"हिन्दू देवी-देवता": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
वैदिक देवताओं का वर्गीकरण तीन कोटियों में किया गया है - पृथ्वीस्थानीय, अंतरिक्ष स्थानीय और द्युस्थानीय। अग्नि, वायु और सूर्य क्रमश: इन तीन कोटियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हीं त्रिदेवों के आधार पर पहले 33 और बाद को 33 कोटि देवताओं की परिकल्पना की गई है। 33 देवताओं के नाम और रूप में ग्रंथभेद से बड़ा अंतर है। ‘शतपथ ब्राम्हण’ (4.5.7.2) में 33 देवताओं की सूची अपेक्षाकृत भिन्न है जिनमें 8 वसुओं, 11 रुद्रों, 12 आदित्यों के सिवा आकाश और पृथ्वी गिनाए गए हैं। 33 से अधिक देवताओं की कल्पना भी अति प्राचिन है। ऋग्वेद के दो मंत्रों में (3.9.9; 10. 52. 6) 3339 देवताओं का उल्लेख है। इस प्रकार यद्यपि मूलरूप में वैदिक देववाद एकेश्वरवाद पर आधारित है, किंतु बाद को विशेष गुणवाचक संज्ञाओं द्वारा इनका इस रूप में विभेदीकरण हो गया कि उन्होंने धीरे धीरे स्वतंत्र चारित्रिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। उनका स्वरूप चरित्र में शुद्ध प्राकृतिक उपादानात्मक न रहकर धीरे धीरे लोक आस्था, मान्यता और परंपरा का आधार लेकर मानवी अथवा अतिमानवी हो गया।
मित्रों !! आर्य समाजियों और अन्य धर्मद्वेषियों के घोर कुतर्क से क्षुब्ध होकर आज हम आपके समक्ष शास्त्रों के आधार पर यह सिद्ध करने जा रहे हैं कि देवता वास्तव में 33 करोड़ ही हैं। 33 प्रकार के नहीं।
 
आम तौर पर जो जन यह समझते हैं कि 33 कोटि शब्द में कोटि का अर्थ 'प्रकार' है, वे अपनी बात के समर्थन में निम्न बाते करते हैं।
 
भ्रमपूर्ण कुतर्क :---
 
उनका कहना है कि
हिन्दू धर्म को भ्रमित करने के लिए अक्सर देवी और देवताओं की संख्‍या 33 करोड़ बताई जाती रही है। धर्मग्रंथों में देवताओं की 33 कोटि बताई गई है ( करोड़ ) नहीं ।
जिस प्रकार एक ही शब्द को अलग अलग स्थान पर प्रयोग करने पर अर्थ भिन्न हो जाता है ।उसी प्रकार
देवभाषा संस्कृत में कोटि शब्द के दो अर्थ होते हैं।
कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता है ।
लेकिन यहां कोटि का अर्थ
प्रकार है, करोड़ नहीं ।
 
 
इस बात के समर्थन में वे यह भी कहते हैं कि ग्रंथों को खंगालने के बाद कुल 33 प्रकार के देवी-देवताओं का वर्णन मिलता है ।
ये निम्न प्रकार से हैं:-
 
12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं ।
कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।
12 आदित्य:-
1.अंशुमान, 2.अर्यमा, 3.इन्द्र, 4.त्वष्टा, 5.धाता, 6.पर्जन्य, 7.पूषा, 8.भग, 9.मित्र, 10.वरुण, 11.विवस्वान और 12.विष्णु।
8 वसु:- 1.अप, 2.ध्रुव, 3.सोम, 4.धर, 5.अनिल, 6.अनल, 7.प्रत्यूष और 8. प्रभाष।
11 रुद्र :- 1.शम्भु, 2.पिनाकी, 3.गिरीश, 4.स्थाणु, 5.भर्ग, 6.भव, 7.सदाशिव, 8.शिव, 9.हर, 10.शर्व और 11.कपाली।
2 अश्विनी कुमार:- 1.नासत्य और 2.दस्त्र
कुल : 12+8+11+2=33
 
 
33 देवी और देवताओं के कुल के अन्य बहुत से देवी-देवता हैं: सभी की संख्या मिलकर भी 33 करोड़ नहीं होती, लाख भी नहीं होती और हजार भी नहीं। वर्तमान में इनकी पूजा होती है।
 
