"देवर्षि रमानाथ शास्त्री": अवतरणों में अंतर

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== पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय को योगदान ==
मुंबई प्रवास के दौरान उनका परिचय भूलेश्वर स्थित मोटा मन्दिर के गोस्वामी श्री गोकुलनाथ जी महाराज से हो गया जो शीघ्र ही मित्रवत् घनिष्ठता में बदल गया। उनके प्रयत्नों से [[पुष्टिमार्गीय वैष्‍णव सम्‍प्रदाय]] में एक आन्दोलन की तरह नई चेतना जागृत हुई। वे मोटा मन्दिर के श्रीबालकृष्ण पुस्तकालय के मैनेजर तथा पाठशाला के प्रधान पण्डित हो गये। गोस्वामीजी के अनुरोध पर उन्होने सम्प्रदाय में ‘शास्त्री’ पद भी स्वीकार किया। वे मुम्बई में सन् 1930 तक रहे। इस प्रवास के दौरान वे न केवल [[पुष्टिमार्गीय वैष्‍णव सम्‍प्रदाय|पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय]] के मर्मज्ञ व अद्वितीय विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हुए, वरन् उन्होने शुद्धाद्वैत [[दर्शन]] का विवेचन और [[पुष्टिमार्ग]] के अनुपम रहस्यों तथा [[सिद्धांत]] की व्याख्या करते हुए अनेक वैदुष्यपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे। वे कई वर्षों तक मुंबई की तत्कालीन विद्वत्परिषद, ब्रह्मवाद परिषद तथा [[सनातन धर्म]] सभा के मानद मंत्री रहे। यहाँ उन्होने ‘स्वधर्म विवर्धिनी सभा’ की स्थापना की जिसके अंतर्गत प्रत्येक एकादशी को एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता था। उनके [[व्याख्यान|व्याख्यानों]] और [[प्रवचन|प्रवचनों]] को इतना अधिक सराहा गया कि मुम्बई के माधवबाग में एक अन्य संस्था ‘आर्य स्वधर्मोदय सभा’ में भी उनके [[व्याख्यान]] और [[गीता]] पर प्रवचन होने लगे, जिन्हें सुनने विद्वज्जनों, धर्म-संस्कृति प्रेमियों व रसिक [[भक्तों]] के अतिरिक्त देवकरण नानजी, कृष्णदास नाथा, मथुरादास गोकुलदास, [[हनुमान प्रसाद पोद्दार|पं. हनुमान प्रसाद पोद्दार]] जैसे सम्मानित व्यक्ति भी आते थे। यहीं कई बार [[महात्मा गाँधी]], [[चितरंजन दास|चितरंजनदास]], [[चक्रवर्ती राजगोपालाचारी|राजगोपालाचारी]] जैसे राष्ट्रीय नेताओं से उनका संपर्क एवं संवाद होता था। वे पटना की चतुःसम्प्रदाय [[वैष्णव]] महासभा, [[वर्णाश्रम]] स्वराज्यसंघ, तथा [[सनातन धर्म]]सभाओं में भी अपनी वैदुष्यपूर्ण वक्तृतावक्तृत्व से सभी विद्वानों के आदर पात्र थे, जिसके कारण [[काशी]] में होनेवाली अखिल भारतीय [[ब्राह्मण]] महासम्मलेन में उन्हें सभा का नियामक बनाया गया।
[[मुम्बई]] से देवर्षि रमानाथ शास्त्री सन् 1930 में महाराणा [[मेवाड़]] तथा [[नाथद्वारा]] के तत्कालीन तिलकायित गोस्वामी गोवर्धनलाल जी के निमंत्रण पर नाथद्वारा आये, जहाँ वे मृत्युपर्यन्त 1943 तक सुप्रसिद्ध विद्याविभाग के अध्यक्ष रहे। उन्होंने सन् 1936 में अन्य सहयोगियों के साथ मिल कर [[नाथद्वारा]] में ‘साहित्य मण्डल’ नामक संस्था की स्थापना की और इस सम्बन्ध में वे काफ़ी समय तक [[मदनमोहन मालवीय|पं. मदनमोहन मालवीय]] के सम्पर्क में भी रहे। अपने जीवन के सन्ध्याकाल में वे [[श्रीनाथजी]] के दर्शनों का लाभ लेते थे और उनके विभिन्न श्रृंगारों पर [[संस्कृत]] में अत्यंत हृदयस्पर्शी व भावपूर्ण साहित्यिक [[श्लोक]] लिखते थे। उनके निधन के पश्चात् उनके पुत्र देवर्षि ब्रजनाथ शास्त्री विद्याविभागाध्यक्ष (1943-1950) बने।