"अफगानिस्तान में हिन्दू धर्म": अवतरणों में अंतर

इतिहास
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=== काबुल शाही और झूनबिल राजवंश ===
[[चित्र:Kabul_ganesh_khingle.jpg|अंगूठाकार|310x310पिक्सेल|पाँचवी शताब्दी में मारबल की गणेश मूर्ति अफगानिस्थान के [[गरदेज़|गरदेज]] से प्राप्त हुई थी। अभी वो मूर्ति काबुल के दरगाह पीर रतन नाथ में है। शिलालेखों के अनुसार इस "महागणेश की उत्कृष्ट और सुन्दर मूर्ति" को हेफथलाइट् (Hephthalite) वंश के शासक खिंगल ने स्थापित की थी।]]
स्लामीयोंइस्लामीयों के अफगानिस्तान विजय से पूर्व वहाँ विभिन्न धार्मिक परम्परायें थी, जिन में [[पारसी]] धर्म (उत्तरपूर्वी क्षेत्र में), पेगन-मत (मूर्तिपूजा पद्धति) (दक्षिण और पूर्व में), [[बौद्ध धर्म]] (दक्षिणपूर्वी क्षेत्र में) और [[हिन्दू धर्म]] ([[काबुल]] और अन्य कई स्थानों पर) का समावेश होता है। [[फारसी]], खलजी, [[तुर्की]] और अफगानी जैसे कई लोगों का निवास स्थान [[अफगानिस्थान]] था। दक्षिणक्षेत्र के हफखाली-वंशी झूनबिल् और एपिगोनी लोगों द्वारा दक्षिण [[हिन्दू कुश]] पर शासन किया गया था। पूर्व भाग पर काबुल शाहों का वर्चस्व था। झूनबिल और कालुल शाहों का सम्बन्ध सभी [[भारतीय उपमहाद्वीप|भारतीय  उपमहाद्वीपी]]<nowiki/>य संस्कृति के साथ था। झूनबिल् राजा [[सूर्य]] भगवान् की पूजा करते थे, जिन्हें वे झून नाम से जानते थे और इसी शब्द से उनके वंश का नाम समुत्पन्न हुआ। कुछ वर्तमानकालीन इतिहासविदों ने अनुचित अनुमान किया है कि, जो लोग मूर्ति पूजा करते हैं, वे सभी हिन्दू होते हैं। उदाहरण के रूप में आन्द्रे विन्क् लिखते हैें कि, "झून लोगों का पंथ मूलरूप से हिन्दु था। उसे बौद्ध या [[पारसी]] नहीं।" <ref name="Wink">André Wink, "Al-Hind: The Making of the Indo-Islamic World", Brill 1990. p 118</ref> सभी मूर्ति पूजकों को हिन्दूत्व का भाग नहीं माना जाना चाहिये। मूर्तिपूजा सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है, जिस में [[मक्का]] और [[साउदी अरब]] भी अन्तर्भूत होते हैं। <ref name="Wink">André Wink, "Al-Hind: The Making of the Indo-Islamic World", Brill 1990. p 118</ref>
 
653-4 AD में अब्दुल् रहमान् बिन् समारा ने 6,000 अरबी मुस्लिम के साथ झूनबिल-वंशीयों की सीमा को पदाक्रान्त किया और झमिनदवार में स्थित झून मन्दिर (सूर्य मन्दिर) पर्यन्त पहुंच गये। अफगानिस्थान में स्थित आज के [[हेलमन्द प्रान्त]] जो प्राचीन काल में मुसा कुला (आज एक मुसा कुला नगर भी है वहां।) नाम से प्रसिद्ध था, उससे तीन माइल् दूर झमिनदवार था ऐसा माना जाता है। अरब सेना के सेनापति ने उस मन्दिर की "सूर्य मूर्ति के हाथ खण्डित कर दिये और मूर्ति की आँखों में स्थित [[कुरुविंद|कुरुविन्द]] (ruby) को नीकाल दिया। सिस्तान के मर्झबान् के भगवान् की अनुपयोगिता को सिद्ध करने के लिये ऐसा किया गया था"।<ref>André Wink, "Al-Hind: The Making of the Indo-Islamic World", Brill 1990. p 120</ref>