इनके कुतर्क का खंडन :-
 
प्रथम तो कोटि शब्द का अर्थ करोड़ भी है, और प्रकार भी है, इसे हम अवश्य स्वीकार करते हैं, परंतु यह नहीं स्वीकार करते कि यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ न होकर प्रकार होगा।
पहले तो कोटि शब्द को समझें। कोटि का अर्थ प्रकार लेने से कोई भी व्यक्ति 33 देवता नहीं गिना पायेगा। कारण, कि स्पष्ट है, कोटि यानी प्रकार यानी श्रेणी। अब यदि हम कहें कि आदित्य एक श्रेणी यानी प्रकार यानी कोटि है, तो यह कह सकते हैं कि आदित्य की कोटि में बारह देवता आते हैं, जिनके नाम अमुक अमुक है। लेकिन आप ये कहें कि सभी बारह अलग अलग कोटि हैं, तो ज़रा हमें बताएं कि पर्जन्य, इंद्र और त्वष्टा की कोटि में कितने सदस्य हैं ? ऐसी गणना ही व्यर्थ है, क्योंकि यदि कोटि कोई हो सकता है, तो वह आदित्य है। आदित्य की कोटि में बारह सदस्य, वसु की कोटि या प्रकार में 8 सदस्य आदि आदि। लेकिन यहाँ तो एक एक देवता को एक एक श्रेणी कह दिया है कुतर्कियों ने।
 
द्वितीय, उन्हें कैसे ज्ञात कि यहाँ कोटि का अर्थ प्रकार ही होगा, करोड़ नहीं ? प्रत्यक्ष है कि देवता एक स्थिति है, योनि हैं जैसे मनुष्य आदि एक स्थिति है, योनि है। मनुष्य की योनि में भारतीय, अमेरिकी, अफ़्रीकी, रूसी, जापानी आदि कई कोटि यानि श्रेणियाँ हैं, जिसमें इतने इतने कोटि यानी करोड़ सदस्य हैं। देव योनि में मात्र यही 33 देव नहीं आते। इनके अलावा मणिभद्र आदि अनेकों यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गन्धर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां होती हैं देवों में। जिनमें से दो तीन हज़ार के नाम तो प्रत्यक्ष ऊँगली पर गिनाये जा सकते हैं।
 
शुक्ल यजुर्वेद ने कहा :- अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता वसवो देवता रुद्रा देवतादित्या देवता मरुतो देवता विश्वेदेवा देवता बृहस्पतिर्देवतेन्द्रो देवता वरुणो देवता।
 
अथर्ववेद में आया है :- अहमादित्यरुत विश्वेदेवै।
 
इसमें अग्नि और वायु का नाम भी देवता के रूप में आया है। अब क्या ऊपर की फ़र्ज़ी 33 देव नामावली में ये न होने से देव नहीं गिने जायेंगे ? मैंने ये नहीं कह रहा कि ये ऊपर के गिनाये गए 33 देवता नहीं होते। बिलकुल होते हैं। लेकिन इनके अलावा भी करोड़ों देव हैं।
 
भगवती दुर्गा की 5 प्रधान श्रेणियों में 64 योगिनियां हैं। हर श्रेणी में 64 योगिनी। इनके साथ 52 भैरव भी होते हैं। सैकड़ों योगिनी, अप्सरा, यक्षिणी के नाम मैं बता सकता हूं। 49 प्रकार के मरुद्गण और 56 प्रकार के विश्वेदेव होते हैं। ये सब कहाँ गए ? इनकी गणना क्यों न की गयी ?
 
इनका दूसरा कुतर्क :-
 
शिव-सती : सती ही पार्वती है और वहीं दुर्गा है। उसी के नौ रूप हैं। वही दस महाविद्या है।
शिव ही रुद्र हैं और हनुमानजी जैसे उनके कई अंशावतार भी हैं।
 
विष्णु-लक्ष्मी : विष्णु के 24 अवतार हैं। वहीं राम है और वही कृष्ण भी। बुद्ध भी वही है और नर-नारायण भी वही है। विष्णु जिस शेषनाग पर सोते हैं वही नाग देवता भिन्न-भिन्न रूपों में अवतार लेते हैं। लक्ष्मण और बलराम उन्हीं के अवतार हैं।
 
ब्रह्मा-सरस्वती : ब्रह्मा को प्रजापति कहा जाता है। उनके मानसपुत्रों के पुत्रों में कश्यप ऋषि हुए जिनकी कई पत्नियां थी। उन्हीं से इस धरती पर पशु, पक्षी और नर-वानर आदि प्रजातियों का जन्म हुआ। चूंकि वह हमारे जन्मदाता हैं इसलिए ब्रह्मा को प्रजापिता भी कहा जाता है।
 
इनके कुतर्क का पुनः खंडन :-
 
यदि कश्यप आदि को आप इसीलिए देव नहीं मानते क्योंकि ब्रह्मा के द्वारा इनका प्राकट्य हुआ है सो ये सब ब्रह्मरूप हुए सो इनकी गिनती नहीं होगी, तो कश्यप के द्वारा प्रकट किये गए 12 आदित्य और 8 वसु तथा 11 रुद्रो को आप कश्यपरूप मान कर छोड़ क्यों नहीं देते ? इनकी गिनती के समय आपकी प्रज्ञा कहाँ गयी ?
 
