हजार) सैनिकों के साथ किया। हल्दी घाटी की पीली भूमि रक्तरंजित हो उठी। सन् 1576 ई. के 21 जून को गोगून्दा के पास [[हल्दी घाटी]] में प्रताप और मुग़ल सेना के बीच एक दिन के इस भयंकर संग्राम में सत्रह हज़ार सैनिक मारे गए। यहीं राणा प्रताप और मानसिंह का आमना-सामना होने पर दोनों के बीच विकट युद्ध हुआ (जैसा इस पृष्ठ में अंकित भारतीय पुरातत्व विभाग के शिलालेख से प्रकट है)- [[चेतक]] की पीठ पर सवार प्रताप ने अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक पर काले-नीले रंग के, अरबी नस्ल के अश्व [[चेतक]] के पाँव जमा दिए और अपने भाले से सीधा राजा मानसिंह पर एक प्रलयंकारी वार किया, पर तत्काल अपने हाथी के मज़बूत हौदे में चिपक कर नीचे बैठ जाने से इस युद्ध में उनकी जान बच गयी- हौदा प्रताप के दुर्घर्ष वार से बुरी तरह मुड़ गया। बाद में जब गंभीर घायल होने पर राणा प्रताप जब हल्दीघाटी की युद्धभूमि से दूर चले गए, तब राजा मानसिंह ने उनके महलों में पहुँच कर प्रताप के प्रसिद्ध हाथियों में से एक हाथी रामप्रसाद को दूसरी लूट के सामान के साथ आगरा-दरबार भेजा। ''परन्तु मानसिंह ने चित्तौडगढ के नगर को लूटने की आज्ञा नहीं दी थी, यह जान कर बादशाह अकबर इन पर काफी कुपित हुआ और कुछ वक़्त के लिए दरबार में इनके आने पर प्रतिबन्ध तक लगा दिया.''<ref>3. '''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
'''जेम्स टॉड''' के शब्दों में- "जिन दिनों में अकबर भयानक रूप से बीमार हो कर अपने मरने की आशंका कर रहा था, मानसिंह ने अपने भांजे खुसरो को मुग़ल सिंहासन पर बिठाने के लिए षड्यंत्रों का जाल बिछा दिया था।..उसकी यह चेष्टा दरबार में सब को ज्ञात हो गयी और वह बंगाल का शासक बना कर भेज दिया गया। उसके चले जाने के बाद खुसरो को कैद करके कारागार में रखा गया। मानसिंह चतुर और दूरदर्शी था। वह छिपे तौर पर अपने भांजेखुसरो का समर्थन करता रहा. मानसिंह के अधिकार में बीस हज़ार राजपूतों की सेना थी। इसलिए बादशाह प्रकट रूप में उसके साथ शत्रुता नहीं की. कुछ इतिहासकारों ने लिखा है- "अकबर ने दस करोड़ रुपये दे कर मानसिंह को अपने अनुकूल बना लिया था।"<ref>4.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
== काबुल का शासक नियुक्त ==
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''राजा भगवानदास'' की मृत्यु हो जाने पर (उनका दत्तक पुत्र) राजा मानसिंह जयपुर के सिंहासन पर बैठा. कर्नल [[जेम्स टॉड]] ने लिखा है- "''मानसिंह के शासनकाल में आमेर राज्य ने बड़ी उन्नति की. मुग़ल दरबार में सम्मानित हो कर मानसिंह ने अपने राज्य का विस्तार किया उसने अनेक राज्यों पर आक्रमण कर के जो अपरिमित संपत्ति लूटी थी, उसके द्वारा आमेर राज्य को शक्तिशाली बना दिया. ''धौलाराय'' के बाद आमेर, जो एक मामूली राज्य समझा जाता था, मानसिंह के समय वही एक शक्तिशाली और विस्तृत राज्य हो गया था। भारतवर्ष के इतिहास में कछवाहों (अथवा कुशवाहों) को शूरवीर नहीं माना गया पर राजा ''भगवान दास'' और मानसिंह के समय कछवाहा लोगों ने खुतन से समुद्र तक अपने बल, पराक्रम और वैभव की प्रतिष्ठा की थी। मानसिंह यों अकबर की अधीनता में ज़रूर था, पर उसके साथ काम करने वाली राजपूत सेना, बादशाह की सेना से कहीं अधिक शक्तिशाली समझी जाती थी"।''<ref>5.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
 
कर्नल [[जेम्स टॉड]] की इस बात से दूसरे कुछ इतिहासकार सहमत नहीं. उनका कथन है ''मानसिंह भगवान दास का गोद लिया पुत्र नहीं था, बल्कि वह तो भगवंत दास का लड़का था। भगवानदास और भगवंत दास दोनों भाई थे। आमेर के राजा भारमल (भारमल्ल) ने पहले अपनी बेटी जोधा बाई का विवाह अकबर से किया था, उसके बाद भगवान दास ने भी अपनी लड़की शाही मुगल परिवार में ब्याही.''<ref>6.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
== भारमल, भगवान दास / भगवंत दास, जोधा बाई, सलीम और आमेर के राजपूतों का मुग़लों से विवाह ==
कर्नल [[जेम्स टॉड]] के इतिहास में लिखा है- "''अकबर ने राजपूतों को अपना शुभचिंतक बनाने के लिए 'तलवार' का नहीं 'तरकीब' (राजनीति) का आसरा लिया। सम्मान दे कर कोई भी किसी के ह्रदय पर अधिकार कर सकता है। मालूम होता है-अकबर ने भगवान दास के साथ इसी नैतिक बल का प्रयोग किया था और उस से राजा भगवान दास इतना प्रभावित हुआ था कि उसने शहजादा सलीम के साथ, जो जहाँगीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, अपनी लड़की का विवाह कर दिया. उस लड़की से जहाँगीर के लड़के खुसरो का जन्म हुआ।..''"
मुस्लिम इतिहासकार भी कहते हैं, ''हिजरी सन ९९३ (सन १५८६ ईस्वी) में भगवान दास की लड़की जोधा बाई का विवाह सलीम के साथ हुआ था।''
 
कर्नल [[जेम्स टॉड]] की इस बात से दूसरे कुछ इतिहासकार सहमत नहीं. उनका कथन है ''मानसिंह भगवान दास का गोद लिया पुत्र नहीं था, बल्कि वह तो भगवंत दास का लड़का था। भगवानदास और भगवंत दास दोनों भाई थे। आमेर के राजा भारमल (भारमल्ल) ने पहले अपनी बेटी जोधा बाई का विवाह अकबर से किया था, उसके बाद भगवान दास ने भी अपनी लड़की शाही मुगल परिवार में ब्याही.''<ref>6.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>
मुग़ल-इतिहास की किताबों से ज़ाहिर होता है कि अकबर के आदेश पर उसके अनुभवी अधिकारी महाराजा मानसिंह, स्थानीय सूबेदार कुतुबुद्दीन खान और आमेर के राजा भगवंत दास ने गोगून्दा और मेवाड़ के जंगलों में महाराणा प्रताप को पकड़ने के लिए बहुत खोजबीन की पर अंततः वे असफल रहे तो अकबर बड़ा क्रुद्ध हुआ- यहाँ तक सन १५७७ में तो उन दोनों (कुतुबुद्दीन खान और राजा भगवंत दास) की 'ड्योढी तक बंद' कर दी गयी!"<ref>7.'''राजस्थान का इतिहास''' : कर्नल [[जेम्स टॉड]], साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर</ref>