यदि सारे रूद्र शिव के अवतार हैं, स्वयं हनुमान जी भी हैं, तो क्या आप पार्वती को हनुमान जी की पत्नी कह सकते हैं ? क्यों नही ? इसीलिए क्योंकि हनुमान रुद्रावतार हैं। उस समय अवतार यानी वही ऊर्जा होने पर भी स्वरूपतः और उद्देश्यतः भिन्न हैं। ऐसे ही समग्र संसार नारायण रूप होने पर भी स्वरूपतः और उद्देश्यतः भिन्न है। इसी कारण आप सीता को कृष्ण पत्नी और रुक्मिणी को राम पत्नी नहीं कह सकते। क्योंकि अभेद में भी भेद है। और जो सबों के एक होने की बात करते हैं वे यदि इतने ही बड़े ब्रह्मज्ञानी हैं तो क्या उन्हें शिव और विष्णु की एकाकारता नहीं दिखती ? शिव और विष्णु में इन्हेंभेद दीखता है इसलिए इन्हें अलग अलग गिनेंगे, और राम और विष्णु में अभेद दीखता है सो इन्हें नहीं गिनेंगे। वाह री मूर्खता !! समग्र संसार ही विष्णुरूप है, रुद्ररूप है, देवीरूप है। भेद भी है और अभेद भी है। लेकिन यदि अभेद मानते हो फिर ये तो 33 देव गिना रहे हो ये भी न गिना पाओगे । क्योंकि जब विष्णु के अवतार राम और कृष्ण को अभेद मानकर नहीं गिन रहे, सती के दस महाविद्या अवतार को नहीं गिन रहे तो फिर शिव जी के 11 रूद्र अवतार को किस सिद्धांत से गिन रहे हो ? और यदि एक मानने का परिणाम देखना चाहते हो तो कमला महाविद्या के साथ धूमावती का या फिर मातंगी के साथ महिषमर्दिनी का मन्त्र जप कर देखना । जिन्दा बचे तो आगे बात करेंगे। सभी ग्रामदेव, कुलदेव, अजर आदि क्षेत्रपाल, ये सबको कौन गिनेगा ? ये छोडो, इस 33 वाली गणना में तो गणेश, कार्तिकेय, वीरभद्र, अग्नि, वायु, कुबेर, यमराज जैसे प्रमुख देवों को भी नहीं गिना गया।
 
वेदों में कही कहीं तेरह देवता की भी बात आई है। और कहीं कहीं 36 देवता की भी चर्चा है। 3339 और 6000 की भी चर्चा है। अकेले वालखिल्यों की संख्या 60000 है। तो वहाँ इन 33 में से कुछ को लिया भी गया है और कुछ को नहीं भी। तो क्या वह असत्य है ? बिलकुल नहीं। जैसे जहाँ मनुष्य की चर्चा हो वहाँ आप केवल उनका ही नाम लेते हैं, जिसका उस चर्चा से सम्बन्ध हो, सबों का नहीं। वैसे ही जहाँ जैसे प्रसंग हैं वहाँ वैसे ही देवों का नाम लिया गया है। इसका अर्थ ये नहीं। कि जिनकी चर्चा नहीं की गयी, या अन्यत्र की गयी, उसका ककी अस्तित्व ही नहीं। इस 33 की श्रेणी में गरुड, नन्दी आदि का नाम नहीं जबकि वेदों में तो है। विनायक की श्रेणी में, वक्रतुण्ड के श्रेणी में गणेश जी के सैकड़ों अवतार के नाम तंत्र में आये हैं।
 
हाँ 33 कोटि देव की बात है ज़रूर और कोटि का अर्थ करोड़ ही है। क्योंकि देवता केवल स्वर्ग में नहीं रहते। उनके सैकड़ों अन्य दिव्यलोक भी हैं। और ऐसे कहा जाय तो फिर सभी एक रूप होने से सीधे ब्रह्म के ही अंश हैं तो ये 33 भी गिनती में नहीं आएंगे। भारतीय ही हैं तो अलग अलग क्यों गिनते हैं ?
 
 
 
वेदोत्तर काल में पौराणिक तांत्रिक साहित्य और धर्म तथा लोक धर्म का वैदिक देववाद पर इतना प्रभाव पड़ा कि वैदिक देवता परवर्ती काल में अपना स्वरूप और गुण छोड़कर लोकमानस मे सर्वथा भिन्न रूप में ही प्रतिष्ठापित हुए। परवर्ती काल में बहुत से वैदिक देवता गौण पद को प्राप्त हुए तथा नए देवस्वरूपों की कल्पनाएँ भी हुई। इस परिस्थिति से भारतीय देववाद का स्वरूप और महत्व अपेक्षाकृत अधिक व्यापक हो गया।